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शनिवार, 23 सितंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 28 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 14

परमेश्वर के वचन के प्रति अनुचित व्यवहार – 9

 

    पिछले लेखों में हम मूसा, राजा शाऊल, और राजा दाऊद के जीवनों से बाइबल के अनुसार परमेश्वर का आज्ञाकारी होने के अर्थ को देखते और समझते आ रहे हैं। इन सभी उदाहरणों के द्वारा हमने देखा है कि परमेश्वर का आज्ञाकारी होने का अर्थ व्यक्ति का केवल वह करना ही नहीं है जो परमेश्वर चाहता है कि वह करे; बल्कि उस काम को ठीक वैसे ही करना भी है जैसा कि परमेश्वर ने उसके विषय निर्देश, चाहे अपने वचन में लिखवाकर अथवा किसी को विशेष निर्देश देने के द्वारा, दिए हैं। किसी भी व्यक्ति को, वह चाहे परमेश्वर का कितना भी बड़ा या महान भक्त क्यों न हो, चाहे परमेश्वर के प्रति अपने प्रेम और श्रद्धा को वह कितनी भी प्रबल रीति से व्यक्त करना क्यों न चाहता हो, यह अधिकार नहीं है कि वह परमेश्वर के वचन, उसके निर्देशों के साथ छेड़-छाड़ करे, उनमें किसी प्रकार की कोई फेर-बदल करे। कोई भी उसके लिए परमेश्वर द्वारा किसी भी निर्धारित कार्य को, उसके बारे में परमेश्वर द्वारा दिए गए निर्देशों की अनदेखी कर के, उसे अपनी इच्छा और अपनी पसंद के अनुसार, परमेश्वर के निर्देशों की बजाए उस कार्य को अपने या किसी मनुष्य के द्वारा बनाए तरीकों से नहीं कर सकता है। परमेश्वर के वचन को हलके में लेना, और यह सोचना कि उसमें फेर-बदल की जा सकती है, देर-सवेर परमेश्वर के न्याय और दण्ड को आमंत्रित करता है। आज हम बाइबल के इस सिद्धान्त, कि परमेश्वर का वचन पवित्र, सिद्ध, और अटल है और कोई उसको भ्रष्ट नहीं कर सकता है, की पुनः पुष्टि पुराने नियम के एक और उदाहरण, राजा उज्जिय्याह के जीवन से करेंगे, जो 2 इतिहास 26 अध्याय में पाया जाता है।


    हम 2 इतिहास 26:1, 3 से देखते हैं की उज्जिय्याह 16 वर्ष की आयु में यहूदा का राजा बन गया था; तथा पद 4 से हम देखते हैं कि उसने वह किया जो परमेश्वर की दृष्टि में सही था; और फिर पद 5 में लिखा है “जब तक वह यहोवा की खोज में लगा रहा, तब तक परमेश्वर उसको भाग्यवान किए रहा।” और फिर पद 6-15 में वर्णन दिया गया है कि किस प्रकार से परमेश्वर ने उसकी सहायता की, उसे बढ़ाया, उसे बलवन्त और सामर्थी बनाया, उसके राज्य को दृढ़ और स्थापित किया। लेकिन फिर पद 16 में सारी बात बिगड़ जाती है, राजा उज्जिय्याह के जीवन में बहुत बड़ी गिरावट आती है, परमेश्वर से उसे प्राप्त हुए स्तर और हैसियत को लेकर उसमें उत्पन्न घमण्ड के कारण। यहूदा का राजा होते हुए, उसने याजकों के कार्य को भी अपने लिए लेना चाहा, मंदिर में जाकर धूप जलाने का प्रयास करने के द्वारा – यह वह कार्य था जिसके लिए परमेश्वर के वचन में लिखा था कि इसे केवल याजकों को ही करना था (निर्गमन 30:7-8; गिनती 16:40)। यह उज्जिय्याह के द्वारा अपने अधिकार को जता कर यहूदा के राज्य के सामाजिक तथा आत्मिक, दोनों अधिकारों को अपनी अधीनता में लेने का प्रयास था। उज्जिय्याह परमेश्वर द्वारा निर्धारित अपने लोगों का संचालन करने के लिए सामाजिक और आत्मिक अधिकारों को पृथक रखने के निर्वाह को तोड़ कर बदलना चाह रहा था।


