ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

बुधवार, 20 नवंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 257

 

Click Here for the English Translation


व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 102


मसीही जीवन और व्यवस्था का पालन (7) 


हम पिछले कुछ लेखों से व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों को प्रेरितों 15 अध्याय से देख रहे हैं। हमने देखा है कि परमेश्वर से पापों की क्षमा और उद्धार पाने के लिए केवल सुसमाचार के मूल स्वरूप (1 कुरिन्थियों 15:1-4) को स्वीकार करना, उसी पर विश्वास करना अनिवार्य है। सुसमाचार के इस मूल स्वरूप में किसी भी अन्य बात का जोड़ा जाना, चाहे वह पवित्र शास्त्र से ली गई खतना करवाने और मूसा की व्यवस्था का पालन करने की बातें हों, अथवा वर्तमान में मतों और डिनॉमिनेशनों द्वारा बनाए और लागू किए गए नियम, रीतियाँ, और परम्पराएं हों, किसी को भी परमेश्वर की दृष्टि में न तो धर्मी बनाता है और न स्वीकार्य, वरन सुसमाचार में विश्वास के स्थान पर कर्मों द्वारा धर्मी बनने की धारणा डालकर उसे भ्रष्ट करता है, तथा परमेश्वर के वचन का उल्लंघन करता है। साथ ही हमने यह भी देखा था कि अन्य जातियों से मसीही विश्वास में आने वालों को प्रेरितों 15:20, 29 में मना की गई चार बातें, यद्यपि दस आज्ञाओं का पालन करने से सम्बन्धित थीं, किन्तु व्यवस्था का पालन करने के समान नहीं थीं। इन बातों का वचन के आधार पर विश्लेषण और उनके सही सन्दर्भ में उनकी उचित व्याख्या करने के द्वारा हमने देखा था कि दस आज्ञाएँ मूसा की व्यवस्था से पहले दी गई थीं, व्यवस्था का भाग नहीं थीं, और परमेश्वर ने भी उन आज्ञाओं को व्यवस्था से भिन्न दिखाया था; इसलिए दस आज्ञाओं का पालन करना, मूसा की व्यवस्था का पालन करना नहीं है।

 

पिछले लेख में हमने उन चार में से पहली बात, मूर्तियों को बलि चढ़ाए हुए मांस के खाना, इसको वर्जित करने के एक कारण को 1 कुरिन्थियों 8 अध्याय के आधार पर देखा और समझा था। आज इसी सन्दर्भ में, 1 कुरिन्थियों 10 अध्याय से हम मूर्तियों को बलिदान की गई वस्तुओं से सम्बन्धित और बातों को देखेंगे और समझेंगे, कि क्यों मसीही विश्वासियों को उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए, उनसे दूर रहना चाहिए। आज की चर्चा की बातों को समझने के लिए, पाठक कृपया परमेश्वर के वचन बाइबल में से 1 कुरिन्थियों 10:14 से आगे के लेख को पढ़ लें। पद 14 में पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस स्पष्ट और दो टूक मूर्ति पूजा से बचे रहने के लिए कहता है, जो दस आज्ञाओं में से पहली दो आज्ञाओं का पालन करना है। पद 15 से वह उन्हें मसीही विश्वासियों द्वारा निभायी जाने वाली बातों को समझाता है, किन्तु साथ ही, इसी पद 15 में, उन से अपने द्वारा कही हुई बातों को परखने के लिए भी कहता है।  पद 16-17 में, विश्वासियों द्वारा प्रभु भोज की रोटी और कटोरे में सम्मिलित होने को प्रभु की देह और लहू में भागी होने के समान बताने के बाद, पौलुस पद 18 में इस्राएलियों की उपासना से संबंधित एक व्यावहारिक बात के उदाहरण से समझाता है, कि वेदी पर चढ़ाए गए बलिदानों को खाने वाला, वेदी का भी सहभागी होता है। फिर इसी व्यावहारिक बात के उदाहरण को मूर्तिपूजा पर भी लागू करते हुए कहता है कि यद्यपि मूर्तियाँ अपने आप में कुछ नहीं हैं, किन्तु उनकी उपासना के कारण दुष्टात्माएं उनके साथ सम्बन्धित हो जाती हैं, इसलिए मूर्तियों को चढ़ाए गए बलिदानों में भागी होने के द्वारा, व्यक्ति दुष्टात्माओं के साथ सहभागी हो जाता है; अर्थात उनकी उपासना का भागी हो जाता है। इस आधार पर वह पद 21 और 22 में कहता है कि मसीही विश्वासी अब दुष्टात्माओं के साथ सहभागी, अर्थात उनकी उपासना का भागी नहीं हो सकता है। जो भी ऐसा करता है, वह परमेश्वर को रीस दिलाता है; तात्पर्य यह, कि उसे परमेश्वर को रीस दिलाने के दुष्परिणामों को भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। तो मूर्तियों को चढ़ाए गए बलिदानों को स्वीकार करने और उनमें सहभागी होने से सम्बन्धित जो आज, अभी तक की जो बातें हमने देखी और समझी हैं, वे हैं, यह करना मूर्तियों की उपासना के साथ भागी बनाता है, और परमेश्वर को रीस दिलाता है; इसलिए मसीही विश्वासी को इससे दूर रहना चाहिए। 

