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मंगलवार, 14 जनवरी 2025

Baptism and the Christian Faith / बपतिस्मा और मसीही विश्वास

 

मसीही विश्वास एवं शिष्यता – 11

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बपतिस्मा और मसीही विश्वास


पिछले लेखों में हमने देखा कि मसीही विश्वास के स्थान पर मसीही या ईसाई धर्म का निर्वाह करने वाले प्रेरितों 2:42 में दी गई मसीही विश्वासियों के लिए ‘लौलीन’ रहने वाली चार बातों (वचन की शिक्षा पाना, संगति रखना, प्रभु-भोज में सम्मिलित होना, प्रार्थना करना) को उद्धार या नया जन्म प्राप्त कर लेने के लिए गणित के एक समीकरण के समान, एक रस्म के समान मानते तथा मनाते हैं। वे इन चारों बातों के वास्तविक महत्व को समझने और उसके आधार पर प्रभु की आज्ञाकारिता में उनका निर्वाह करने की बजाए, एक रीति के समान इनकी औपचारिकता को पूरा करने के द्वारा समझते हैं कि वे भी नया जन्म या उद्धार पाए हुए लोग हैं। किन्तु बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार उनका यह मान्यता रखना एक सर्वथा गलत धारणा ही है, तथा धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह द्वारा प्रभु परमेश्वर की दृष्टि में स्वीकार्य होने के लिए उनका एक व्यर्थ एवं निष्फल प्रयास हैं। पिछले लेखों में हम प्रेरितों 2:42 की चारों बातों के औपचारिक निर्वाह के बारे में देख चुके हैं। आज हम प्रेरितों 2 अध्याय में स्थापित हुई पहली मण्डली के लोगों के साथ तब जुड़ी, और आज मसीही विश्वासियों तथा ईसाई धर्म-समाज के साथ भी घनिष्ठता से जुड़ी एक और बात के बारे में कुछ और विस्तार से देखेंगे, जिसे भी गणित के समीकरण के समान लेकर, उसके विषय भी गलत धारणा बना ली गई है, और उसे मनुष्यों द्वारा दिए गए भिन्न स्वरूपों में बड़ी निष्ठा से निभाया भी जाता है, बिना यह देखे और विचारे कि बाइबल में उसके बारे में क्या कुछ लिखा और सिखाया गया है। यह पाँचवीं बात है बपतिस्मा।


5. बपतिस्मा: प्रभु यीशु मसीह और बाइबल की शिक्षा है कि जो प्रभु यीशु मसीह का शिष्य बने उसे ही बपतिस्मा दिया जाए “इसलिये तुम जा कर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्रआत्मा के नाम से बपतिस्मा दो” (मत्ती 28:19)। अर्थात बपतिस्मा उनके लिए है जो प्रभु यीशु का शिष्य बनना स्वीकार करता है, जो अपने इस मसीही विश्वास के द्वारा प्रभु का जन बन जाता है। इस आयत से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि बपतिस्मा किसी को प्रभु यीशु का अनुयायी नहीं बनाता है; वरन वो जो प्रभु यीशु का अनुयायी बनने का निर्णय ले लेते हैं, उन्हें प्रभु यीशु के प्रति आज्ञाकारिता के अन्तर्गत, बपतिस्मा लेना चाहिए, और यही बात बाइबल के अन्य हवालों से भी प्रकट है।


जब हम यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के द्वारा पहले दिए जा रहे बपतिस्मे के बारे में देखते हैं, और फिर बाद में प्रभु यीशु की उपरोक्त आज्ञाकारिता में उनके शिष्यों के द्वारा दिए जाने वाले बपतिस्मे के बारे में देखते हैं, तो यह प्रकट है कि बाइबल में तो बपतिस्मा केवल उन्हें ही दिया गया जो पापों के लिए पश्चाताप और प्रभु के प्रति सच्चे समर्पण के साथ बपतिस्मा लेने के उद्देश्य से स्वेच्छा से आए। यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने अपनी सेवकाई का आरंभ मन फिराव के आह्वान के साथ किया (मत्ती 3:2); और यही प्रभु यीशु ने भी किया (मरकुस 1:15)। यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के प्रचार को मानकर जो लोग अपने पापों का अंगीकार करते थे, वह केवल उन्हें ही बपतिस्मा देता था (मत्ती 3:5, 6); किन्तु जब कपटी फरीसी और सदूकी, पाखण्ड में होकर उससे बपतिस्मा लेने के लिए आए, तो उसने उनकी भर्त्सना की और पहले मन फिराने के लिए कहा (मत्ती 3:7-8)। यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने स्पष्ट कहा कि वह “मन फिराव का बपतिस्मा” देता था (मत्ती 3:11)। यूहन्ना किसी को बपतिस्मा देने के लिए उनके पास नहीं जाता था; लोग स्वतः बपतिस्मा लेने के लिए यूहन्ना के पास आते थे।


प्रभु यीशु मसीह ने भी अपने शिष्यों से उन्हें ही बपतिस्मा देने के लिए कहा जो उसके पास आ चुके थे, पहले स्वेच्छा से उसके शिष्य बनना स्वीकार कर चुके थे (मत्ती 28:19-20)। हम पहले देख चुके हैं कि प्रभु यीशु का शिष्य बनने के लिए व्यक्ति को पहले अपने पापों से पश्चाताप करना अनिवार्य है। अर्थात प्रभु यीशु द्वारा दिए गए बपतिस्मा देने और लेने के निर्देश में पहले व्यक्ति द्वारा पश्चाताप करना अनिवार्यतः निहित है। यही बात, अपने आप में, शिशुओं या बच्चों के, तथा चर्च की रीति पूरी करने के लिए बपतिस्मा देने या लेने को निषेध कर देती है। 


संपूर्ण बाइबल में कहीं भी किसी शिशु अथवा बच्चे को बपतिस्मा देने का कोई उदाहरण नहीं है; जिनका भी बपतिस्मा होने के उदाहरण हैं वे सभी वयस्क थे और उन्होंने स्वेच्छा से पापों से पश्चाताप करने के पश्चात ही बपतिस्मा लिया। साथ ही जहां कहीं भी बपतिस्मा दिए जाने का उल्लेख है, वहाँ यह भी स्पष्ट संकेत है कि वह पानी के छिड़काव या माथे पर पानी से कोई चिह्न बना देने के द्वारा नहीं, वरन किसी नदी या बहुत जल के स्थान पर पानी के अंदर उतर कर, फिर पानी में से बाहर आने, अर्थात डुबकी के द्वारा दिया गया बपतिस्मा था (मत्ती 3:16; यूहन्ना 1:28; 3:23; प्रेरितों 8:36-39)। और न ही बाइबल में किसी दृढ़ीकरण या confirmation की कोई बात, आवश्यकता, अथवा विधि दी गई है। 


