ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

सोमवार, 1 अप्रैल 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 27

 

Click Here for the English Translation


सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 24

 

    पिछले लेख में हमने देखा है कि बाइबल के अनुसार सुसमाचार में विश्वास करने का क्या अर्थ है। हमने देखा कि सुसमाचार में विश्वास करने का पूर्ण तात्पर्य प्रभु यीशु मसीह और उसके कार्य से सम्बन्धित है, विशेषकर उसके क्रूस पर मारे जाने, गाड़े जाने और मृतकों में से जी उठने के साथ। और इसमें कभी भी कहीं पर भी पहले किसी शर्त को पूरा करने, किसी धर्म का, किसी धार्मिक प्रक्रिया अथवा अनुष्ठानों की पूर्ति का, किसी प्रकार के कार्यों का, या किसी व्यक्ति द्वारा प्रभु और पश्चातापी व्यक्ति के मध्य किसी प्रकार की मध्यस्थता करने का कोई स्थान नहीं है। हर बात पश्चाताप करने वाले मनुष्य के स्वेच्छा से किये गए निर्णय पर निर्भर है। पश्चातापी मनुष्य का पवित्र आत्मा तथा परमेश्वर के वचन के द्वारा परिवर्तित होने का आरम्भ उस व्यक्ति के द्वारा प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार कर लेने के बाद आरम्भ होता है। आज हम देखेंगे कि सुसमाचार में विश्वास करना और प्रभु यीशु में विश्वास करना, दोनों एक ही बात हैं।

    “यीशु” नाम का अर्थ और व्यक्ति के जीवन में सुसमाचार के अर्थ और उसके कार्यकारी होने का अर्थ, एक ही बात हैं। नाम “यीशु मसीह” में ‘यीशु’ प्रभु का नाम है, और ‘मसीह’ उसकी उपाधि या उसे सौंपा गया कार्य है, अर्थात, परमेश्वर ने जो उसे करना सौंपा था। शब्द ‘मसीह’ का अर्थ होता है ‘मस्सा या अभिषेक’ किया हुआ, अर्थात वह जो किसी उद्देश्य अथवा कार्य के लिए तैयार करके नियुक्त किया गया है। नाम ‘यीशु’ और लोगों का भी था (उदाहरण के लिये कुलुस्सियों 4:11 देखिए); लेकिन नाम ‘यीशु’ के साथ जोड़ी गई उपाधि ‘मसीह’ हमें बताती है कि “यह वह यीशु है जिसे परमेश्वर ने मसीहा या छुटकारा देने वाला नियुक्त किया है।” हमें शब्द ‘यीशु’ का अर्थ भी समझना आवश्यक है; मत्ती 1:21 में स्वर्गदूत ने यूसुफ से कहा, “वह पुत्र जनेगी और तू उसका नाम यीशु रखना; क्योंकि वह अपने लोगों का उन के पापों से उद्धार करेगा” – यही ‘यीशु’ शब्द का अर्थ है – वह जो अपने लोगों को उनके पापों से बचाता है। शब्द ‘यीशु’ इब्रानी भाषा की एक संयुक्त संज्ञा ‘यहोशुआ’ से आया है, और इसी शब्द से यहोशू और होशे शब्द भी आए हैं। यहोशुआ इब्रानी भाषा के दो शब्दों ‘यहोवा’ और ‘शुआ’ से मिलकर बना है। यहाँ पर ‘यहोवा’ तो परमेश्वर का नाम है, और ‘शुआ’ का अर्थ है ‘मुक्त करने वाला’ या ‘बचाने वाला’ और इसलिए यहोशुआ और उससे बने सभी शब्दों का अर्थ है “यहोवा, अर्थात परमेश्वर मुक्त करता है; या परमेश्वर बचाता है।” यीशु नाम का भी यही अर्थ है – परमेश्वर मुक्त करता है या परमेश्वर बचाता है; और यीशु मसीह का अर्थ है वह जिसे परमेश्वर ने मुक्त करने या बचाने के लिए निर्धारित किया है। अर्थात, न तो कोई धर्म, न किसी धार्मिक अनुष्ठान का निर्वाह, न किसी प्रकार के कोई कार्य; बल्कि केवल परमेश्वर और उसके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं, कुछ नहीं जो पश्चाताप करने वाले पापी को प्रभु यीशु में विश्वास करने के द्वारा, अपनी दया और अनुग्रह में होकर बचाता है।