 

 इसके बाद पौलुस पद 23-24 में, 1 कुरिन्थियों 8 अध्याय में मूर्तियों से सम्बन्धित बातों के आधार पर समझाता है कि बात केवल उचित-अनुचित होने की नहीं है। मसीही विश्वासियों को बात के औरों पर प्रभाव का ध्यान रखना भी अनिवार्य है; और इस आधार पर औरों की भलाई करने का ध्यान रखना भी आवश्यक है। इसके बाद पद 25-30 में, पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस ने एक महत्वपूर्ण बात लिखी है; ऊपर हमने देखा है कि उसने स्पष्ट किया है कि जिसके बारे में पता है कि वह मूर्तियों को बलिदान किये हुए में से है, उसे स्वीकार नहीं करना है, उसका भागी नहीं होना है। यहाँ, इन पदों में इस बात को लेकर अनुचित रीति से कट्टर और हठधर्मी होने; शैतान द्वारा, इस बात को लेकर, कर्मों के आधार पर धर्मी-अधर्मी बनाने की बात में फँसाने से बचने के लिए वह रास्ता देता है - जिसके बारे में पता नहीं है, जो सामान्य सामग्री के समान बाजार में बेचा जा रहा है, या भोजन के रूप में परोसा गया है उसके विषय नाहक पूछताछ न करो, उसे साधारण भोजन के समान प्रार्थना के साथ ग्रहण कर लो; परमेश्वर वास्तविकता को जानता है। किन्तु यदि परोसते समय परोसने वाला बता देता है कि यह मूर्तियों को बलि किया हुआ है, तो क्योंकि बात अब खुल गई है, वास्तविकता प्रकट हो गई है, इसलिए ऐसी स्थिति में यह ऊपर वाले पद 14-22 वाली श्रेणी में आ गया है, और अब उससे उसी स्थिति के समान व्यवहार करना चाहिए, उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। और पद 31-33 में एक महत्वपूर्ण निर्देश देता है कि मसीही विश्वासी चाहे खाएं या पीएं, जो भी करें परमेश्वर की महिमा के लिए करें। इस अध्याय की समाप्ति पर पौलुस फिर से याद दिलाता है, अपने उदाहरण से दिखाता है कि कोई भी विश्वासी किसी के लिए भी ठोकर का कारण न बने, बल्कि सभी के लाभ और प्रसन्नता का कारण हो।


यरूशलेम की कलीसिया के अगुवों द्वारा अन्यजातियों में से मसीही विश्वास में आए लोगों को मूर्तियों को बलि की गई वस्तुओं से दूर रहने के निर्देश के बारे में देखने, समझने, और सीखने के बाद, अगले लेख में हम व्यभिचार से दूर रहने से सम्बन्धित बातों के बारे में परमेश्वर के वचन से देखेंगे, समझेंगे, और सीखेंगे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************


English Translation


Things Related to Practical Christian Living – 102


Christian Living and Observing the Law (7)


  For the past few articles, we have been considering things related to practical Christian living from Acts chapter 15. We have seen that to receive the forgiveness of sins and salvation from God, we only need to accept the gospel in its original form (1 Corinthians 15:1-4) and believe in it. There is no need to add anything to this original form of the gospel, whether it be circumcision and following the things of the Law of Moses from the Scriptures, or the present-day tendency of obeying the rules, rituals, and practices of the sects and denominations. Neither of these make anyone righteous and acceptable in the eyes of God. Rather, by replacing righteousness by faith in the gospel with righteousness by works, it corrupts the gospel and goes against God’s Word. We had also seen that to the Christian Believers, coming into faith from the Gentiles, four things given in Acts 15:20, 29 had been forbidden. Though these are related to obeying the Ten Commandments, they are not the same as following the Law. By analyzing these things on the basis of the Word and interpreting them in their proper context, we had seen that the Ten Commandments had been given prior to the Law of Moses, they were not a part of the Ten Commandments, and even God had shown them to be different from the Law. Therefore, obeying the Ten Commandments is not the same as obeying the Law of Moses.


In the previous article, we had seen about the first of those four, i.e., the eating of meat of animals sacrificed to idols, from 1 Corinthians chapter 8 and learnt one reason for forbidding it. Today, in the same context, we will see some more things from 1 Corinthians chapter 10 about the eating the meat of animals sacrificed to idols, and understand further, why Christian Believers should not accept such things, should stay away from them. To understand the things we will see today, the readers are requested to please read from 1 Corinthians 10:14 till the end of the chapter.

 

In verse 14, the Holy Spirit through Paul clearly and categorically says to flee idolatry, which is obeying the first two of the Ten Commandments. From verse 15 he starts explaining to them the things observed by the Christian Believers, but in this verse, he also asks them to judge what he is saying to them. In verses 16-17, he calls the Believers participating in the bread and cup of the Holy Communion as communing with the blood and body of the Lord Jesus. Then, in verse 18 he explains a common practice in the worship of the Jews through a practical example, that those who eat of what was offered on the altar, become the partakers of the altar. Then by applying this practical thing to idolatry, he says that though by themselves the idols are not anything, but because of their being worshiped, evil spirits become associated with them, thereby through eating of things offered to idols, people commune with the evil spirits, i.e., become associated with the worship of demons. On this basis, he says in verses 20 and 21 that the Christian Believers cannot commune with demons, i.e., cannot be a part of their worship. Whoever does so, provokes the Lord to jealousy, implying that they should then be ready to suffer the consequences of provoking the Lord to jealousy. So, the two things that we have seen so far today about eating things offered or sacrificed to idols are that it makes the person a worshiper of idols, and provokes the Lord to jealousy; therefore the Christian Believers should stay away from them.


After this, on the basis of what he had said in chapter 8 about things related to idolatry, Paul explains that it is not simply a matter of being correct or incorrect. The Christian Believers must also pay attention to the effect it will have on others. Then, in verses 25-30, under the guidance of the Holy Spirit writes something very important. We have seen above that Paul says to stay away from things known to have been sacrificed to idols, they are not to be accepted or partaken from. Here, in these verses, to keep safe from becoming legalistic and dogmatic about them, and to prevent Satan from entangling people in arguments of being righteous-unrighteous by their works i.e., eating or not eating, Paul gives the way. Paul says that if nothing is known about what is being sold in the meat-market, or is being served as food, do not unnecessarily enquire about it; just accept it with prayer as any other food item, since God knows the facts about everything. But, if while serving food, the person serving it says that it has been offered to idols, then, because now the matter is out in the open, the reality is known, therefore it has now come into the same category as that of verses 14-22 above. Therefore, it should be dealt with in the same manner, and should be refused. Then in verses 31-33, Paul gives a very important instruction, that the Christian Believers, whether they eat, or drink, or whatever they do, it should be done for the glory of God. At the end of this chapter, Paul once again reminds them, and uses himself as an example to show that no Believer should ever be a reason for offending others, but should always be a reason of pleasing others, and the profit of many.