किन्तु इस “समीकरण” वाली धारणा के अधीन, लोग सामान्यतः यही मान लेते हैं कि किसी भी आयु में, किसी भी प्रकार का “बपतिस्मा” लेने से वे मसीह के जन, उसके शिष्य, और उद्धार या नया जन्म पाए हुए व्यक्ति बन जाते हैं; जो कदापि सत्य नहीं है, बाइबल और प्रभु यीशु की शिक्षा नहीं है। बपतिस्मा न तो नया जन्म देता है, न उद्धार और पापों की क्षमा देता है, और न ही प्रभु यीशु का शिष्य बनाता है। प्रत्येक चर्च अथवा मण्डली में ऐसे कितने ही लोग मिल जाएंगे, जिन्होंने एक रस्म या रीति के तौर पर बपतिस्मा तो लिया और उससे संबंधित विधि-विधान तो पूरे किए, किन्तु सच्चे मन से पापों से पश्चाताप नहीं किया, न ही प्रभु यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण किया। उनके जीवन, आदतें, बोल-चाल, व्यवहार, आदि सभी कुछ दिखा देते हैं कि वे वास्तव में उद्धार पाए हुए नहीं हैं। उनके बपतिस्मे ने उनका जीवन नहीं बदला; वे अभी भी अपने पापों ही में जी रहे हैं। उद्धार या नया जन्म पाए हुए व्यक्ति के लिए बपतिस्मा प्रभु का निर्देश है; किन्तु हर बपतिस्मा पाया हुआ व्यक्ति उद्धार पाया हुआ और प्रभु का जन नहीं होता है - मनुष्यों द्वारा गढ़ी और लागू की गई इस गलत धारणा की बाइबल में कहीं कोई समर्थन अथवा पुष्टि नहीं है।


आज मसीही विश्वास के स्थान पर ईसाई धर्म को मानने और मनाने वाले लोग बड़ी निष्ठा और लगन से किन्तु गलत धारणा और विचारधारा के साथ प्रभु भोज और बपतिस्मे में सम्मिलित तो होते हैं, किन्तु यह नहीं जानते और समझते हैं कि यदि उन्होंने पापों से पश्चाताप नहीं किया है, प्रभु यीशु को स्वेच्छा से अपना उद्धारकर्ता ग्रहण नहीं किया है, सच्चे मन से उसके शिष्य नहीं बने हैं, तो यह सब उनके लिए व्यर्थ और निष्फल है; वे अभी भी अपने पापों में पड़े हुए हैं और अनन्त विनाश के मार्ग पर ही अग्रसर हैं। इसलिए यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने एक परिवार विशेष में जन्म अथवा उस परिवार और अपने जन्म से संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर परमेश्वर के वचन बाइबल की सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। 


आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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 Christian Faith & Discipleship – 11

English Translation

Baptism and the Christian Faith

In the previous articles we have been seeing that those who believe in and follow the Christian religion instead of the Christian faith, use the four integral things in a Born-Again Christian Believer’s life, related to the Christian faith, and mentioned in Acts 2:42 (Bible study, Fellowship, Lord’s Table, Prayer), like a mathematical equation, to consider themselves as being saved or Born-Again. Instead of understanding the actual meaning and significance of these things, and then observing them as an act of obedience to the Lord, the followers of the Christian religion observe these four things ritualistically, to fulfill religious formality, and then think themselves to be saved as well. This is a misunderstanding, a wrong notion on their part, and does not reconcile them with God, since it is similar to the notion of salvation by works, i.e., through observance of religion-good works-rituals and ceremonies etc. In our study on the significance and observance of these four things of Acts 2:42, we have seen about their ritualistic and formal observance; today we look at another important thing - Baptism. Those who follow the Christian religion often misunderstand and practice baptism ritualistically and in various inappropriate forms and ways, again like a mathematical equation, without learning from the Bible what all has been written and taught about it, by.


5. Baptism: It is the Lord’s teaching and a teaching of the Bible, that only those who voluntarily and willingly decide to become the disciples of the Lord Jesus, should be baptized, “Go therefore and make disciples of all the nations, baptizing them in the name of the Father and of the Son and of the Holy Spirit” (Matthew 28:19); i.e., baptism is to be given to those who decide to become the Lord’s people, who come into the Christian faith. This verse makes it very clear that baptism does not make one a disciple of Lord Jesus; rather those who decide to become the disciples of the Lord Jesus, they are to get baptized as an act of obedience to the Lord Jesus, and this is evident from the other related Biblical references as well.


When we see about the baptism that John the Baptist was administering, and then later on, the baptism administered by the disciples of the Lord Jesus, then it is quite clear that baptism was given to only those who repented of sins and came forth to be baptized with a complete surrender and submission to the Lord. John the Baptist began his ministry with the call to repent of sins (Matthew 3:2), and so did the Lord Jesus (Mark 1:15). John the Baptist baptized only those who believed in his preaching and teachings and repented of their sins (Matthew 3:5-6). It is to be noted here that when the hypocritical Pharisees and Sadducees, came to him for baptism in their hypocrisy, he denounced them, and asked them to first repent and only then come (Matthew 3:7-8). John the Baptist stated it very clearly that he baptized with a baptism of repentance (Matthew 3:11). John never went out to baptize anyone; it was the people who came to him for this. 


Lord Jesus also told His disciples to baptize only those who would come to Him, i.e., first willingly decide to become His disciples (Matthew 28:19-20), and as we have seen earlier, this is only possible by repenting of sins. Hence, in the Lord Jesus’s commandment about taking and giving of baptism, the absolute necessity of repentance is definitely inherent. This one fact by itself very obviously reveals the un-Biblical nature and vanity of the practice of infant or child baptism, and also of baptism being administered ritualistically as a denominational requirement, and firmly negates these practices.


Throughout the Bible, there is no instance or example of any infant or child baptism being given by anyone; all those who have been baptized in the Bible have been adults, and they were all baptized only after voluntarily and willingly repenting of their sins. Also, wherever baptism is mentioned in the Bible, it has been clearly indicated that it was never given by dipping a finger in water and making the mark of the cross on the forehead, or by sprinkling of water; it was always done in a river or stream, or place of enough water into which one could enter in and then then come up from the water, i.e., it was a baptism by immersion in water (Matthew 3:16; John 1:28; 3:23; Acts 8:36-39). Nor is there any instruction or teaching anywhere in the Bible about the practice of “Confirmation” so commonly practiced by the followers of the Christian religion in many denominational Churches.


But those acting under and following the concept of it functioning like a mathematical equation, trust that by “baptizing” a person in some manner, irrespective of the age or method, the “baptism” makes the person into a follower of the Lord, His disciple, and one who is saved or Born-Again - which has never ever been the teaching of the Lord or the Bible. Baptism neither saves, nor makes a person Born-Again, nor provides forgiveness of sins, nor does it make a person a disciple of the Lord Jesus Christ. In every Church and Assembly, there are any number of people who have taken baptism to fulfill a ritual or denominational requirement, have fulfilled all the related practices and ceremonies, but have never ever truly repented of their sins nor ever accepted the Lord Jesus as their personal savior. Their lives, habits, speech, behavior, etc., everything makes it evident that they are not actually saved. Their getting baptized never changed their lives; they are still living in their sins, just as they were before being baptized. For those saved or Born-Again, to be baptized is a commandment of the Lord Jesus; but not every baptized person becomes a saved or Born-Again person. There is no support or affirmation in God’s Word the Bible of this man-made, contrived and wrong doctrine.


Today, the followers of the Christian religion, very sincerely, enthusiastically and religiously, but with a wrong notion and complete misunderstanding, participate in the Holy Communion and take baptism, but they do not know or understand that if they have not repented of their sins, and have not willingly accepted the Lord Jesus as their savior, have not submitted their lives to Him, they actually are not the disciples of the Lord and doing all this is vain and fruitless for them; they are still in their sins and are heading towards eternal destruction in their sins. If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.

