परमेश्वर के वचन में फेर-बदल – 7
पिछले लेख में हमने देखा था कि हव्वा को भले और बुरे में अंतर करने का ज्ञान पाने, ‘परमेश्वर के तुल्य’ हो जाने का लालच देने के द्वारा शैतान ने पहले हव्वा को और फिर उसके द्वारा आदम को पाप में गिराया था। आदम और हव्वा ने भले और बुरे में अंतर करने का ज्ञान तो पाया, किन्तु हमेशा के लिए बुराई से बचे रहने और भला ही करते रहने की क्षमता गँवा दी। वे और उनकी भावी संतान पाप के द्वारा दूषित हो गईं, और उसी समय से मनुष्य में जो उसे अच्छा लगता है वही करने तथा परमेश्वर और उसके वचन की अनाज्ञाकारिता में रहने की प्रवृत्ति भी प्राप्त कर ली। इस प्रवृत्ति के द्वारा शैतान ने उन्हें कर्मों के द्वारा धर्मी बनने, ‘भले बनो भला करो’ के सिद्धान्त का पालन कर के, परमेश्वर को स्वीकार्य होने, और स्वर्ग में रहने के योग्य हो जाने के व्यर्थ उद्यम में फँसा लिया। प्रभु यीशु मसीह द्वारा समस्त मानव जाति के पापों के प्रायश्चित के लिए अपना बलिदान देने और परमेश्वर के अनुग्रह द्वारा प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करने से मिलने वाले उद्धार का मार्ग खुल जाने के बाद शैतान के द्वारा मनुष्यों को, विशेषकर उन्हें जिन्होंने प्रभु यीशु पर विश्वास किया था, अपनी इस कर्मों के द्वारा धर्मी होने की युक्ति में फँसाने को बड़ा झटका लगा।
परमेश्वर के अनुग्रह और प्रभु यीशु में विश्वास के द्वारा पापों की क्षमा और अनन्तकालीन उद्धार प्राप्त होने के कारण, मसीही विश्वासी पर शैतान की पकड़ जाती रही। इसलिए, अपनी उस पकड़ को वापस प्राप्त करने, और मसीही विश्वासियों को परमेश्वर से, उसके वचन की आज्ञाकारिता से दूर खींच लेने के लिए शैतान को कुछ तरीका निकालना था। शैतान ने यह दो कार्य-विधियों को बनाने के द्वारा किया; पहले यह कि लोगों के मनों में उद्धार के अनन्तकालीन होने के बारे में गंभीर सन्देह उत्पन्न करना; और दूसरी यह कि विश्वासियों को अपने उद्धार को बनाए रखने के लिए कर्मों के द्वारा धर्मी बने रहने की आवश्यकता में भरोसा दिलाना। मसीही विश्वासियों को बहकाने और भरमाने का सर्वोत्तम और सबसे कारगर उपाय था, जिस पर विश्वासी सबसे अधिक भरोसा करते हैं उसी का दुरुपयोग करना, अर्थात बाइबल और परमेश्वर के समर्पित तथा प्रतिबद्ध लोगों का। इन कार्य-विधियों को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए शैतान परमेश्वर के प्रतिबद्ध लोगों, कलीसिया के अगुवों, बाइबल के प्रचारकों तथा शिक्षकों आदि के द्वारा बाइबल के लेखों का बाइबल के विपरीत अर्थों और अभिप्रायों के साथ उपयोग करवाता रहता है। इससे प्रसारित होने वाली गलत शिक्षा और अनुचित व्याख्या के कारण विश्वासियों के मनों में कई प्रकार के सन्देह और असमंजस उत्पन्न हो जाते हैं, जिनके कारण वे परमेश्वर पर भरोसा रखने और उसके वचन का आज्ञाकारी बने रहने के मार्ग से भटक जाते हैं।
यद्यपि शैतान भली-भांति जानता है कि एक वास्तव में नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी कभी अपना उद्धार नहीं खो सकता है, लेकिन वह यह भी जानता है कि मसीही विश्वासी का परमेश्वर का अनाज्ञाकारी होना न केवल उसकी आशीषों, दोनों स्वर्गीय और भौतिक, को हानि पहुँचाएगा; वरन साथ ही उसके आत्मिक जीवन को भी कमज़ोर करेगा, और उसे सँसार के साथ समझौते का जीवन जीने वाला बना देगा। मसीही विश्वासी के इस प्रकार के दुर्बल और समझौते तथा अप्रभावी गवाही के जीवन के कारण अन्य लोग उद्धार पाने के लिए मसीह यीशु के पास आना नहीं चाहेंगे। और यह मसीही विश्वासी तथा परमेश्वर के राज्य की हानि और शैतान के लाभ की बात होगी। इसीलिए शैतान के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि वह किसी न किसी तरह से मसीही विश्वासी को परमेश्वर के मार्गों तथा वचन से भटकाए और उसे अपनी शैतानी युक्तियों में फँसा ले।