Having seen, understood, and learnt about the reasons why the leaders of the Church in Jerusalem forbade the eating the things offered or sacrificed to idols, in the next article we will see and learn from the Word of God why we should stay away from adultery.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well

मंगलवार, 19 नवंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 256

 

Click Here for the English Translation


व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 101


मसीही जीवन और व्यवस्था का पालन (6) 


व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों के इस अध्ययन में हमने पिछले लेखों में प्रेरितों 15 अध्याय से देखा है कि प्रभु यीशु में और कलवरी के क्रूस पर दिए गए उसके बलिदान तथा मृतकों में से पुनरुत्थान पर विश्वास करने से परमेश्वर के अनुग्रह से मिलने वाली पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार में किसी भी अन्य बात के जोड़े जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। किसी को भी परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी तथा उसे स्वीकार्य होने के लिए खतना करवाने या मूसा की व्यवस्था की बातों में से किसी भी बात का पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं है। चाहे वह मूसा की व्यवस्था हो, अथवा आज के समय में डिनॉमिनेशनों और मतों के नियमों, रीतियों, और परम्पराओं का पालन हो, इनमें से किसी के भी द्वारा धर्मी और परमेश्वर को स्वीकार्य बनने के प्रयास, विश्वास के स्थान पर कर्मों के द्वारा धर्मी बनने पर भरोसा रखने को दिखाते हैं, मूल सुसमाचार के विरुद्ध हैं, अस्वीकार्य हैं। साथ ही हमने देखा था कि यरूशलेम की कलीसिया के अगुवों ने, सभी मसीही विश्वासियों के पालन के लिए सुसमाचार से सम्बन्धित इस निर्णय को लेने के बाद, अन्यजातियों से मसीही विश्वास में आए लोगों के लिए यह तय किया था कि उन्हें मसीही विश्वास में आने से पूर्व के अपने जीवनों में से चार बातें, मूरतों की अशुद्धता (अर्थात मूरतों को बलि किए हुओं के मांस), व्यभिचार, गला घोंटे हुओं का माँस, और लहू को खाना, इनको छोड़ना होगा।

 

इन चार बातों को छोड़ने के निर्देश से यह आभास हुआ था कि एक तरह से यह उनसे व्यवस्था की कुछ बातों का पालन करवाने के समान है; जो फिर सुसमाचार और व्यवस्था के पालन के विषय लिए गए निर्णय में विरोधाभास को दिखाएगा। पिछले दो लेखों में हमने देखा और समझा है कि किस प्रकार से इन चार बातों को मना करने के निर्देश का पालन करना, परमेश्वर के वचन में किसी प्रकार के विरोधाभास को नहीं लाता है, क्योंकि इन चार बातों को मना करना मूसा के द्वारा दी गई व्यवस्था का भाग नहीं हैं; वरन व्यवस्था के दिए जाने से पहले परमेश्वर द्वारा दी जा चुकी थीं। साथ ही वचन के हवालों से हमने देखा था कि परमेश्वर द्वारा दी गई दस आज्ञाएँ भी व्यवस्था का भाग नहीं हैं, व्यवस्था के दिए जाने से पहले ये दस आज्ञाएँ अलग से दे दी गई थीं, और स्वयं परमेश्वर ने इन दस आज्ञाओं को व्यवस्था से अलग दिखाया है। इस पूरे विश्लेषण और निष्कर्ष ने हमारे सामने बाइबल की हर बात की सही समझ और व्याख्या के लिए, उसे उसके सही सन्दर्भ में, उससे सम्बन्धित बाइबल में दी गई अन्य बातों के साथ उसे मिलाकर देखने की अनिवार्यता को भी प्रकट किया। साथ ही हमारे सामने इस बात की भी पुष्टि हुई कि परमेश्वर के वचन में कोई त्रुटि अथवा विरोधाभास नहीं है; जो भी त्रुटि अथवा विरोधाभास प्रतीत होता है, वह अनुचित व्याख्या और गलत समझ के कारण होता है, और उसे वचन की अन्य बातों के साथ मिलाकर देख लेना चाहिए, वचन की बातों से उसे सही कर लेना चाहिए।