 

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सोमवार, 13 जनवरी 2025

The Lord’s Table in Christian Faith / प्रभु भोज और मसीही विश्वास

 

मसीही विश्वास एवं शिष्यता – 10 

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प्रभु भोज और मसीही विश्वास


पिछले लेखों में हम देखते आ रहे हैं कि मसीही विश्वास के स्थान पर मसीही या ईसाई धर्म का निर्वाह करने वाले प्रेरितों 2:42 में दी गई मसीही विश्वासियों के लिए ‘लौलीन’ रहने वाली चार बातों (वचन की शिक्षा पाना, संगति रखना, प्रभु-भोज में सम्मिलित होना, प्रार्थना करना) को उद्धार या नया जन्म प्राप्त कर लेने के लिए गणित के एक समीकरण के समान, एक रस्म के समान मान तथा मना लेते हैं; और इनके वास्तविक महत्व को समझने और उसके आधार पर उनका निर्वाह करने की बजाए इनकी औपचारिकता को पूरा करने के द्वारा समझते हैं कि वे भी नया जन्म या उद्धार पाए हुए हैं। किन्तु बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार यह मान्यता रखना गलत धारणा ही है, और यह करना धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह द्वारा प्रभु परमेश्वर को स्वीकार्य होने के व्यर्थ एवं निष्फल प्रयास हैं। पिछले लेख में हम प्रेरितों 2:42 की चार में से तीन बातों, बाइबल अध्ययन, प्रार्थना करना, और संगति रखना के औपचारिक निर्वाह के बारे में देख चुके हैं। आज हम प्रेरितों 2:42 की शेष एक बात, प्रभु-भोज में सम्मिलित होने के बारे में कुछ और विस्तार से देखेंगे।


4.  प्रभु-भोज में भाग लेना: प्रभु यीशु मसीह ने अपने पकड़वाए जाने से पहले अपने शिष्यों के साथ फसह का पर्व मनाया, और उस भोज को खाने के दौरान उन्होंने अपने शिष्यों के लिए प्रभु-भोज की स्थापना की, जैसा कि पौलुस ने लिखा: “क्योंकि यह बात मुझे प्रभु से पहुंची, और मैं ने तुम्हें भी पहुंचा दी; कि प्रभु यीशु ने जिस रात वह पकड़वाया गया रोटी ली। और धन्यवाद कर के उसे तोड़ी, और कहा; कि यह मेरी देह है, जो तुम्हारे लिये है: मेरे स्मरण के लिये यही किया करो। इसी रीति से उसने बियारी के पीछे कटोरा भी लिया, और कहा; यह कटोरा मेरे लहू में नई वाचा है: जब कभी पीओ, तो मेरे स्मरण के लिये यही किया करो” (1 कुरिन्थियों 11:23-25)। उद्धार, या नया जन्म, तथा पापों की क्षमा पाया हुआ व्यक्ति, प्रभु की आज्ञा के अनुसार अपने आप को जाँचते हुए प्रभु भोज में भाग लेता है। किन्तु जैसे प्रेरितों 2:42 में दी गई अन्य तीनों बातों के साथ है, वैसे ही प्रभु भोज के साथ भी है, कि बहुत से लोग इसे केवल एक रस्म के समान समझकर, केवल एक रीति को पूरी करने के लिए प्रभु-भोज में भाग लेते हैं, इस विचार से कि इसके द्वारा वे परमेश्वर के दृष्टि में धर्मी ठहरेंगे, और अपने लिए स्वर्ग में कुछ प्रतिफल अर्जित कर लेंगे। जबकि यह उसी “समीकरण” वाली मानसिकता के अधीन, केवल उनकी धारणा ही है, यथार्थ, या बाइबल की अथवा प्रभु यीशु की शिक्षा नहीं।


जब प्रभु ने अपने पकड़वाए जाने से ठीक पहले प्रभु भोज की स्थापना की, उस समय केवल उसके चुने हुए वे बारह शिष्य ही उसके साथ थे, जिनमें से एक यहूदा इस्करियोती भी था, जो उसे पकड़वाने का निर्णय ले चुका था और यह करने के लिए पूर्णतः तैयार था। भोजन के आरंभ होने पर प्रभु यीशु ने उसे भोजन का पहला टुकड़ा दिया, जो उसके प्रति प्रभु के प्रेम का प्रतीक था, और तब यहूदा वहाँ से चला गया (यूहन्ना 13:26-30)। प्रभु-भोज के लिए रोटी तोड़ कर शिष्यों को देना और प्याला लेकर उन शिष्यों को देना प्रभु ने भोजन के दौरान, बियारी के पीछे (‘बियारी’ का अर्थ मुख्य भोजन है) किया (मत्ती 26:26-29; मरकुस 14:22, 23; लूका 22:20)। अर्थात प्रभु-भोज की स्थापना किए जाने के समय यहूदा इस्करियोती उनके मध्य में नहीं था। उसे मुख्य भोजन में तो हिस्सा मिला, अपितु उस मुख्य भोजन का पहला टुकड़ा प्रभु ने उसे ही दिया; यूहन्ना 13:30 में लिखा है कि वह रोटी लेते ही वहाँ से चला गया, संभवतः उसने वह रोटी का टुकड़ा भी नहीं खाया क्योंकि कहीं यह नहीं लिखा गया है कि उसने प्रभु से रोटी लेकर खा ली; किन्तु उसे मुख्य भोज के बाद स्थापित प्रभु-भोज में भाग नहीं मिला, वह तब तक प्रभु को छोड़ कर उसे पकड़वाने के लिए जा चुका था। अर्थात, मन में या व्यवहार में पाप रखने वाले व्यक्ति के लिए प्रभु-भोज में भाग नहीं है। इसीलिए 1 कुरिन्थियों 11:17-34, जो प्रभु भोज से संबंधित व्याख्या है, में 28 पद में स्पष्ट कहा गया है कि प्रभु-भोज में भाग लेने से पहले प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को व्यक्तिगत रीति से जाँच ले, और अपने आप को प्रभु के सामने सही करके, अपने पापों को मान कर, उनके लिए पश्चाताप करके ही इसमें भाग ले। फिर पद 29-32 बताते हैं कि जो अपने आप को जाँचे और सुधारे बिना प्रभु भोज में भाग लेते हैं वे दंड के भागी हैं, और इस कारण कई तो “सो” भी गए अर्थात उन्हें अनुचित भाग लेते रहने के कारण मृत्यु को भी सहना पड़ा।


किन्तु प्रभु भोज में भाग लेने से पहले अपने आप को और अपने जीवन को प्रभु के सम्मुख जाँचना और सभी बातों को प्रभु के साथ ठीक करके, सही रीति से भाग लेना भी आज एक औपचारिकता बन कर रह गई है। बिना उद्धार या नया जन्म, और पापों की क्षमा पाए हुए लोग भी अपने धार्मिक अगुवे के पीछे-पीछे उनकी किताबों में छपी हुई रीतियों को बोलते और दोहराते हैं, और समझते हैं कि सब सही हो गया, फिर जाकर प्रभु भोज में भाग ले लेते हैं; और फिर वहाँ से बाहर निकलकर जीवन वैसा ही सांसारिकता में चलता रहता है जैसा पहले चल रहा था। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि पहली मण्डली के लोग प्रतिदिन घर-घर मन की सिधाई से रोटी तोड़ते थे (प्रेरितों 2:46); जो फिर सप्ताह के पहले दिन जब वे लोग आराधना और उपासना के लिए एकत्रित होते थे, तब होने लगा (प्रेरितों 20:7)। इसके बाद से यही प्रतीत होता है कि यह प्रथम कलीसिया में स्थापित और मान्य विधि हो गई, क्योंकि नए नियम की किसी भी पुस्तक में न तो इसकी कहीं कोई आलोचना की गई है, न इसे सुधारने के लिए कहा गया है, और न ही ऐसा करने से मना किया गया है; जबकि इन पुस्तकों में अनेकों गलत शिक्षाओं को पहचाना और बताया गया है, उनकी आलोचना की गई है, और उन्हें सुधारने के लिए निर्देश भी दिए गए हैं; किन्तु प्रभु भोज में सप्ताह के पहले दिन, तथा प्रति सप्ताह भाग लेने के विषय में ऐसा कुछ नहीं कहा गया है। किन्तु आज अधिकांश चर्च में यह महीने में एक बार किया जाता है, जिसका बाइबल में कोई समर्थन नहीं है; और कहीं-कहीं तो वर्ष में एक बार भी किया जाता है, जिसका भी बाइबल से कोई समर्थन अथवा औचित्य नहीं है।


यदि व्यक्ति को प्रभु भोज में भाग लेने से पहले अपने आप को जाँचना है, अपने जीवन का पुनःअवलोकन करके अपनी कमियों और बुराइयों को प्रभु के सामने मानना है, तो प्रतिदिन अथवा सप्ताह में एक बार प्रभु-भोज का औचित्य समझ में आता है, क्योंकि इतना समय-अंतराल जीवन के पुनःअवलोकन करने के लिए उपयुक्त है। किन्तु महीने या वर्ष में एक बार यदि यह करना है, तो व्यक्ति कैसे सभी कुछ स्मरण कर सकता है और फिर गलतियों को पहचान कर उन्हें मान कैसे सकता है? ऐसे में तो प्रभु-भोज का औचित्य तथा कारण, दोनों ही व्यर्थ हो जाते हैं और यह मात्र एक औपचारिकता ही रह जाता है - जिसका निर्वाह इसी रूप में अधिकांशतः किया भी जाता है, न कि उसकी गंभीरता और उसके सही अभिप्राय के साथ।


फिर वही गणित के समीकरण की मानसिकता, मसीही विश्वासी को प्रभु भोज में भाग लेना है; इसलिए प्रभु भोज में भाग लेने वाला भी मसीही विश्वासी है। ऐसे लोगों में इस भोज के महत्व की कोई समझ नहीं, इसके प्रति कोई गंभीरता नहीं; एक रस्म पूरी करनी थी, सो कर ली, इसलिए अब यह मान लिया जाता है कि क्योंकि उन्होंने प्रभु-भोज में भाग ले लिया है इसलिए प्रभु भी उन्हें स्वीकार करने और आशीष देने के लिए बाध्य हो गया है। किन्तु प्रभु परमेश्वर किसी मनुष्य के कर्म से कुछ करने के लिए बाध्य नहीं होता है, और न मनुष्य के चलाए चलता है। यह मानसिकता रखने वाले लोग 1 कुरिन्थियों 11:29 के अनुसार, अपने लिए आशीष नहीं, श्राप कमा रहे हैं, और उन्हें एक दिन इसके लिए बहुत गंभीर परिस्थिति का सामना करना पड़ेगा।


आज प्रभु भोज में सम्मिलित होने के बारे में देखने के बाद, अगले लेख में परमेश्वर के वचन बाइबल की शिक्षाओं में से हम ऐसे ही बड़ी लगन से किन्तु गलत मानसिकता के साथ निभाई जाने वाली एक अन्य बात, बपतिस्मे को देखेंगे। किन्तु यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकल कर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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 Christian Faith & Discipleship – 10

English Translation

The Lord’s Table in Christian Faith


In the previous articles we have been seeing that those who believe in and following the Christian religion instead of the Christian faith, use the four integral things in a Born-Again Christian Believer’s life, related to the Christian faith, and mentioned in Acts 2:42 (Bible study, Fellowship, Lord’s Table, Prayer), like a mathematical equation, and consider themselves as being saved or Born-Again. The followers of the Christian religion observe these four things ritualistically, to fulfill religious formality, and then think themselves to be saved as well. This is a misunderstanding, a wrong notion on their part, and does not reconcile them with God, since it is similar to the notion of salvation by works, i.e., through observance of religion-good works-rituals and ceremonies etc. In our study on the significance and observance of these four things of Acts 2:42, we have seen three, Bible study, Prayers, and Fellowship, in some detail in the previous articles, and the remaining one - participating in the Lord’s Table we will be considering in this article; and then, in the next article we look at another important thing - Baptism which is also often misunderstood and practiced inappropriately by those who follow the Christian religion.


4. Participating in the Lord’s Table: The Lord Jesus, before His being caught for being crucified, observed the Passover with His disciples, and during that feast, He established the participation in the Lord’s Table i.e., the Holy Communion, for His disciples, as has been written by Paul: “For I received from the Lord that which I also delivered to you: that the Lord Jesus on the same night in which He was betrayed took bread; and when He had given thanks, He broke it and said, "Take, eat; this is My body which is broken for you; do this in remembrance of Me." In the same manner He also took the cup after supper, saying, "This cup is the new covenant in My blood. This do, as often as you drink it, in remembrance of Me."” (1 Corinthians 11:23-25). A Born-Again, i.e., a saved person, in obedience to the Lord’s command, participates in the Lord’s Table after examining himself. But as it happens with the other three things of Acts 2:42, many people participate in the Holy Communion ritualistically, to fulfill a tradition, assuming that by doing so they will become righteous in the eyes of God, and will earn some heavenly benefits for themselves. This is only a misunderstanding on their part, this concept is neither factual, nor the teaching of the Lord Jesus, but another example of something done under the mathematical equation mentality.


At the time the Lord Jesus established the Holy Communion, only His chosen twelve disciples were present there with Him; one of them, Judas Iscariot had already decided to betray and have Him caught, and was fully prepared to carry out his plan. The Lord Jesus started the supper, the meal of the Passover feast, and gave the first piece of bread to Judas Iscariot, which was an indication of the Lord’s love towards him, and Judas having received the bread, went out of the place (John 13:26-30). But the establishment of the Holy Communion was after this, during the eating of the meal (Matthew 26:26-29; Mark 14:22, 23; Luke 22:20), at which time Judas Iscariot had already left them. So, at the time the Holy Communion was established by the Lord, Judas Iscariot was not amongst them; he had been there at the time of starting the main meal, he received the first piece of bread from the Lord, but did not remain back, John 13:30 says that he left immediately after receiving the bread from the Lord, probably never even ate that piece - there is no recorded mention of him eating what the Lord had given him. It is therefore evident that the Lord’s Table was not meant for those who have sin hidden in their hearts and behaviour. It is for this reason that it is clearly stated in the instructions related to the Lord’s Table in 1 Corinthians 11:17-34, that every person participating in the Table should first carefully examine himself (v. 28), and having confessed his sins, asking the Lord’s forgiveness for them and making himself right before the Lord, only then should he take part in the Table. Then verses 29-32 tell that those who participate in the Holy Communion without examining themselves and setting themselves right before the Lord, they will have to suffer the punishment, so much so, that because of having partaken of the Table wrongly, many had even died, besides suffering various other chastisements from the Lord.


    But today, this necessity of self-examination of one’s life before the Lord, and setting things right before the Lord, has become more of a formality, than an actually practiced thing. It is very commonly seen in the followers of the Christian religion that people who have never been saved or Born-Again, never having received the forgiveness of their sins, they just traditionally speak out the words and sentences printed in their denominational book, at the behest of their religious leader, assume everything has been set right, go and participate in the Holy Communion, and once they step out of the Church, it is life as usual for them, till the time of the next Holy Communion. But in contrast to this we see that the members of the first Believer’s Assembly, used to break bread from house to house everyday with simplicity of heart (Acts 2:46); which sometime later was changed to the first day of the week, when they would gather to praise and worship the Lord (Acts 20:7). This seems to be the accepted and established practice of the first Church, since this has never been criticized, or corrected, or forbidden in any of the New Testament books, wherein many wrong teachings and practices have been identified, criticized, and corrected; but never the partaking in the Lord’s Table on the first day of the week, every week. But in most of the traditional and denominational Churches the Holy Communion is kept once a month, and in some Churches even once a year, and neither of these time periods have any support or affirmation from the Bible.


If a person has to examine himself and his life before participating in the Table, has to review his life, identify where he had gone wrong, and confess his sins and errors before the Lord, then participating daily or once week is quite understandable, since this is a convenient time interval for reviewing one’s recent past activities. But if a person is to do this once a month or once a year, then how can he be expected to remember and confess all the errors and short-comings over such a long period of time? In such a scenario, the very purpose of the Lord’s Table is lost and it is reduced to a formality, a ritual - and that is how it is mostly being observed as well.


This is again functioning with the mathematical equation mentality - those in the Christian faith participate in the Lord’s Table; therefore, those who participate in the Lord’s Table should be considered as those living by the Christian faith. The people who participate with this misunderstanding, have no idea of the seriousness and implications of doing so; for them it is a ritual that has to be carried out, and they have done so, so they think that now the Lord is obliged to accept and bless them for it. But the fact is that the Lord God is never under any obligation to any person or any ritual or works, he cannot be dictated to or manipulated by man. People with such an attitude and thinking, in accordance with 1 Corinthians 11:29, are earning chastisement and curses for themselves, not any blessings; and one day they will have to face a very serious situation because of what they do.


After considering the Lord’s Table, in the next article, we will take a look at another teaching of the Bible, and that too is practiced with great enthusiasm, but often with a wrong understanding and meaning - Baptism. But, if you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.

 

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रविवार, 12 जनवरी 2025

Significance of Fellowship in the Christian Faith / मसीही विश्वास में संगति रखने का महत्व

 

मसीही विश्वास एवं शिष्यता – 9 

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मसीही विश्वास में संगति रखने का महत्व


पिछले लेख में हमने देखा था कि मसीही विश्वास के स्थान पर मसीही या ईसाई धर्म का पालन करने वाले प्रेरितों 2:42 की चारों बातों (वचन की शिक्षा पाना, संगति रखना, प्रभु-भोज में सम्मिलित होना, प्रार्थना करना) को उद्धार या नया जन्म प्राप्त कर लेने के लिए गणित के एक समीकरण के समान, एक रस्म के समान लेते हैं। और इस कारण, इनके वास्तविक महत्व को समझने और उसका निर्वाह करने की बजाए इनकी औपचारिकता को पूरा करने के द्वारा समझते हैं कि वे भी नया जन्म या उद्धार पाए हुए हैं। किन्तु बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार यह मान्यता रखना गलत धारणा ही है, और यह करना धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह वाले भले जीवन और भले कामों द्वारा धर्मी बनने वाले आरंभिक उदाहरण के समान, प्रभु परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए, बिल्कुल भी उपयोगी नहीं हैं। पिछले लेख में हम प्रेरितों 2:42 की चार में से दो बातों, बाइबल अध्ययन और प्रार्थना के औपचारिक निर्वाह के बारे में देख चुके हैं। आज हम प्रेरितों 2:42 की शेष दो बातों में से एक और, संगति रखने के बारे में कुछ और विस्तार से देखेंगे।


3. संगति रखना: आरंभिक मसीही विश्वासी जिन बातों में प्रेरितों 2:42 के अनुसार ‘लौलीन’ रहते थे, उनमें से एक परस्पर संगति रखना भी था। इसी 42 पद के बाद, पद 44 से 46 में, उस आरंभिक मण्डली में इस संगति रखने के अर्थ को सजीव उदाहरण से बताया गया है। उनके लिए लिखा गया है, “और वे सब विश्वास करने वाले इकट्ठे रहते थे, और उन की सब वस्तुएं साझे की थीं। और वे अपनी अपनी सम्पत्ति और सामान बेच बेचकर जैसी जिस की आवश्यकता होती थी बांट दिया करते थे। और वे प्रति दिन एक मन हो कर मन्दिर में इकट्ठे होते थे, और घर घर रोटी तोड़ते हुए आनन्द और मन की सिधाई से भोजन किया करते थे” (प्रेरितों 2:44-46)। यद्यपि इसके बाद यह बात फिर कभी किसी अन्य मण्डली में न देखने को मिली, और न ही इसका उदाहरण बनाकर कभी कहीं कोई शिक्षा दी गई, न ऐसा करते रहने के लिए कभी कहा गया; किन्तु उन लोगों की संगति एक घनिष्ठ आत्मीयता, परस्पर प्रेम के साथ परिवार के समान रहने की बात थी। मण्डली या चर्च के लोगों का परस्पर संगति रखने का महत्व एक-दूसरे से सीखने, एक-दूसरे की आत्मिक और साँसारिक स्थिति तथा परिस्थितियों से अवगत होने और एक-दूसरे के लिए समय और परिस्थिति के अनुसार सहायक होने, एक-दूसरे के लिए प्रार्थना करने, आदि के लिए तब भी था और आज भी है।


हम पौलुस की पत्रियों से देखते हैं कि वह उन मसीही विश्वासियों के लिए भी प्रभु में आनंदित होता था और उनके लिए प्रार्थनाएँ करता था, जिनसे वह कभी मिला भी नहीं था बस उनके बारे में सुना ही था (कुलुससियों 1:3, 4, 9)। इसी प्रकार से यरूशलेम में स्थित आरंभिक कलीसिया के अगुवों ने जब इस्राएल के क्षेत्र से बाहर अन्य-जातियों के मध्य पौलुस की सेवकाई के बारे में जाना, तो उन्होंने भी उसकी सेवकाई को अपनी सेवकाई के समान स्वीकार किया और उसका अनुमोदन एवं समर्थन किया (गलातियों 2:7-10)। हम परस्पर मेल-मिलाप और आदर के बारे में एक और बहुत महत्वपूर्ण बात भी देखते हैं, पौलुस ने पतरस का उसकी गलती के लिए उसके मुँह पर सामना किया (गलातियों 2:11-14); किन्तु इससे पतरस और पौलुस में विरोध या टकराव अथवा विभाजन उत्पन्न नहीं हुआ, वरन बाद में पतरस अपनी पत्री में पौलुस की और उसके मसीही ज्ञान की सराहना करता है, उसे प्रिय भाई कहकर संबोधित करता है (2 पतरस 3:15-16)। मसीही विश्वासियों की इस व्यावहारिक एक-मनता के सामने आज के मसीहियों की औपचारिक परस्पर संगति और एक-दूसरे की देख-भाल कितनी फीकी और छिछली, तथा पाखण्ड के समान है।