इस युक्ति को पूरा करने के लिए, शैतान ने एक अन्य मानवीय प्रवृत्ति का उपयोग किया है, किसी भी आकर्षक या तर्कपूर्ण प्रतीत होने वाली बात को मान लेना। शैतान मसीही विश्वासियों से परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करवाता है, उनसे परमेश्वर के निर्देशों की बजाए उनकी अपनी बुद्धि और समझ की बातों पर भरोसा रखने के द्वारा। शैतान ने यह युक्ति हव्वा के विरुद्ध उपयोग की (उत्पत्ति 3:6); और उसके बाद से अभी तक, मनुष्यों को गलत मार्ग पर डालकर परमेश्वर के मार्ग से भटका देने के लिए, इस युक्ति का बड़ी सफलतापूर्वक उपयोग करता चला आ रहा है। अंतर केवल इतना ही है कि हव्वा के लिए उसने वर्जित फल का उपयोग किया था; और शैतान मसीही विश्वासियों के लिए बाइबल के लेखों का दुरुपयोग करता है, क्योंकि वह भली-भांति जानता है कि अधिकांश मसीहियों को बाइबल का बहुत ऊपरी, हल्का ज्ञान और समझ होती है, और वास्तविकता में वे बाइबल के तथ्यों और सच्चाइयों से मुख्यतः अनभिज्ञ होते हैं।
मसीही विश्वासी पाप और परमेश्वर के बारे में बाइबल की कुछ बातें जानते हैं। लेकिन मुख्य समस्या यह है कि अधिकांश ईसाई या मसीही परमेश्वर के वचन बाइबल का अध्ययन नहीं करते हैं, और इसीलिए, वे शिक्षाओं को ठीक से जांच-परख नहीं सकते हैं, सत्य और असत्य में, तथ्यों और मन-गढ़ंत बातों में अंतर नहीं करने पाते हैं। और इसीलिए, किसी भी ऐसे व्यक्ति के द्वारा जो थोड़ा ज़ोर देकर, अथवा आकर्षक, या रोचक, तथा तर्कपूर्ण रीति से बाइबल के लेखों को बोलता है, उसके द्वारा लोग आसानी से गलतियों की ओर बहकाए जा सकते हैं और बहकते भी हैं। शैतान इस बात का पूरा लाभ उठाता है कि बहुत से ईसाई या मसीही चाहे आदत से अथवा औपचारिकता निभाने के लिए बाइबल को पढ़ते होंगे, हो सकता है नियमित तथा प्रतिदिन भी पढ़ते होंगे, लेकिन शायद ही कभी वे बैठकर जो पढ़ा है उस पर विचार करते हैं, मनन करते हैं, परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उनकी आँखों को खोले कि वे उसके वचन की अद्भुत बातों को देख सकें (भजन 119:18)। हो सकता है कि कुछ ईसाई या मसीही बाइबल की कॉमेंटरी या अन्य सहायक पुस्तकों की सहायता से उन्होंने जो पढ़ा है, उसे सीखने-समझने का प्रयास करते हैं, और इसीलिए उनका बाइबल ज्ञान तथा समझ या तो मुख्यतः किताबी ही रहता है, अथवा, वे कुछ समय के बाद यह करना भी छोड़ देते हैं। बहुत ही कम ऐसे होते हैं जो प्रार्थना-पूर्वक प्रभु के चरणों पर, मरियम के समान बैठते हैं (लूका 10:39, 42), और पवित्र आत्मा को उन्हें सिखाने और समझाने देते हैं। लेकिन फिर भी लगभग सभी ईसाई या मसीही यही समझते हैं कि उन्हें परमेश्वर के वचन का पर्याप्त ज्ञान और समझ है, तथा कोई उन्हें बहका नहीं सकता है। बाइबल के लेखों से सम्बन्धित इसी कमी का शैतान भरपूरी से लाभ उठाता है, और मसीही विश्वासियों को बाइबल के बाहर की या उस से विपरीत बातों, संदेशों तथा शिक्षाओं को स्वीकार करने और मानने में फँसा लेता है। प्रचारक और अनुयायी, दोनों ही शैतान द्वारा गलत मार्ग पर चलाए जाते हुए भी इसी गलतफहमी में रहते हैं कि वे भक्ति का और परमेश्वर की आज्ञाकारिता का कार्य कर रहे हैं। अगले लेख में हम इसके बारे में कुछ और देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Altering God’s Word – 7
In the previous article we have seen that by enticing Eve to know how to discern between good and evil, become ‘like God’, Satan first made her, and then through her, Adam also to fall in sin. Adam and Eve learnt how to discern between good and evil, but forever lost the capability of always avoiding evil and doing good. They and their progeny got tainted by sin, and since then, all men also developed the tendency of always doing what seemed right to them, of disobeying God and His Word. Through this tendency, Satan has had them trapped in the vain pursuit of becoming righteous by works, following the doctrine of ‘be good do good’ to become righteous and acceptable to God and qualify for heaven. After the Lord Jesus Christ’s sacrifice for atonement of sin of the entire mankind, and opening the way of salvation for everybody by the grace of God, through faith in Him, Satan’s ploy of entangling man, particularly those who believed in the Lord Jesus, in the vanity of righteousness by works suffered a big setback.