इस विश्लेषण के दौरान हमने देखा था कि इन चारों बातों का निषेध करना व्यवस्था का पालन करना नहीं, बल्कि परमेश्वर से भटके हुए अन्यजाति लोगों को मसीही विश्वास में आने से परमेश्वर के पास वापस लौट आने पर, परमेश्वर द्वारा व्यवस्था से पहले ही दी गई बातों के पालन की ओर लौटा लाना था। यहूदियों में से मसीही विश्वास में आए हुए लोग पहले से ही इन चारों बातों का पालन करते आ रहे थे; अब अन्यजातियों में से मसीही विश्वास में आए हुए लोगों को भी उन्हीं बातों का पालन करना था। इससे, सभी मसीही विश्वासी, वे चाहे यहूदियों में से हों अथवा अन्यजातियों में से, एक समान व्यावहारिक जीवन जीने वाले होंगे, उनमें किसी प्रकार की कोई भिन्नता नहीं रहेगी। इन चार बातों में से मूरतों की अशुद्धता (अर्थात मूरतों को बलि किए हुओं के मांस को खाना) की बात के लिए हमने देखा था कि यह बात ठीक इसी रूप में, इन्हीं शब्दों में दस आज्ञाओं अथवा व्यवस्था में नहीं लिखी है; किन्तु तात्पर्य और समझने के आधार पर दस में से पहली दो आज्ञाओं के उल्लंघन के समान है। जबकि शेष तीनों बातें दस आज्ञाओं अथवा व्यवस्था में भी दी गई हैं। और इसीलिए यहूदी इन चारों का पहले से पालन करते चले आ रहे थे।

 

मूरतों को बलि चढ़ाए हुए पशुओं के मांस को खाने से सम्बन्धित स्थिति को पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित के द्वारा कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों को लिखी पहली पत्री में समझाया है; कृपया 1 कुरिन्थियों 8 और 10 अध्याय को देखिए। उस समय के अन्यजातियों में यह प्रथा थी कि उनके उपासना के स्थानों में जो पशु देवी-देवताओं की मूर्तियों को बलि चढ़ाए जाते थे, उनके मांस को बाहर बाजार में लाकर बेचा जाता था। लोग उस बलि किए हुए पशु के मांस को दो प्रकार की समझ के साथ लेते और खाते थे। जो लोग उन देवी-देवताओं को मानते थे, वे उन्हें श्रद्धा और आदर देते हुए, उनकी कृपा और आशीष का पात्र बनने के लिए उसे खाते थे। जो उन देवी-देवताओं को नहीं मानते थे, वे उसे बाजार में बिकने वाले साधारण मांस के समान लेकर, बिना किसी धार्मिक भावना या अभिप्राय के उसे साधारण भोजन के समान खा लेते थे। कई मसीही विश्वासी भी इसी अधार्मिक दृष्टिकोण से उस मांस को लेकर साधारण भोजन के समान खा लेते थे। किन्तु इससे अन्यजातियों में से मसीही विश्वास में आने वाले नए विश्वासियों के लिए एक दुविधा उत्पन्न हो गई थी। उन नए विश्वासियों को लगता था कि उन देवी-देवताओं को बलि किए हुए पशुओं का मांस खाने से, ये मसीही विश्वासी उन देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धा और आदर व्यक्त कर रहे हैं। उनके लिए तात्पर्य यह कि केवल प्रभु यीशु मसीह ही परमेश्वर नहीं है, किन्तु वे देवी-देवता भी अस्तित्व रखते हैं, और उन्हें भी ईश्वर के समान आदर देना है। इससे नए मसीही विश्वासियों के विश्वास को भी ठोकर लग रही थी, उनके मनों में फिर से उन्हीं देवी देवताओं को आदर और श्रद्धा देने की भावना आ रही थी, जिन्हें छोड़कर वे मसीह यीशु की ओर मुड़े थे। ताकि उनको ठोकर न लगे, वे इस गलतफहमी में न पड़ें, 1 कुरिन्थियों 8 में इस विषय पर चर्चा करने के बाद, पौलुस ने लिखा “सो भाइयों का अपराध करने से ओर उन के निर्बल विवेक को चोट देने से तुम मसीह का अपराध करते हो। इस कारण यदि भोजन मेरे भाई को ठोकर खिलाए, तो मैं कभी किसी रीति से मांस न खाऊंगा, न हो कि मैं अपने भाई के ठोकर का कारण बनूं” (1 कुरिन्थियों 8:12-13)। अर्थात, यदि उसके मांस खाने से किसी को ठोकर लग रही थी, वह मसीही विश्वास में कमज़ोर पड़ रहा था, तो उसकी इस गलतफहमी के निवारण के लिए पौलुस कैसा भी मांस खाना ही छोड़ने को तैयार था।