    स्वर्गदूत ने मत्ती 1:21 में जो यूसुफ से कहा, उस बात पर ध्यान कीजिए – यीशु उन्हें उनके पापों से बचाएगा जो उसके लोग है; अर्थात जैसे ही लोग अपने पापों की दशा में ही ‘उसके लोग’ बनते हैं, वह उन्हें उनके पापों से बचा लेता है। बाइबल का यह अर्थ और अभिप्राय ईसाई या मसीही धर्म के अन्तर्गत गढ़ी गई और सिखाई जाने वाली उस धारणा से बिलकुल विपरीत है कि जो लोग कुछ निर्धारित धार्मिक अनुष्ठानों के निर्वाह के द्वारा अपने पापों से बच जाते हैं, प्रभु उन्हें अपने लोग बनाता है। लेकिन बाइबल की शिक्षा है कि व्यक्ति को अपने पापों से पश्चाताप करने और यीशु को अपना प्रभु स्वीकार करने, उसे जीवन समर्पित करने, अर्थात नया-जन्म पाने के द्वारा पहले ‘उसके लोग’ बनना है; और जब वे ऐसा करेंगे तो यीशु उन्हें उनके पापों से बचा लेगा। जबकि ईसाई या मसीही धर्म की सामान्य किन्तु गलत शिक्षा है कि व्यक्ति को अपने आप से भला बनना है, भले कामों तथा धार्मिक अनुष्ठानों के निर्वाह के द्वारा उद्धार पाना है, और उसके बाद ही यीशु उसे ‘अपने लोग’ स्वीकार करेगा। यह बात न केवल स्वर्गदूत द्वारा परमेश्वर की ओर से कही गई बात के विरुद्ध है, बल्कि बाइबल की मौलिक शिक्षा के, कि उद्धार किसी प्रकार के कामों से नहीं, केवल परमेश्वर के अनुग्रह ही के द्वारा है (इफिसियों 2:1-9; तीतुस 3:5) के भी विरुद्ध है। बाइबल में दिया गया ‘यीशु’ शब्द का अर्थ, बाइबल में दिया गया ‘सुसमाचार’ शब्द का अर्थ, और ‘सुसमाचार में विश्वास करने’ का अर्थ एक ही हैं, उनमें किसी प्रकार की कोई भिन्नता नहीं है। यीशु में विश्वास करना, सुसमाचार में विश्वास करना है; और सुसमाचार में विश्वास करना, यीशु में विश्वास करना है।

    हम आने वाले लेखों में सुसमाचार के अर्थ और सुसमाचार में विश्वास करने के अर्थ तथा इन से सम्बन्धित बातों को और आगे देखेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************

English Translation


Teachings Related to the Gospel – 24

 

    In the previous article we have seen what it Biblically means to believe in the gospel. We saw that believing in the gospel has everything to do with the Lord Jesus Christ and His work, especially His death on the cross, His burial and His resurrection from the dead; and that there was no role or mention of anything related to any preconditions, any religion, fulfilling any religious observance, any kind of works, or any mediation or role of any person between the Lord and the repentant man. Everything was dependant upon the voluntary decision of the repentant man. The transformation of the saved man through the work of the Holy Spirit and God’s Word started after the person had accepted the Lord Jesus as his savior. Today we will see how believing in the gospel and believing in the Lord Jesus are the same.

    This meaning and working of the gospel in a person’s life is what the name “Jesus” means. In the name “Jesus Christ” ‘Jesus’ is the Lord’s name, and ‘Christ’ is His office or designation, i.e., what He was ordained for by God. The word ‘Christ’ means ‘the anointed one,’ or one who has been ordained for a mission or purpose. Others too had the name ‘Jesus’ (e.g., Colossians 4:11); but the ‘designation’ Christ along with the name Jesus tells us who He is – “that Jesus who was ordained by God to be the Messiah, the deliverer.” We also need to understand the meaning of the word ‘Jesus;’ in Matthew 1:21, the angel says to Joseph, “And she will bring forth a Son, and you shall call His name Jesus, for He will save His people from their sins” – that is what the name ‘Jesus’ means – He who saves His people from their sins. The English word Jesus has come from a compound Hebrew word Jehoshua from which other words like Joshua, and Hosea have also been derived. Jehoshua is made up of two Hebrew words – JEHOVAH, and SHUA; JEHOVAH, of course is the name of God, the word SHUA means ‘to set free’ or ‘to save.’ Therefore, the word Jehoshua, and the other words derived from it mean “Jehovah, i.e., God sets free; or God saves.” That is what the name ‘Jesus’ means – God sets free, or saves; and Jesus Christ means, the one ordained by God to set free or save – i.e., not any religion, not any religious observances, not any kind of works, but God and God alone saves the repentant sinner coming to faith in the Lord Jesus, in His grace and mercy.

    Note from what the angel said to Joseph in Matthew 1:21 – Jesus will save those who are His people from their sins, i.e., as people become ‘His people’ while in their sins, He will save them from their sins. This Biblical meaning and implication is quite unlike the common misconception fostered and maintained under the Christian religion that those who through fulfilling the prescribed religious observances are saved from their sins will become His people. But the Biblical teaching is that a person has to first become ‘His People’ through repenting of sins, accepting Jesus as their Lord and submitting to Him, i.e., being Born-Again, and when they do so, Jesus will save them from their sins. Whereas the common misconception and wrong teaching of the Christian religion is that a person has to become good enough, get saved through fulfilling some religious observances and good works, and then Jesus will take them as ‘His people.’ This not only goes against what the angel from God said to Joseph, but also contradicts the basic Biblical teaching of salvation being only by the grace of God, and not by works of any kind (Ephesians 2:1-9; Titus 3:5). The actual Bible given meaning of “Jesus,” the Biblical meaning of ‘gospel,’ and the meaning of ‘believing in the gospel’ are the same, there is no difference of any kind. To believe in the gospel is to believe in the Lord Jesus, and vice-versa.

    We will continue to look into other aspects related to the meaning of the gospel and believing in the gospel, and the implications in the coming articles.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें