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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 88
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (30)
व्यावहारिक मसीही जीवन जीने का एक महत्वपूर्ण भाग है परमेश्वर के साथ जुड़े रहना, उसके साथ वार्तालाप अर्थात, प्रार्थना करने में लगे रहना। प्रेरितों 2:42 में चार बातें दी गईं हैं, जिनमें आरम्भिक मसीही विश्वासी लौलीन रहते थे। इन चार में से चौथी बात है प्रार्थना करना, अर्थात हर बात के लिए परमेश्वर के साथ निरन्तर सम्पर्क में बने रहना। आज के मसीहियों में भी ये चार बातें पाई जाती हैं, किन्तु वे उनमें लौलीन नहीं रहते हैं, वरन रीति के निर्वाह के लिए, इन चारों को औपचारिकता पूर्वक पूरा कर लेते हैं। प्रार्थना करने, यानि परमेश्वर से हर बात के बारे में वार्तालाप करने में भी सामान्यतः वह रुचि और लग्न नहीं देखी जाती है। व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित इन चारों बातों के मूल स्वरूप और निर्वाह के बारे में हम परमेश्वर के वचन बाइबल में दिए गए उदाहरणों और सम्बन्धित पदों से देखते आ रहे हैं। वर्तमान में, प्रार्थना के विषय बाइबल से सीखते हुए, अब हम तथाकथित “प्रभु की प्रार्थना” के बारे में मत्ती 6:5-15 के आधार पर विचार कर रहे हैं। हमने देखा है कि वास्तव में यह प्रभु यीशु द्वारा दी गई कोई “प्रार्थना” नहीं है, जिसे रट कर हर अवसर और हर बात के लिए बिना विचारे, बिना सोचे समझे बोल दिया जाए, जैसा आज मसीहियों में किया जाता है। वरन यह परमेश्वर को स्वीकार्य प्रार्थनाओं को बनाने और करने के लिए एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके आधार पर मसीहियों को अपने जीवन और प्रार्थनाएं ढालनी चाहिएं। हम देख चुके हैं कि परमेश्वर के सामने प्रस्तुत होने से पहले एक तैयारी आवश्यक है; और उससे कुछ माँगने वाले होने से पहले, उसे आराधना, आदर, सम्मान, आज्ञाकारिता देने वाला होना अनिवार्य है। आज से हम प्रभु द्वारा अपने शिष्यों को यहाँ पर सिखाए गए प्रार्थना के विषयों के बारे में विचार करना आरम्भ करेंगे।
प्रार्थना के इस ढाँचे, इस रूपरेखा में, मत्ती 6:11-13a में प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों के सामने, परमेश्वर से माँगने के लिए तीन विषय रखे हैं - पद 11 में प्रतिदिन के लिए रोटी या भोजन; पद 12 में क्षमा करने वाला बनना; और पद 13a बुराई से बचे रहने के लिए परमेश्वर से सुरक्षा; और फिर पद 13b में परमेश्वर के गुणानुवाद, उसे आदर और महिमा देने के साथ यह रूपरेखा समाप्त हो जाती है। इसके बाद के पद 14-15 में पद 12 के विषय, क्षमा करने वाला बनने से सम्बन्धित प्रभु द्वारा दी गई एक व्याख्या और चेतावनी है। यदि हम अपने मसीही जीवनों, व्यवहार, और परमेश्वर से माँगी गई अपनी प्रार्थनाओं के बारे में देखते हैं, तो उन्हें प्रभु द्वारा सिखाई गई इन तीन बातों से बहुत भिन्न पाते हैं। यदि हम अपनी प्रार्थनाओं पर, हम जो परमेश्वर से प्राप्त करना चाहते हैं और उसके सामने अपने जिन विषयों को रखते हैं, उन बातों पर विचार करें, तो हमारे प्रार्थना के विषय इन तीन विषयों से बहुत कम मेल खाते हैं। ऐसे बहुत ही कम मसीही होंगे जो इन तीन बातों को परमेश्वर से नित्य माँगते होंगे। लेकिन इसके विपरीत, शायद ही कोई ऐसा मसीही होगा जो नहीं चाहता होगा कि उसके लिए परमेश्वर इन तीनों बातों को स्वतः