 

इसके साथ ही बलि किए हुए पशुओं के मांस को खाने से सम्बन्धित एक समस्या और थी, जिसे हम पहले कह चुके हैं, कि यह दस में से पहली दो आज्ञाओं का उल्लंघन करना था। इसके बारे में हम अगले लेख में 1 कुरिन्थियों 10:14 से देखेंगे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************


English Translation


Things Related to Practical Christian Living – 101


Christian Living and Observing the Law (6)

 

In this study on things related to practical Christian living, in the previous articles we have seen from Acts chapter 15 that there is no need to add anything to the gospel of forgiveness of sins and salvation through the grace of God by coming into faith in the Lord Jesus, in His sacrifice on the Cross of Calvary and in His resurrection from the dead. No one needs to be circumcised or follow the Law to be righteous in God’s eyes and acceptable to Him. Whether it is the Law of Moses, or today, the following of the laws, rituals, and traditions of the sects and denominations; any attempts to be righteous and acceptable to God by following and fulfilling them, is to replace the righteousness by faith with the righteousness by works; it is contrary to the original gospel, and is unacceptable. We had also seen that the leaders of the Church in Jerusalem, after taking this decision related to the gospel, for all the Christian Believers, had after that instructed the Believers who had come into the Christian faith from the Gentiles, that they should put away four things that they had been doing before coming into the Christin faith; these were things polluted by idols (things offered to idols), sexual immorality, things strangled, and eating blood.


Because of the instruction to stop doing these four things, an impression was created that it was like asking them to obey the Law; which then is in contradiction to the decision taken to not go for following the Law in relation to the gospel. In the last two articles we have seen and understood how the forbidding of following these four practices does not bring any contradiction in God’s Word, since these instructions are not a part of the Law of Moses, but had been given before the Law was given through Moses. We had also seen through the references from the Word, that the Ten Commandments given by God are also not a part of the Law; the Ten Commandments had been given separately and before the giving of the Law, and God Himself had shown the Ten Commandments to be separate from the Law. This analysis and conclusion had brought before us the necessity that to come to a correct understanding and interpretation of the things of the Bible, they must be understood and interpreted in their correct context, and along with the other related things given at other places in the Bible. It also confirmed to us the fact that there is no error or contradiction in God’s Word. Any apparent error or contradiction, is because of having an incorrect understanding and misinterpretation. It should be seen along with other related things given in the Bible, and corrected with their help.


During the analysis of these things, we had seen that the instructions forbidding these four things did not imply following the Law; rather, it was asking the Gentiles who had gone astray from God, but now through coming into the Christian faith had been reconciled with God, they should also return to following God’s instructions given prior to giving the Law. The Jews had already been following these four things; now the Gentiles too, who were coming into the Christian faith had to follow the same. By this, all the Christian Believers, whether from the Jews or the Gentiles, will start living a similar practical Christian life, there will be no difference between them. From these four things, we had seen concerning the things polluted by idols (eating of things offered to idols), that this has not been written in these words or this form in either the Ten Commandments, or the Law; but on understanding the implication it is evident that it violates the first two of the Ten Commandments. Whereas the other three things have also been mentioned in either the Law of the Ten Commandments. That is why the Jews had been observing them beforehand.