इन अंत के दिनों के लिए, जिनमें हम रह रहे हैं, परस्पर संगति रखने के संबंध में बाइबल की शिक्षा है “और प्रेम, और भले कामों में उकसाने के लिये एक दूसरे की चिन्‍ता किया करें। और एक दूसरे के साथ इकट्ठा होना ने छोड़ें, जैसे कि कितनों की रीति है, पर एक दूसरे को समझाते रहें; और ज्यों ज्यों उस दिन को निकट आते देखो, त्यों त्यों और भी अधिक यह किया करो” (इब्रानियों 10:24-25)। किन्तु चर्च अथवा मण्डलियों में आज अपने समूह के अतिरिक्त अन्य समूहों के मसीही लोगों से मिलने, उनसे संगति रखने, उनके साथ प्रार्थना करने अथवा वचन के अध्ययन में सम्मिलित होने को मना किया जाता है, रोका जाता है। आरंभिक मसीही मण्डलियों के लोग परस्पर मिलने और संपर्क रखने तथा जुड़ने के लिए लालायित रहते थे; आज के मसीही एक दूसरे से पृथक रहने और दूरी बनाने के अवसर और तरीके ढूंढते हैं। बस अपनी ही मण्डली अथवा चर्च में इतवार के दिन की एक औपचारिक संगति को ही पर्याप्त और उचित मान तथा बता कर इस संगति रखने बात के निर्वाह को सही और पूर्ण समझ लिया जाता है; गणित के समीकरण के समान, संगति रख ली इसलिए मसीही विश्वासी हैं समझ लिया जाता है।


परमेश्वर के वचन बाइबल की शिक्षाओं में से हम ऐसे ही बड़े लगन, किन्तु गलत मानसिकता के साथ निभाई जाने वाली अन्य बातों, प्रभु भोज में सम्मिलित होना, और बपतिस्मे को, अगले लेखों में देखेंगे। किन्तु यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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 Christian Faith & Discipleship – 9

English Translation

Significance of Fellowship in the Christian Faith


In the last article we have seen that those who believe in and follow the Christian religion instead of the Christian faith, use the four integral things in a Born-Again Christian Believer’s life, related to the Christian faith, and mentioned in Acts 2:42 (Bible study, Fellowship, Lord’s Table, Prayer), like a mathematical equation, to consider themselves as being saved or Born-Again. The followers of the Christian religion observe these four things ritualistically, to fulfill religious formality, and then think themselves to be saved as well. But the desire to take these things seriously, understand their significance, and observe them to grow in the Christian life is missing in them. This is a misunderstanding, a wrong notion on their part, and does not reconcile them with God, since it is similar to the notion of salvation by works, i.e., through observance of religion-good works-rituals and ceremonies etc. In our study on the significance and observance of these four things of Acts 2:42, we had seen two, Bible study and Prayers, in some detail in the previous article, and of the remaining two we will be considering one in this article, and the fourth one in the next article.


3. Fellowship: According to Acts 2:42 one of the things that the initial Christian Believers continued steadfastly was Fellowship. In the subsequent verses, i.e., Acts 2:44-46, the meaning of their continuing in fellowship has been practically explained. It is written there, “Now all who believed were together, and had all things in common, and sold their possessions and goods, and divided them among all, as anyone had need. So, continuing daily with one accord in the temple, and breaking bread from house to house, they ate their food with gladness and simplicity of heart” (Acts 2:44-46). Although, it is important to note here that, this deeply connected and intimate fellowship was never seen again in any Church or Assembly of the Christian Believers; nor was this ever used as a precedence to instruct others, nor was any instruction for having such a fellowship ever given in any of the books of the New Testament. Nevertheless, we see from their example that the fellowship of those first converts, the members of that first Christian Assembly, was of a close-knit family, living together in love and mutual trust. The importance of fellowship in the Church, then and now, is to promote learning from one-another’s experiences, to be aware of each other’s worldly and spiritual state, situation, and needs, be of help to each other whenever required, wherever possible, and to pray for each other according to mutual needs and necessities.


We see from the letters of Paul, that he used to be joyful and praying for even those Churches and Christian Believers whom he had never met, but had only heard of (Colossians 1:3, 4, 9). Similarly, when the Elders of the Church in Jerusalem learned of Paul’s ministry outside of Israel, amongst the Gentiles, then they too accepted his ministry as similar to their own, affirmed and supported it (Galatians 2:1-10). In this mutual meeting together, sharing and acknowledging each other’s ministry, we also see one very important thing - Paul spoke directly to Peter, on his face, about something wrong being done by Peter in the fear of men (Galatians 2:11-14). But this did not produce any bitterness or ego problems between them, or amongst the members of their Assemblies; there was no division or fragmentation in the Church because of this. Rather, we later see Peter praising Paul for his wisdom, and addresses him as ‘our beloved brother.’ In comparison to this practically demonstrated spiritual unity, how shallow and pale is the mutual fellowship shown by the Christian Believers now-a-days; it seems more like a hypocrisy.


For these end-times, in which we are living, the teaching of the Bible about being in fellowship is, “And let us consider one another in order to stir up love and good works, not forsaking the assembling of ourselves together, as is the manner of some, but exhorting one another, and so much the more as you see the Day approaching” (Hebrews 10:24-25). In stark contrast, in the Churches or in the Assemblies, these days, people and elders try to stop their members meeting and fellowshipping with members of other Churches or Assemblies; they forbid and stop their members from participating in prayer meetings or Bible studies with people of other Assemblies or Churches. The people of the initial Churches and Assemblies used to have a zeal to meet, share, and remain in contact with people from other Assemblies and Churches; but today’s Christian Believers look for ways and excuses to remain separated from others, to avoid fellowship with others. Today, the Christians indulge in a little time of meeting together on Sundays, after the worship service with members of their own congregation, more often for socializing and exchanging gossip and other ‘news’, and consider this as “fellowship”, and then, like the mathematical equation, it is taken for granted that the fulfilling of this formality has qualified them to be Christian Believers.


From the teachings of the Word of God, in the coming articles we will look at participating in the Lord’s Table, and Baptism, which are often done with a great fervor, but also with a wrong attitude. But, if you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.

 

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शनिवार, 11 जनवरी 2025

Bible Study and Prayers in Christian Faith / मसीही विश्वास में बाइबल अध्ययन और प्रार्थना

 

मसीही विश्वास एवं शिष्यता – 8 

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मसीही विश्वास में बाइबल अध्ययन और प्रार्थना


पिछले लेख में हमने देखा कि प्रेरितों 2:42 की चारों बातों (वचन की शिक्षा पाना, संगति रखना, प्रभु-भोज में सम्मिलित होना, प्रार्थना करना) को उद्धार या नया जन्म प्राप्त कर लेने के लिए गणित के एक समीकरण के समान देखना, एक रस्म के समान इनकी औपचारिकता को पूरा करते रहना, तथा बाइबल के अनुसार गलत धारणाएं ही हैं, और प्रभु परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए, धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह वाले भले जीवन और भले कामों वाले पहले के उदाहरण के समान, उपयोगी नहीं हैं। आज से हम प्रेरितों 2:42 की इन चारों बातों के बारे में कुछ और विस्तार से देखेंगे, और ज पहली दो बातों को देखेंगे, शेष को दो को आने वाले लेखों में देखेंगे।