ही, बिना माँगे ही, पूरा करता रहे। अर्थात, ये तीनों बातें अपने जीवन में चाहिएं तो सभी को, लेकिन इन तीनों से सम्बन्धित जो अन्य बातें इन पदों में दी गई हैं, उन्हें कोई करना नहीं चाहता है। इसलिए इन बातों को परमेश्वर से माँगने से कतराते हैं। क्योंकि जीवन में इन तीनों बातों के होने के लाभ और महत्व को सभी जानते हैं, इसलिए उन्हें अपने लिए चाहते सब हैं; किन्तु आगे होकर, पहल करके, उन्हें औरों को कोई देना नहीं चाहता है, इसलिए उनके लिए प्रार्थना में शान्त रहते हैं।
ऐसी ही एक दूसरी विडम्बना भी है। हम आज जिन बातों को सामान्यतः अपनी प्रार्थनाओं में परमेश्वर से माँगते हैं, वे प्रभु के द्वारा इससे थोड़ा सा आगे मत्ती 6:19-34 में दी गई हैं; प्रार्थना में माँगने के लिए नहीं, वरन परमेश्वर द्वारा अपने सच्चे, समर्पित आज्ञाकारी शिष्यों की उसके प्रति आज्ञाकारिता और उसकी इच्छा के अनुसार जीवन जीने और काम करने के कारण परमेश्वर से मिलने वाले उपहार के समान। शैतान ने हमारी बुद्धि कैसी भ्रष्ट कर रखी है कि हम परमेश्वर से प्रार्थनाओं में, विभिन्न तरह से धन, सम्पत्ति, मकान, वस्त्र, प्रतिष्ठा, भोजन, साँसारिक बातों में बढ़ोतरी और उन्नति, आदि को तो माँगते हैं, जिन्हें माँगने के लिए प्रभु ने सिखाया ही नहीं है। लेकिन जिन तीन बातों को परमेश्वर से माँगने के लिए सिखाया है, जो अनन्तकाल की आशीषों और आत्मिक बढ़ोतरी तथा उन्नति से सम्बन्धित हैं, जो इस लोक और परलोक दोनों के लिए लाभदायक हैं, उन्हें शायद ही कोई मसीही परमेश्वर से माँगता होगा। मत्ती 6:19-34 में प्रभु ने हमारी प्रार्थनाओं के इन विषयों की व्यर्थता के बारे में, आकाश के पक्षियों, जंगली सोसनों, स्वयं की आयु पर नियन्त्रण न कर पाने, सांसारिक धन के नाशमान होने, आदि के उदाहरणों के द्वारा समझाया है कि इनकी लालसा करना कितना व्यर्थ है। साथ ही पद 32 में यह उलाहना भी दिया है कि इन वस्तुओं की खोज में रहना, इनकी लालसा में रहना, अन्यजातियों का गुण है, परमेश्वर के लोगों का नहीं। और फिर अपने शिष्यों को सम्बोधित करते हुए आश्वस्त किया और कहा, “इसलिये पहिले तुम परमेश्वर के राज्य और उसके धर्म की खोज करो तो ये सब वस्तुएं भी तुम्हें मिल जाएंगी” (मत्ती 6:33)। प्रभु की प्रतिज्ञा प्रकट है, कि जो परमेश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता को अपने जीवन में प्राथमिकता देगा, उसे न केवल स्वर्ग में प्रतिफल, वरन, स्वतः ही संसार की आवश्यक बातें भी परमेश्वर कि ओर से दे दी जाएंगी। आवश्यकता अपने जीवनों में सही प्राथमिकताओं को निर्धारित करने और निर्वाह करने की है।
यहाँ पर शैतान ने हमें चुपके से कैसी युक्ति में फँसा रखा है, उसपर ध्यान कीजिए। हम इस पर ध्यान नहीं देते और समझते नहीं हैं कि परमेश्वर ने जो कहा है, वह उसे अवश्य पूरा करेगा; और जो नहीं कहा है, उसे कभी नहीं करेगा, उसे चाहे कोई भी और कैसे भी क्यों न माँगे। लेकिन शैतान परमेश्वर के इस गुण को अच्छे से जानता और समझता है, और हमारी बुद्धि को भ्रष्ट करके, हमें बहका और भरमा के, परमेश्वर के इस गुण को हमारे विरुद्ध प्रयोग करता है। परमेश्वर के वचन की अधूरी और गलत समझ रखने के कारण, हम शैतान के प्रभाव और बहकावे में फँसकर उसकी युक्ति के अनुसार करते हैं। ध्यान दीजिए कि शैतान ने हमें किस गलती में डाल रखा है: परमेश्वर के वचन और शिक्षाओं के अनुसार हमें जो और जैसे