The situation arising from the eating of the meat of animals sacrificed to idols has been clarified by the Holy Spirit through the Apostle Paul in his first letter written to the Christian Believers in Corinth; please see 1 Corinthians chapters 8 and 10. It was the practice amongst the Gentiles at that time that animals that were sacrificed to the idols of gods and goddesses in their places of worship, their meat was brought out into the market to be sold for eating. People partook of the meat of those sacrificed animals with two perspectives. Those who believed in those gods and goddesses, they ate the meat in reverence and honor towards those deities, to receive their blessings. Those who did not believe in those deities, they considered it as any ordinary meat sold in the market, and ate it without any religious considerations, as an ordinary food item. Many Christian Believers also ate that meat without giving it any religious significance. But this had created a confusion amongst the new Christian Believers coming into the Christian faith. Those Believers felt that by eating the meat of the animals sacrificed to the gods and goddesses, the Christian Believers were expressing reverence and honor towards those deities. To them the implication was that Lord Jesus is not the only God, but those deities also had a divine existence, and they should also be given the honor due to a deity. This was also placing a stumbling block before these new Believers, and in their hearts the feelings of giving reverence to the deities they had left and turned to Christ Jesus, had started to come up once again. So that they would not stumble and not fall into any misunderstanding, after discussing the matter in 1 Corinthians 8, Paul wrote “But when you thus sin against the brethren, and wound their weak conscience, you sin against Christ. Therefore, if food makes my brother stumble, I will never again eat meat, lest I make my brother stumble” (1 Corinthians 8:12-13). In other words, if his eating meat was making anyone stumble, making them weak in their Christian faith, then to correct the misunderstanding, Paul was willing to give up eating meat altogether.


Along with this, there was another problem associated with eating the meat of sacrificed animals, which we have mentioned earlier, that it was against the first two of the Ten Commandments. We will see about this in the next article from 1 Corinthians 10:14 onwards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well

सोमवार, 18 नवंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 255

 

Click Here for the English Translation


व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 100


मसीही जीवन और व्यवस्था का पालन (5) 


व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों पर अध्ययन करते हुए, अभी हम प्रेरितों 15 अध्याय में दी गई बातों पर विचार कर रहे हैं। पिछले लेखों में हमने देखा है कि प्रभु यीशु में विश्वास द्वारा परमेश्वर के अनुग्रह से पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार के मूल स्वरूप में किसी भी प्रकार की कोई भी मिलावट, कोई भी बात जोड़ना कतई स्वीकार्य नहीं है; चाहे वह बात पवित्र शास्त्र में से ही क्यों न ली गई हो। इस सन्दर्भ में हमने देखा था कि आरम्भिक कलीसिया और आरम्भिक मसीही विश्वासियों के समय से ही शैतान ने सुसमाचार में मिलावट करके उसे भ्रष्ट करने, उसमें कर्मों के द्वारा धर्मी बनने की बात को भी डालने के प्रयास किए। उस समय शैतान ने विश्वास के साथ खतना करवाने और मूसा द्वारा दी गई व्यवस्था का पालन करने की आवश्यकता को लोगों में बैठाने का प्रयास किया। यरूशलेम में कलीसिया के अगुवों ने इस विषय पर चर्चा की, और पवित्र आत्मा की अगुवाई में निर्णय लिया कि पापों की क्षमा और उद्धार के लिए प्रभु यीशु में विश्वास के साथ खतना करवाने या मूसा की व्यवस्था का पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं है; और यह बात सभी कलीसियाओं और विश्वासियों में बता दी गई। किन्तु आज भी शैतान की यही चाल लगभग सभी डिनॉमिनेशनों और मतों में प्रचलित है। फर्क केवल इतना है कि आज मूसा की व्यवस्था के स्थान पर डिनॉमिनेशन या मत के नियमों, रीतियों, और परम्पराओं का पालन करने की अनिवार्यता पर बल दिया जाता है, उसे लागू करवाया जाता है। और कलीसियाओं तथा मतों के लोगों में यह भ्रम बैठा हुआ है कि क्योंकि वे अपनी डिनॉमिनेशन के नियमों, रीतियों, और परम्पराओं का पालन करते हैं, इसलिए वे उद्धार पाए हुए हैं; जो कि सर्वथा गलत है, असंख्य लोगों को अनन्त विनाश में ले जाने का कारण है। साथ ही कई मसीही विश्वासी भी अब भ्रामक शिक्षाओं में पड़कर, परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और स्वीकार्य होने के लिए फिर से व्यवस्था की बातों के पालन करने पर ओर देने लग गए हैं, जो कि कर्मों के द्वारा धर्मी बनने का ही एक स्वरूप है, सुसमाचार के विरुद्ध है, अस्वीकार्य है।