Because of forgiveness of sins and eternal salvation received by God’s grace through faith in the Lord Jesus, Satan lost his hold on the Christian Believer. Therefore, to get his hold back on them, and to draw the Christian Believers away from following God and obeying His Word, Satan had to devise some means. Satan achieved this by devising two strategies; firstly, of creating serious doubts amongst them about their salvation being eternal; and secondly, to pull the Believers back into the satanic trap of staying righteous by works to maintain their salvation. The best and most effective way of misleading the Christian Believers had to be through the misuse of what they trusted upon most, the Bible and God’s committed and surrendered people. To successfully implement these strategies, Satan induces God’s committed Believers, Church elders, Bible preachers and teachers, etc., into misusing the Bible texts by giving them unBiblical meanings and implications. The resulting misinformation and misinterpretation create various doubts and confusion in the minds of Believers, and they mislead them away from trusting God and being obedient to His Word.
Though Satan knows very well that a truly Born-Again Christian Believer will never lose his salvation, but he also knows that a Believer’s disobedience to God will not only bring harm to his blessings, both heavenly and temporal; but will also weaken his spiritual life and get him into living a life of compromising with the world. This poor witness of a Christian Believer’s life then serves to discourage others from coming to Christ Jesus for salvation. This will be a loss to the Christian Believer and God’s Kingdom and a gain for Satan. Hence it is of paramount importance for Satan to somehow get a Christian Believer to deviate from God’s ways and Word, and get entangled in Satan’s ploys.
To accomplish this ploy, Satan has taken the help of another human tendency, of falling for something that seems appealing and logical. Satan makes Believers disobey God, by making them trust more on their own thinking and logic, than on God’s instructions. Satan had used this against Eve (Genesis 3:6); and since then, he has been using this method very successfully against mankind, to misguide and draw them away from God. The only difference is that with Eve Satan used the forbidden fruit; for the Believer’s, Satan uses the Biblical texts, being well aware that most Christians only have a very superficial and light knowledge about the Bible, and they are not actually aware of the truths and facts of God’s Word.
The Christian Believers know some Biblical facts about sin and God. But the major problem is that since most Christians do not study God’s Word the Bible, therefore, they are unable to properly analyze the teachings and discern truth from untruth, facts from fiction. Therefore, can easily be misled, and are misled, by anyone who can forcefully, or in an appealing, or interesting and seemingly logical manner, present some Bible texts in an impressive manner. Satan takes full advantage of the fact that though many Christians may habitually or perfunctorily read the Bible, maybe even do so regularly and daily, but hardly ever will they sit down to ponder over it, meditate upon what they have read, asking God to open their eyes to see the wondrous things from His Word (Psalm 119:18). Few Christians may take the help of some Commentaries and other Bible help books to try to learn and grasp something about what they have read, and so they will either have only a bookish knowledge and understanding, or will stop doing even this after some time. But very rare are the ones who prayerfully sit down at the feet of the Lord like Mary (Luke 10:39, 42), and allow the Holy Spirit to speak to them and teach them. But yet, all of them believe they know enough of God’s Word, and therefore expect that they cannot be misguided about it. It is this very short-coming that Satan exploits to misuse Biblical texts to misguide and trap the Christian Believers into accepting and following unBiblical preaching and teachings. The preacher and teacher as well as the followers, even while being misled by Satan, remain under the deception that they are being godly and obedient to God’s Word. We will continue with this in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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