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मंगलवार, 13 अगस्त 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 158

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 3


पवित्र आत्मा तथा वचन के द्वारा दोषी ठहरना 



पिछले लेख में हमने देखा था कि परमेश्वर को प्रसन्न करने के उद्देश्य से, व्यवस्था में दी गई रीतियों और धार्मिक पर्वों को मनाने के लिए, सँसार के विभिन्न भागों से भक्त यहूदी यरूशलेम में एकत्रित हुए थे। पिन्तेकुस्त के दिन, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, पतरस ने उन्हें सुसमाचार सुनाया, और उस से उन भक्त यहूदियों में से बहुतेरों के हृदय छिद गए। तब उन्हें यह एहसास हुआ कि बचाए जाने या उद्धार पाने के लिए, उनके द्वारा रीति के अनुसार जो व्यवस्था का पालन किया जा रहा था, उन्हें उससे कुछ और भी बढ़कर करने की आवश्यकता थी। इसलिए उन्होंने पतरस से पूछा कि उद्धार पाने के लिए वे क्या करें (प्रेरितों 2:37-38)। पवित्र आत्मा की अगुवाई में पतरस ने उन्हें सात बातें करने के लिए कहा (प्रेरितों 2:40-42); और वे जिन्होंने पवित्र आत्मा की अगुवाई में पतरस के द्वारा दिए गए सुसमाचार के द्वारा अपने पाप-दोष को पहचाना था, उन्होंने विश्वास किया, और उसी दिन लगभग 3000 लोग शिष्यों के साथ जुड़ गए। इसे कलीसिया का आरम्भ होना माना जाता है। इसके बाद यहाँ से आगे यह सात बातें उन आरम्भिक विश्वासियों के जीवन का एक अभिन्न अँग बन गई; और जैसा कि हम प्रेरितों के काम की पुस्तक के इससे आगे के अध्यायों में देखते हैं, प्रभु यीशु के शिष्यों की सँख्या में बहुत तेज़ी से बढ़ोतरी हुई। कहने का तात्पर्य यह है कि इन सात बातों के प्रचार करने, सीखने, और पालन करने से लोगों ने प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार किया और उसके शिष्य बन गए। यहाँ पर सीखने के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातें हैं जिन्हें हम आज देखेंगे; और फिर अगले लेख से हम उन सात बातों को, अर्थात मसीही जीवन के सात कदमों को, जिन से व्यक्ति के जीवन में तथा कलीसिया के जीवन में बढ़ोतरी होती है देखना आरम्भ करेंगे।


  • वे सभी भक्त यहूदी थे, (प्रेरितों 2:5) लेकिन फिर भी पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से उन्हें दिए गए परमेश्वर के वचन ने उन्हें यह एहसास कराया के उन्हें बचाए जाने की अर्थात उद्धार पाने की आवश्यकता है। उनकी सारी धार्मिकता और भक्ति, उनके किसी काम की नहीं थी उनके द्वारा रीति के अनुसार निर्धारित परम्पराओं का निर्वाह करना, उनको परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के लिए निरर्थक था। इब्रानियों की पुस्तक का लेखक यही बात इब्रानियों 9:7-10 पद में कहता है; वहाँ पर 9 पद में लिखा है कि व्यवस्था की यह सारी बातें केवल एक दृष्टान्त के समान थीं, अर्थात एक प्रतीक के समान थीं और जो महायाजक यह सारा काम इस्राएल की मण्डली के लिए किया करता था, वह स्वयं भी इन बातों के द्वारा पवित्र या शुद्ध नहीं होता था।