    हम 2 इतिहास 26:17-18 से देखते हैं कि अजर्याह याजक और उसके साथ के अस्सी याजकों ने उसका विरोध किया, और उसे यह करने से रोकना चाहा। उन्होंने उसे स्मरण करवाया कि जो वह करना चाह रहा है वह परमेश्वर द्वारा उसके लिए निर्धारित नहीं है, परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं है। किन्तु पद 19-20 हमें दिखाते हैं कि उज्जिय्याह चेतावनी को स्वीकार करने के स्थान पर, झुंझलाया और क्रोधित हो गया, और उसने ढीठ होकर वही किया जो उसने ठान लिया था; यद्यपि वह परमेश्वर के वचन के विरुद्ध था। इसका परिणाम यह हुआ कि तुरन्त ही परमेश्वर ने उसे कोढ़ी बना दिया। क्योंकि अब वह कोढ़ी हो गया था, इसलिए उसे तुरन्त ही धक्के दे कर परमेश्वर के भवन से बाहर निकाल दिया गया। न केवल उसे मन्दिर को छोड़ना पड़ा, वरन उसे अपने राज्य पर राजा होने को भी छोड़ना पड़ा, एक अलग घर में जाकर रहना पड़ा, और उसका पुत्र योताम राजघराने का कार्य संभालने लगा (पद 20-21)।


    हम उज्जिय्याह के राजा होने के आरम्भ और अन्त में एक बहुत असाधारण विरोधाभास देखते हैं। उसका आरम्भ परमेश्वर का भक्त और आज्ञाकारी होने के साथ होता है, और इसके लिए परमेश्वर उसे बहुतायत से आशीष देता है, सामर्थी करता है। किन्तु इस समृद्धि, सामर्थ्य, और स्तर ने उसके मन में घमण्ड उत्पन्न किया, और उसने परमेश्वर द्वारा नियुक्त और निर्धारित बात को बदल कर, वह जो उसके लिए निर्धारित था, परमेश्वर ने जो उसे दिया था, उसने उससे अधिक लेने का प्रयास किया; ठीक वैसे जैसे लूसिफर ने स्वर्ग में किया था और उसे बाहर निकाल दिया गया, वह शैतान बन गया। उज्जिय्याह के लिए भी परिणाम विनाशकारी हुआ, और उसने परमेश्वर का आज्ञाकारी होने के द्वारा जो कुछ कमाया था, वह सब एक साथ ही गँवा दिया। परमेश्वर किसी मनुष्य का पक्ष नहीं करता है “परमेश्वर किसी का पक्षपात नहीं करता” (गलातियों 2:6)। जब तक उज्जिय्याह परमेश्वर के प्रति विश्वासयोग्य रहा, परमेश्वर ने उसे आशीषित किया और बढ़ाया। लेकिन जब उसने परमेश्वर के वचन का उल्लंघन किया, और उसे दी जा रही चेतावनियों को नहीं माना, तब परमेश्वर को उसके विरुद्ध कार्य करना पड़ा। क्योंकि वह पहले भक्त और आज्ञाकारी रहा था, इसलिए परमेश्वर ने उसके द्वारा वचन की अवहेलना करने को नज़रन्दाज़ नहीं किया। परमेश्वर के निर्देशों की अनदेखी करने, और अपनी ही सोच तथा बात पर अड़े रहने के परिणाम उसके लिए बहुत हानिकारक हुए; उसने जीवन भर के लिए सब कुछ गँवा दिया, उन्हें फिर कभी वापस प्राप्त नहीं करने पाया।


    परमेश्वर के वचन के भण्डारी होने के नाते, हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि जो परमेश्वर हमारे उसका आज्ञाकारी होने के कारण हमें आशीष दे सकता है, बढ़ा सकता है, वही हमारे उसके वचन का निरादर करने और अनाज्ञाकारी होने के लिए गिरा भी सकता है और दण्ड भी दे सकता है। साथ ही यदि हमारे व्यक्तिगत जीवन में, या मण्डली में गिरावट आने लगी है, आशीषें जाती रही दिखती हैं, तो जांच लेना चाहिए कि कहीं परमेश्वर के वचन के साथ कोई खिलवाड़, या उसका किसी प्रकार से निरादर और अनाज्ञाकारिता होना तो आरम्भ नहीं हो गया है।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Improper Behavior Towards God’s Word – 9