माँगना चाहिए, हम उसे नहीं माँगते हैं; इसलिए परमेश्वर से उन बातों से सम्बन्धित आशीषों को प्राप्त नहीं करते हैं। साथ ही, हमें परमेश्वर के लिए जो करना चाहिए, जो उसके प्रति हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, हम उसे भी नहीं करते हैं; इसलिए उसके प्रतिफल में जो हमें स्वतः ही परमेश्वर से मिल जाता, उससे भी वंचित रह जाते हैं। लेकिन वचन के अनुसार जिसे माँगने की कोई आवश्यकता नहीं है, और जो माँगने पर भी परमेश्वर देगा नहीं, क्योंकि उसने उसे प्रार्थना के उत्तर में नहीं, आज्ञाकारिता के उपहार के रूप में देना ठहराया है, हम उसी के लिए प्रार्थनाएं करते हैं, फिर निराश होते हैं, परमेश्वर और उसके वचन पर अविश्वास करने लगते हैं। परमेश्वर के वचन के प्रति हमारी लापरवाही और अनाज्ञाकारिता के कारण गलती तो हम करते हैं, लेकिन उस गलती और उससे होने वाली हानि के लिए ज़िम्मेदार परमेश्वर को ठहराते हैं। और इस सारी प्रक्रिया में हर तरह से शैतान सफल और हम हानि उठाने वाले रहते हैं। इसलिए आवश्यकता परमेश्वर के वचन को जानने, सीखने, और मानने की है। तब ही हम ऐसी मूर्खताओं से निकलने और आशीषित तथा सुरक्षित रहने पाएंगे।
अगले लेख में हम प्रभु द्वारा दिए गए प्रार्थना के तीनों विषयों पर यहाँ से आगे विचार करना ज़ारी रखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 88
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (30)
An important part of practical Christian living is remaining connected with God, to keep praying, i.e., conversing with Him at all times. We have in Acts 2:42 four things that the initial Christian Believers observed steadfastly. The fourth of these four is prayer, or continually being in touch with God for everything. These four things are seen amongst the Christians today also, but they do not observe them steadfastly; instead, they do it like a ritual, perfunctorily. The kind of interest and sincere desire as was amongst the initial Christians is not seen today, even for prayers. We have been looking at and pondering over the original form and observance of these four things through the related examples and verses given in God’s Word the Bible. Presently, while learning about prayer, we are now considering the so-called “Lord’s Prayer” through Matthew 6:5-15. We have seen that actually speaking it is not a “prayer” given by the Lord Jesus, that should be memorized, and then on all occasions and for everything be repeated by rote without understanding or thinking about it, as is commonly done by the Christians today. Instead, it is a framework, an outline, based on which the Christians should make and mold their individual prayers. We have seen that there is preparation that is necessary prior to appearing before God with prayers; and before being a person who asks God for something, it is essential to be one who gives to God His due honor, reverence, obedience, and worship in and through our lives. From today we will start considering the topics that the Lord taught to His disciples to ask for in prayer.