  • उन लोगों के हृदय परमेश्वर के वचन के द्वारा, जो सीधी और साधारण भाषा में, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य के द्वारा दिया गया था, छिद गए (प्रेरितों 2:37-38)। इस वचन के दिए जाने में कहीं पर भी किसी भी प्रकार का कोई भी नाटकीय तरीका, कोई विचित्र आवाज़ें निकालना, शरीर से विचित्र हाव-भाव करना, गिर जाना या उछलना-कूदना, आदि, ना तो पतरस के द्वारा और ना अन्य शिष्यों के द्वारा किया गया। वास्तविकता यही है कि बाइबल में ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि इनमें से या ऐसी कोई भी गतिविधि पवित्र आत्मा की उपस्थिति अथवा सामर्थ्य का प्रमाण है; और न ही लोगों को उनके पापों का दोष-बोध करवाने के लिए उनकी कोई आवश्यकता नहीं है। 

  • उन भक्त यहूदियों के द्वारा उनकी धार्मिक रीतियों का निर्वाह करना अपर्याप्त होने को पहचानने के लिए, उनके हृदयों का छेदा जाना आवश्यक था। जब तक यह हृदय का छेदा  जाना, यह दोषी ठहरना नहीं होगा, तब तक वास्तविक पश्चाताप और परमेश्वर द्वारा बहाल होना भी नहीं होने पाएगा। उनके द्वारा परम्परा के समान रीतियों को मनाने से वह सम्भव नहीं होने पाया जो पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और सामर्थ्य से परमेश्वर के वचन का प्रचार करने से हो गया, अर्थात् एक गहरा पाप-बोध और पश्चाताप। परमेश्वर का वचन पवित्र आत्मा की तलवार है इफिसियों 6:17; यह वह तलवार है जो गहरा काटती है, बारीकी से काटती है, और काटे हुए भागों को अलग-अलग कर देती है (इब्रानियों 4:12)। वचन के सभी प्रचारकों, शिक्षकों, और सेवकाई करने वालों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए और इसे लागू करना चाहिए कि तलवार का काम काटना होता है - जिससे पीड़ा होती है; ना कि किसी को गुदगुदी करना, या किसी का मनोरंजन करना। इसलिए यदि उनके प्रचार से, या शिक्षा से, या वचन की सेवाकई से सुनने वालों के अन्दर यह काटे जाने का एहसास नहीं होता है, श्रोताओं के हृदय छेदे नहीं जाते हैं, लोगों के अन्दर उनके पापों के प्रति एक गहरा दोष-बोध नहीं होता, और सुनने वाले अपने पापों के समाधान के लिए उपाय ढूंढने के लिए उकसाए नहीं जाते हैं, तो फिर उस प्रचारक, या शिक्षक, या वचन के सेवक ने चाहे जो भी कहा हो अथवा करा हो वह सब व्यर्थ और निष्फल है; वह कभी भी परमेश्वर की आत्मा से नहीं हो सकता है, चाहे वह कितना भी आकर्षक, या तर्कसंगत क्यों ना लगे, और श्रोता उसकी कितनी भी प्रशंसा क्यों ना करें।

  • पतरस ने निर्भय होकर बात की, उसने यहूदियों पर प्रभु यीशु की हत्या करने का दोष भी लगाया यद्यपि परमेश्वर ने उनके मध्य प्रभु का अनुमोदन किया था (प्रेरितों 2:22-23)। बहुत से प्रचारक और वचन के सेवक वचन का सत्य बोलने और निर्भय होकर प्रचार करने से घबराते हैं; उन्हें सुनने वालों या मण्डली को नाराज करने का भय सताता है। लेकिन यह परमेश्वर के वचन के प्रति और वचन की सेवकाई के प्रति अन्याय है (गलतियों 1:10)। एक प्रचारक को परमेश्वर के वचन के प्रति खरा और विश्वास योग्य होना चाहिए और तब ही परमेश्वर भी उसके प्रति विश्वासयोग्य होगा, उसके पक्ष में होकर काम करेगा। सच्चा दोष-बोध और हृदय परिवर्तन रीति-रिवाज को पूरा करने से नहीं आता (1 पतरस 1:18), परन्तु परमेश्वर के वचन से ही आता है, क्योंकि वही परमेश्वर का अविनाशी बीज है (1 पतरस 1:23) जो हृदयों को तोड़कर के एक नया जीवन उत्पन्न कर सकता है।