1. बाइबल की शिक्षा पाना: पापों की क्षमा और उद्धार पाया हुआ व्यक्ति बाइबल को पढ़ने, सीखने और बाइबल की शिक्षाओं का पालन करने में रुचि रखता है, समय बिताता है। किन्तु बाइबल में रुचि दिखाने, उसे सीखने, जानने, और मानने का प्रयास करने वाला हर व्यक्ति उद्धार, या, नया जन्म, और पापों की क्षमा पाया हुआ व्यक्ति नहीं होता है। संसार में ऐसे भी अनेकों व्यक्ति हैं जो मसीह यीशु के जगत का उद्धारकर्ता होने तथा बाइबल के परमेश्वर का वचन होने में विश्वास नहीं रखते हैं। किन्तु ऐसे लोग फिर भी, चाहे उसकी आलोचना करने के लिए, अथवा उसके प्रति कौतूहल से, या उस में से कुछ भली बातों को सीखने की इच्छा से बाइबल में रुचि रखते हैं, उसे पढ़ते और सीखते हैं, और उसकी कुछ शिक्षाओं से प्रभावित होकर उन्हें अपने जीवन में लागू करने के भी प्रयास करते हैं। किन्तु ऐसा करने से वे मसीही विश्वासी, परमेश्वर की संतान, स्वर्ग के वारिस नहीं हो जाते हैं। क्योंकि वे प्रभु के जन नहीं हैं, इसलिए वे परमेश्वर पवित्र आत्मा की बजाए, मनुष्यों से और मनुष्यों के ज्ञान तथा पुस्तकों से बाइबल के बारे में सीखते हैं; इसलिए बाइबल की सही शिक्षा से वंचित रहते हैं (1 कुरिन्थियों 2:10-15)। उन्हें बाइबल के बारे में बहुत सा ज्ञान तो हो सकता है, किन्तु उनके द्वारा की जाने वाली बाइबल की व्याख्या और दी जाने वाली शिक्षाओं में किताबी ज्ञान या मनुष्यों के विचार भरे होते हैं, और वह आत्मिकता और आत्मिक सामर्थ्य नहीं होती है जो परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में बाइबल सीखने, पालन करने, और सिखाने में देखने को मिलती है, “जब यीशु ये बातें कह चुका, तो ऐसा हुआ कि भीड़ उसके उपदेश से चकित हुई। क्योंकि वह उन के शास्त्रियों के समान नहीं परन्तु अधिकारी के समान उन्हें उपदेश देता था” (मत्ती 7:28-29); “जब उन्होंने पतरस और यूहन्ना का हियाव देखा, ओर यह जाना कि ये अनपढ़ और साधारण मनुष्य हैं, तो अचम्भा किया; फिर उन को पहचाना, कि ये यीशु के साथ रहे हैं” (प्रेरितों 4:13)। यह मसीही विश्वासी के बाइबल अध्ययन और अविश्वासी के बाइबल अध्ययन के बाइबल अध्ययन के मध्य एक बहुत बड़ा अंतर है। मसीही विश्वासी परमेश्वर के पवित्र आत्मा के द्वारा सीखने का प्रयास करता है क्योंकि वह इसीलिए दिया गया है (यूहन्ना 14:26; 16:13-14), ताकि उसे अपने जीवन में लागू करे,उसे आत्मिक भोजन के समान प्रयोग कर के आत्मिकता में बढ़े और परिपक्व हो (1 पतरस 2:2)। जबकि अविश्वासी बाइबल को मनुष्यों से या बाइबल से संबंधित पुस्तकों के द्वारा अध्ययन करता है, या तो एक औपचारिकता का निर्वाह करने के लिए, अथवा ज्ञान प्राप्त करने के लिए, या बाइबल की आलोचना करने के उद्देश्य से, या फिर किसी कौतूहल के अंतर्गत; किन्तु कभी ऐसे किसी उद्देश्य से नहीं कि परमेश्वर का वचन उसके अन्दर कोई परिवर्तन लेकर आए।


2. प्रार्थना करना: जो बात ऊपर बाइबल की शिक्षाओं के संबंध में कही गई है, वही प्रार्थना करने के विषय भी सत्य है। प्रार्थना करना, परमेश्वर से वार्तालाप करना है; एक घनिष्ठ, विश्वासयोग्य, सर्वसामर्थी अंतरंग मित्र के साथ अपने मन की बात साझा करना, और उससे अपनी भलाई के लिए परामर्श प्राप्त करना, और फिर उस परामर्श का पालन करना। किन्तु अधिकांश लोगों के लिए प्रार्थना एक औपचारिकता है, कुछ रटी हुई बातों को दोहराते रहना है, और कुछ के लिए तो इन बातों को दोहराते रहने की एक निर्धारित संख्या को पूरा करना है। वे कभी आत्मिकता में प्रभु के साथ जुड़ कर उसके साथ यह प्रार्थना रूपी वार्तालाप नहीं करने पाते हैं। अधिकांश लोग तो प्रार्थना के नाम पर न केवल परमेश्वर को अपनी समस्या बताते हैं, वरन उसे यह भी बताते हैं कि वह उस समस्या का क्या समाधान करे, कैसे करे, कब करे, और उसके साथ-साथ उनके लिए और क्या कुछ करे। वे परमेश्वर को अल्लादीन के चिराग के जिन्न के समान प्रयोग करना चाहते हैं - प्रार्थना रूपी ‘चिराग’ को रगड़ा, और ‘परमेश्वर’ नामक जिन्न को बता दिया कि वह उनके लिए क्या करे, और कैसे करे, आदि। उन्हें परमेश्वर की इच्छा जानने और पूरी करने में कोई रुचि नहीं होती है; वे केवल परमेश्वर को अपनी स्वार्थ-सिद्धि और सांसारिक बातों की उन्नति के लिए प्रयोग करना चाहते हैं।


उसी गणित के समीकरण के समान, जैसे मसीही विश्वासी भी प्रार्थना करते हैं, ये औपचारिकता निभाने वाले भी ‘प्रार्थना’ के नाम पर कुछ करते हैं; किन्तु दोनों की ‘प्रार्थना’ में जमीन-आसमान का अंतर है। मसीही विश्वासी परमेश्वर से उसकी इच्छा जानकर उसे पूरी करने, परमेश्वर के लिए उपयोगी होने के लिए प्रार्थना करता और सामर्थ्य माँगता है; रस्म या औपचारिकता को निभाने वाले परमेश्वर को अपनी इच्छाएं और लालसाएँ बताकर, उसे अपने लिए प्रयोग करने और सांसारिक बातों में बढ़ना चाहते हैं। उनके शिष्यों के अनुरोध पर कि प्रार्थना क्या है, और उसका खाका कैसा होना चाहिए, यह समझाने के लिए, तथा प्रार्थना करने में लोगों की सहायता के लिए प्रभु ने उन्हें प्रार्थना से संबंधित कुछ शिक्षाएं (मत्ती 6:5-15) और नमूने के रूप में एक प्रार्थना (पद 9-13; लूका 11:1-4) दी।


प्रभु से प्रार्थना करने को गणित के इस समीकरण समान देखने वालों ने कि “मसीही विश्वासी, प्रभु परमेश्वर से प्रार्थना करता है; इसलिए, प्रभु परमेश्वर से प्रार्थना करने वाला जन भी मसीही विश्वासी होता है;” और इसे औपचारिकता के समान निभाने वालों ने, प्रभु के द्वारा दी गई इस नमूने की प्रार्थना को भी एक रस्म और औपचारिकता बना दिया है। और अब प्रभु द्वारा दिया गया प्रार्थना का यह नमूना “प्रभु की प्रार्थना” के नाम से रट कर, बिना उस पर विचार किए, बिना उसे समझे, मसीही या ईसाई धर्म के मानने वालों के द्वारा धर्म और कर्म के निर्वाह के लिए बड़ी निष्ठा के साथ, हर समय और हर बात क लिए दोहराया जाता है। उनकी कोई प्रार्थना, कोई सभा, कोई रस्म बिना इस रटी हुई ‘प्रार्थना’ को व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रीति से दोहराए पूरी ही नहीं होती है; और यदि ऐसा न करवाया जाए, तो उन्हें लगता है कि कुछ अपूर्ण और अधूरा रह गया है जिसका कुछ बुरा परिणाम आ सकता है। इनमें से कोई भी जन, न सामान्य व्यक्ति और न ही धार्मिक अगुवा इस बात पर ध्यान करता है कि प्रभु ने स्पष्ट कहा कि “इस रीति से प्रार्थना किया करो;” न कि “यह प्रार्थना किया करो।" और न वे इस बात का ध्यान करते हैं कि सुसमाचारों के अतिरिक्त, संपूर्ण नए नियम में और कहीं भी न तो किसी व्यक्ति अथवा प्रेरित ने और न ही किसी और ने कभी भी यह ‘प्रार्थना’ फिर कभी दोहराई, या उसे करने के विषय शिक्षा दी, या लोगों को इसके लिए प्रोत्साहित किया। सुसमाचारों में भी, जहाँ प्रभु ने यह शिक्षा दी और शिष्यों को प्रार्थना का यह खाका या नमूना दिया, उसके अतिरिक्त फिर कभी न तो प्रभु ने और न उनके शिष्यों ने कभी भी इस नमूने को एक अनिवार्य प्रार्थना के समान दोहराया या स्मरण करवाया, या इसे अनिवार्य बनाया