In this framework, this outline of prayer, in Matthew 6:11-13a, the Lord has given three topics for them to ask from God - in verse 11 it is our daily bread or food; in verse 12 it is being one who forgives others; and in verse 13a it is asking for God’s security and safety to be kept from evil; and then this ‘prayer’ ends by praising God and giving Him glory and honor in verse 13b. Then after this, in verses 14-15 we have a comment and caution by the Lord related to the topic of verse 12, i.e., forgiveness. If we consider our Christian lives, behavior, and our own prayers, that we ask of God, then we find them to be quite different from the three things the Lord has taught. If we think over our prayers, the things that we want to receive from God and the topics we place before God for being fulfilled by Him, then we see them to be quite different from what the Lord has taught here. There would be hardly any Christians who would regularly pray for these things in their lives. But on the contrary, there would be hardly any Christian who would not want God to automatically and continually fulfill these three things for them in their lives, without their even asking for them. In other words, everyone wants these three things to be available to them in their lives, but no one wants to do the associated things given in the same verses. Therefore, they shy away from asking God for them. Because everyone knows about the importance and benefits of having these three things in their lives, therefore everyone desires to have them; but none wants to step up and first do these for others, so they remain silent about them in their prayers.
Here, there is another similar irony too. The things that we commonly ask God for in our prayers are given a little ahead in Matthew 6:19-34; not for being asked in prayer, but as God’s reward to His true, surrendered, obedient disciples, who carry out His will, work and live out their lives as God wants them to do - God automatically gifts these things to them. Satan has so corrupted our minds and understanding, that in various ways we ask God for wealth, possessions, house, clothes, name and fame, growth and increase in things or the world; things which the Lord has not taught to pray about. But the three things that the Lord has taught to pray about, things that are related to eternal blessings, to spiritual edification and growth, things that are beneficial for us in this world as well as the next, hardly any Christian ever prays about and asks for them. In Matthew 6:19-34, the Lord has taught about the vanity of desiring them through the examples of the birds, lilies of the fields, inability to control our age, fate of worldly wealth etc. And in verse 32 here He has also chided by saying that to desire these and to be engaged in acquiring these is a characteristic of the Gentiles, not of the people of God. Then addressing His disciples, the Lord assured them and says, “But seek first the kingdom of God and His righteousness, and all these things shall be added to you” (Matthew 6:33). The Lord’s promise is clear: whoever gives priority to God’s kingdom and His righteousness in his life, not only will he get the rewards in heaven, but even the worldly things he requires will be provided for Him by God. The necessity is of having the right priorities in our lives and of following them.
Here, take note of how subtly Satan has trapped us in his devious devices. We neither pay attention to nor understand God’s attribute that whatever God has said He will surely fulfill; and what He has not said, He will never do it, no matter who and how much anyone may ask for it. But Satan knows and understands this attribute of God very well, and by corrupting our minds and understanding, he deceives and misleads us, and uses this attribute of God against us. Because of our scanty knowledge and misunderstandings of God’s Word, we fall for Satan’s devious schemes and do as he misleads us. Pay attention to the error that Satan has entangled us in: what we should be asking for from God in accordance with His Word, we do not ask for it; therefore, we do not receive the associated blessings from God. Also, what we should be doing for God, the priority that we should be having in our lives related to things of God, we do not do them either; therefore, the gifts and rewards we would have automatically received from God, we miss out on them as well. But we ask for things that the Lord has taught that there is no need to ask for, and so God will not give us those things; because He has decreed to give them as gifts and rewards to those who are obedient to Him, and not as answers to prayers. So, we ask for things that God will not give as answers to prayers, then we are disappointed, and start distrusting God and His Word. Through our carelessness and disobedience towards God’s Word, it is we who make mistakes and do wrongs, but hold God responsible for the harmful consequences. In this whole process, it is Satan who has the success and we are the ones who remain at loss. Therefore, the necessity is to know, learn and obey God’s Word. Only then will we be able to come out of such foolishness, and stay safe and blessed.
In the next article, we will move on from here, and consider the three things spoken of by the Lord.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.