एक बार जब रीति रिवाज के पालन करने की व्यर्थता का एहसास हो जाता है, और परमेश्वर के वचन तथा पवित्र आत्मा के द्वारा हृदय की वास्तविक दशा समझ में आ जाती है, तो फिर ये अगले कदम की ओर ले जाते हैं, अर्थात जिसको दोष-बोध हुआ है उसके द्वारा सत्य के प्रति, सच्चे मन से और निष्ठा के साथ एक कार्य करना। ये भक्त यहूदी, जो दूर-दूर के स्थानों से आए थे, इन्हें एहसास हुआ कि अभी तक वे जो करते आए हैं वह उन्हें परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के लिए किसी काम का नहीं था। इसलिए अब उनके हृदय छेदे जाने के बाद उन्होंने बिना कोई वाद-विवाद किए समाधान का भी पता करना चाहा। ध्यान दीजिए कि जो परमेश्वर के वचन के द्वारा दोषी ठहरे थे, वे वापस अपने धर्म की ओर लौट के नहीं गए, और ना ही अपने धर्म के शिक्षकों या अगुवों से इसके बारे में कोई चर्चा करने के लिए गए; वरन जिन्होंने परमेश्वर के वचन के प्रति उनकी आँखों को खोला था, उन्होंने तुरन्त ही उन्ही से माँग की, कि उन्हें इससे आगे का रास्ता भी दिखाएँ। यह केवल यहीं पर, इसी समय पर ही नहीं हुआ था, परमेश्वर के वचन में इसके और भी उदाहरण हैं। जब प्रभु से पौलुस का सामना हुआ और जब उसने सत्य को पहचाना तो उसने तुरन्त प्रभु से पूछा कि अब आगे वह क्या करे (प्रेरितों 9:6)। जब फिलिप्पुस ने सामरिया में प्रचार किया तो तुरन्त लोगों ने उस को स्वीकार भी किया (प्रेरितों 8:12)। जब फिलिप्पुस ने कूश देश के खोज को सुसमाचार सुनाया, तो उसे खोजे ने भी तुरन्त स्वीकार किया और उसका पालन किया (प्रेरितों 8:35-38)। इसलिए, प्रिय पाठक, यदि परमेश्वर के वचन ने आप को आप के पापों का दोष-बोध करवाया है, यदि आप ने परमेश्वर की बुलाहट को सुना है, तो कोई देर ना करें; तुरन्त कार्यवाही करें (इब्रानियों 3:7-8; इब्रानियों 3:11-13; इब्रानियों 3:15), इससे पहले कि शैतान शक के बीज आप के मन में डाले और आपको सत्य से बहका के, वापस व्यर्थ धार्मिक रीति-रिवाज़ों के पालन में, जो कभी भी पाप का समाधान नहीं कर सकते हैं, फिर से फँसा दे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Christian Living – 3


Conviction by The Holy Spirit & The Word


In the last article we saw that devout Jews from various parts of the world had gathered in Jerusalem to fulfill the religious feasts and rituals prescribed in the Law, to please God. On the day of Pentecost, under the guidance of the Holy Spirit, Peter preached the gospel to them, and many of those devout Jews were cut to their hearts. They realized that to be saved, other than the ritualistic fulfilling of the Law that they had been carrying on, there was something more that was required. So, they asked Peter what they should do to be saved (Acts 2:37-38). Through the Holy Spirit, Peter told them seven things that they should do (Acts 2:40-42); and those convicted by the Holy Spirit through the gospel spoken by Peter, believed and about 3000 were added to the disciples. This is said to be the beginning of the Church. From here onwards, these seven things became an integral part of the life of these initial Believers, and as we see in the subsequent chapters of the book of Acts, there was a very rapid growth in the number of disciples of the Lord Jesus. In other words, the preaching, teaching, and following of these seven things led to the people accepting Jesus as their Lord, and becoming His disciples. There are some important lessons to be learnt here, which we will see today; and from the next article we will begin considering the seven steps of Christian Living that lead to growth, in one’s life as well as of the Church.