प्रेरितों 2:42 की शेष दो बातों के पालन से संबंधित परमेश्वर के वचन बाइबल की कुछ शिक्षाओं को हम अगले लेख में आगे देखेंगे। किन्तु यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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 Christian Faith & Discipleship – 8

English Translation

Bible Study and Prayers in Christian Faith

In the previous article we had seen about the four integral things in a Born-Again Christian Believer’s life, related to the Christian faith, that are mentioned in Acts 2:42 (Bible study, Fellowship, Lord’s Table, Prayer). They are also observed by the followers of the Christian religion, in the manner of a mathematical equation, for considering themselves as being saved or Born-Again, because of their fulfilling these four things ritualistically, as a formality. But this is a misunderstanding, a wrong notion on their part, and does not reconcile them with God, since it is similar to the notion of salvation by works, i.e., through observance of religion-good works-rituals and ceremonies etc. We will now begin considering these four things of Acts 2:42 in some detail, and will first take up two, Bible study and Prayers today, and the remaining two in the subsequent articles.


1. Learning from the Word of God: While it is true that the person who has received forgiveness of sins and has been saved, has an active interest in God’s Word, and spends time learning from and striving to obey the teachings of God’s Word. But simply because of showing an interest in the Bible, wanting to learn and know it, and having a desire to follow its teachings, does not by itself make the person a saved or Born-Again person. There are many people in the world who neither accept the Lord Jesus as their saviour, nor accept the Bible as the Word of God. Nevertheless, these people still read and try to learn the Bible, even if it is only to criticize it, or simply out of a curiosity about it; and some, being impressed by some of its teachings, try to apply them to their lives. But this does not make them to be Christian Believers, children of God, heirs of heaven. Since they are not the Lord’s people, therefore, instead of learning from its author, the Holy Spirit, they try to learn the Bible from men and through human wisdom, through books written about the Bible; therefore, they remain unaware of the factual teachings about the Bible (1 Corinthians 2:10-15). They may gather a lot of knowledge about the Bible, but their exposition of the Bible and their teachings about it are full of bookish knowledge and the thoughts of men. They do not exhibit the spirituality and power of the Spirit, that comes through learning from the Holy Spirit, then applying those teachings in one’s life, and putting them forth to others only after doing this, “And so it was, when Jesus had ended these sayings, that the people were astonished at His teaching, for He taught them as one having authority, and not as the scribes” (Matthew 7:28-29); “Now when they saw the boldness of Peter and John, and perceived that they were uneducated and untrained men, they marveled. And they realized that they had been with Jesus” (Acts 4:13). This is a major point of differentiation between a Christian Believer’s Bible study, and a non-Believer’s Bible study. The Christian Believer strives to learn from God’s Holy Spirit, given by the Lord for this purpose (John 14:26; 16:13-14), to apply it in his life, to feed on it, to grow and mature in his Christian life through it (1 Peter 2:2); whereas the non-Believers study the Bible from men, through books about the Bible, either to fulfill a formality, or for the sake of knowledge, or to criticize the Bible, or out of curiosity, but never with the desire for God’s Word to change them.


2. Prayer: That which has been stated above regarding Bible study, is also true about prayers. Prayer is conversing with God; it is sharing your thoughts and feelings with a close, unfailingly reliable, and intimate friend; seeking His guidance for our benefit, and then following the counsel received from Him. But for most people, praying is a formality, they speak out some things by rote or formally repeat something written by someone else; for some others it is repeating these words a given number of times. They are never able to spiritually connect with the Lord and converse with Him. In the name of prayers, most of the people only speak to God about their needs and problems, and very often they also tell God the solution they want from Him, tell Him what to do about them, when and how to do this, and what else to do for them besides solving the problems in the manner they have asked Him to do. They try to use God as the Genie of Aladdin’s lamp - rub the lamp of ‘prayer’ and tell the Genie named ‘god’ what to do, how to do, and when to do. They have no interest in learning about the will of God about anything; they only want to use God to fulfill their desires, for their selfish motives, and to gain worldly prosperity.


Like the Christian Believers, these non-believers do an activity in the name of ‘prayers,’ just like that mathematical equation; but there is a radical difference between the prayers of a Christian Believer, and a non-believer. The Christian Believer wants to know the will of God and fulfill it, wants to become useful for the Lord, asks for wisdom and strength to be of service for the Lord God. Whereas, those who pray to fulfill a formality or as a ritual, they use prayer to tell God about their physical needs and desires, to gain worldly prosperity from Him, to grow in worldly things through God’s help. When the Lord’s disciples wanted to learn to pray and asked the Lord to teach them, the Lord gave them an outline, a framework of what an effective and meaningful prayer ought to be like, along with some teachings about prayer (Matthew 6:5-15), and gave to them an example of how their prayers should be structured (vs.9-15; Luke 11:14).


But those who use prayer like the mathematical equation, i.e., those who think that “Christian Believers pray to the Lord God; therefore, those who pray to the Lord God are Christian Believers”, i.e., the people who pray to fulfill a ritual or a formality, have turned even this model framework of prayer into a ritual and formality. Now, this framework given by the Lord has been named “Lord’s Prayer” and people have just memorized it, without ever giving any thought or consideration to it, without bothering to understand it. So, today you see amongst the followers of Christian religion that this “Lord’s Prayer” is very religiously repeated by rote in everything they do. None of their prayers, gatherings, ceremony, etc. is ever complete without either individually or collectively speaking out this “Lord’s Prayer” by rote; if this is not done, then they feel as if something has been left out, the work is not incomplete and something harmful may happen if this is not included. None of these people, neither the clergy nor the lay-person ever pays heed to the Lord’s words “In this manner, therefore, pray” (Matthew 6:9) while giving this prayer; they blindly assume the Lords words to be “therefore say this prayer” - which the Lord never said – the Lord taught a “manner”, i.e., a method or framework of prayer, not “this prayer”, i.e., a proper prayer itself. Neither do these unbelievers ever consider the fact that outside of the Gospels, in the whole of the New Testament, neither any of the Apostles, nor anyone else, ever repeated or spoke this so-called “Lord’s Prayer”, nor ever taught it to the people, nor encouraged anyone to speak it out. Even in the Gospels, other than where the Lord taught the disciples about this framework of prayer, neither the Lord, nor the disciples, ever repeated this prayer; never was it made compulsory, never was anybody asked to memorize it and make others memorize it either.


The remaining two things form Acts 2:42 we will see in the next article. But, if you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.

 

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