 

    In the previous articles, we have been considering through the life of Moses, King Saul, and King David, the Biblical meaning of being obedient to God. Through all these examples we have seen that obedience to God not only means doing what God wants a person to do, but to also doing it in just the way He has instructed, either in His Word or through giving specific instructions related to that task. No man, howsoever godly he may be, however strongly he may be inclined to express his love and reverence for God, has the right or authority to tamper with God’s Word, His instructions. No one can do things as he thinks they can be done, ignoring God’s instructions about them, and substituting them with man-made, man-devised instructions. Taking God’s Word casually and thinking that it can be altered or modified by man, sooner or later invites God’ judgment and punishment. Today we will affirm this Biblical principle about the absolute sanctity of God’s Word that cannot be violated by anyone, for whatever reasons, through another Old Testament example, of King Uzziah, from 2 Chronicles chapter 26.


    We see from 2 Chronicles 26:1, 3 that Uzziah became King over Judah at 16 years of age; and we also see from vs. 4 that he did what was right in the sight of God, and then vs. 5 says that “as long as he sought the Lord, God made him prosper.” Then from vs. 6-15 is described how God helped and prospered him, made him strong and mighty, strengthened and established his kingdom. But then in vs. 16 things take a turn for the worst, there is a steep downfall in King Uzziah’s life, due to pride in his stature, which God had come to him from God. Being the King of Judah, he also tried to take upon himself the functions of the Priests, by entering the Temple to burn incense on the altar – something that only the Priests were meant to do, as is written in God’s Word (Exodus 30:7-8; Numbers 16:40). This was an attempt on Uzziah’s part to assert himself and take under him the Civil as well as the Spiritual authority in Judah. Uzziah was trying to break the God ordained pattern of separation of Civil and Spiritual authorities to govern God’s people.


    We see from vs. 2 Chronicles 26:17-18 that the Azariah the Priest, along with eighty other priests, confronted him and tried to dissuade him from doing this. They reminded him that what he was trying to do was not ordained by God for him, and was unacceptable to God. But vs. 19-20 show us that Uzziah instead of taking heed, became furious, was angry with the priests, and stubbornly did what he had determined to do; even though it was against God’s Word and instructions. The consequence was, immediately the Lord struck him with leprosy. Since he had now become leprous, he had to be thrust out of the house of the Lord. Not only did he have to leave the Temple of God, but also had to forego his being King, and had to live in an isolated house for the rest of his life; his son Jotham carried out the duties of the King (vs. 20-21).


    We see a very striking contrast in the beginning and end of Uzziah’s reign. He started off reverent and obedient to God, and God blessed him mightily for this. But this prosperity, strength, and stature generated pride in him, and he tried to modify what God had ordained, and thereby take more upon himself than was his due, more than what God had given him; as Lucifer had done in heaven and had to be cast out, became the devil. The consequence was disastrous for Uzziah as well, and he lost everything he had gained by being obedient to God. God is no respecter of persons, “God shows personal favoritism to no man” (Galatians 2:6). As long as Uzziah was faithful towards God, God blessed and prospered him. But when he transgressed God’s Word, and would not heed to the warnings being given to him, God had to act against him. God did not condone Uzziah’s disregard for God’s Word despite the warnings, just because he had been godly earlier. The consequences of ignoring God’s instructions and persisting with his own line of thinking were very severe; he lost everything, never to regain any of it for the rest of his life.


    As stewards of God’s Word, we need to keep this in mind, that the same God who blesses and prospers us for obedience, also punishes and pulls us down for our dishonoring and disobeying His Word. Also, if in our personal lives, or in the Church, the Assembly, if there is a down falling, if the blessings are going away, then we need to examine and check if in some way we have tampered with God’s Word, or have in any way dishonored and disobeyed it.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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