·        Those Jews were devout (Acts 2:5), yet God’s Word brought to them in the power of the Holy Spirit made them realize that they needed to be saved. All their religiosity and devoutness served no purpose, their fulfilling the prescribed rituals, so far as being made acceptable to God was concerned, was inconsequential. The author of the book of Hebrews said the same in Hebrews 9:7-10, where in verse 9 he said that all of these things from the Law were only symbolic; not even the High Priest who did all this for the congregation of Israel before God’s altar, could be purified by those things. 

·        Their hearts were pricked with God's Word spoken in plain and simple language, with the power of the Holy Spirit (Acts 2:37-38), without any theatrics, or drama, or unnatural utterances, or abnormal body movements and gestures, falling down or jumping around, by Peter or any of the other disciples. The fact is that there is nothing in the Bible to say that any of these or any similar activity is evidence of the presence, or of the power of the Holy Spirit; and neither are any of them required to convict people of their sins.

·        To realize the inadequacy of their religious observances, these devout Jews had to be cut to the heart. Unless this wounding of the heart, this conviction happens, true repentance and restoration by God will not happen. Their fulfilling of rituals did not do what preaching of God's Word under the guidance and power of the Holy Spirit accomplished i.e. deep conviction and repentance. God's Word is the sword of the Holy Spirit (Ephesians 6:17); it is a sword that cuts deep, cuts fine and cleanly cuts asunder (Hebrews 4:12). All preachers, teachers, and ministers of God’s Word should realize and implement the fact that the work of the sword is to cut - which causes pain; not tickle, or entertain. Therefore, if their preaching, or teaching, or ministry of God’s Word does not produce this cutting within the hearers, does not prick the hearts of their audience, and cause a deep conviction of their sins within them, does not provoke the listeners to seek a remedy for their sins, then whatever the preacher, or teachers, or ministers may say and do, it is vain and infructuous; it cannot be in the power of God's Holy Spirit, no matter how attractive and logical it may seem, and how much it may be appreciated by the audience. 

·        Peter spoke boldly, openly accusing the Jews of murdering the Lord Jesus, despite His being attested by God amongst them (Acts 2:22-23). Many preachers and ministers are afraid of preaching the truth or preaching boldly, for fear of annoying the congregation - but that is injustice to God's Word and to the ministry (Galatians 1:10). A preacher should be honest and faithful to God's Word; and then God will be faithful to him, act on his behalf. True conviction and conversion come not by fulfilling rituals (1 Peter 1:18) but from God's Word; and that alone, i.e., the incorruptible seed 1 Peter 1:23 can break hearts and create a new life. 

Once there is a realization of the vanity of ritualistic observances, a conviction by God's Word and Holy Spirit of the actual state of the hearts, then it leads to the next step, i.e., an action by the convicted in favor of the truth - an honest and sincere action. Now these devout Jews from places far and wide had realized that all that they had been doing so far was of no use to make them acceptable to God. Therefore, they, being cut to the heart, now sought the remedy, without waiting to ponder over it. Take note, those who were convicted by the Word of God did not go back to their religion or to the teachers of religion to discuss it over with them, but they immediately appealed to those who had opened their eyes to God's Word; who had convicted them, to show them the way forward. This was not the only time we see this in God’s Word; Paul, when confronted by the Lord and realizing the truth immediately asked the Lord what to do (Acts 9:6); when Phillip preached in Samaria, the people acted on it (Acts 8:12); when Phillip preached to the Ethiopian eunuch, he did likewise (Acts 8:35-38). Therefore, dear Reader, when you hear the Lord's call, do not delay - take immediate action (Hebrews 3:7-8; Hebrews 3:11-13; Hebrews 3:15) before the devil sows doubt and beguiles you away from the truth, takes you back into vain religious observances that can never provide a remedy for your sin.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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