 

सुसमाचार में व्यवस्था पालन को जोड़ने को वर्जित करने के बाद, यरूशलेम के अगुवों ने अन्य जातियों में से मसीही विश्वास में आए लोगों के सन्दर्भ में एक निर्णय और लिया, तथा सभी में पहुँचाया। यह था कि इन विश्वासियों को अपने पुराने जीवन की चार बातों, मूरतों की अशुद्धता (अर्थात मूरतों को बलि किए हुओं के मांस), व्यभिचार, गला घोंटे हुओं का माँस, और लहू को खाना को छोड़ना होगा। इस पर चर्चा करते हुए हमने देखा कि यह हमारे सामने प्रश्न रखता है कि एक ओर तो मसीही विश्वास के जीवन में व्यवस्था पालन की अनिवार्यता को मना किया जा रहा है; किन्तु साथ ही ऐसी बातों के करने के लिए भी निर्देश गए हैं, जो व्यवस्था की बातों का पालन करने का आभास देते हैं। इस प्रतीत होने वाले विरोधाभास पर विचार करते हुए, हमने पिछले लेख में देखा था कि आम धारणा के विरुद्ध, क्यों लहू का, और लहू के साथ मांस का खाना व्यवस्था कि बात नहीं है। वरन, यह व्यवस्था के दिए जाने से बहुत पहले, नूह के समय में, परमेश्वर द्वारा दी गई आज्ञा है, जिसे व्यवस्था में दोहराया गया है। जो अन्यजातियों से मसीही विश्वास में आने के द्वारा परमेश्वर के पास वापस लौट आए हैं, उन्हें फिर से उसी मूल निर्देश का पालन करने के लिए कहा गया है। आज हम इसी सन्दर्भ में मूरतों की अशुद्धता और व्यभिचार के बारे में इसी दृष्टिकोण से देखेंगे, कि क्या इन्हें मना करना व्यवस्था पालन से सम्बन्धित है कि नहीं।

 

मूरतों की अशुद्धता, अर्थात मूरतों को बलि किए हुओं के मांस का खाना यद्यपि व्यवस्था में सीधी रीति से निषेध नहीं किया गया है। किन्तु क्योंकि यह यहोवा परमेश्वर को छोड़ किसी और की उपासना करने तथा मूर्तियों की देवी-देवताओं के समान उपासना करने के साथ संलग्न है, इसलिए यह दस में से पहली दो आज्ञाओं का उल्लंघन है। इसी तरह से व्यभिचार भी उन दस में से सातवीं आज्ञा का उल्लंघन है। इसलिए, अन्यजातियों में से परमेश्वर की ओर लौटने वालों के लिए, परमेश्वर की मूल आज्ञाओं का पालन करना, और इन बातों से अलग होना भी आवश्यक है। किन्तु हमारे सामने प्रश्न यह है कि क्या यह व्यवस्था का पालन नहीं है? यह प्रश्न इसलिए सामने आता है क्योंकि आम समझ और धारणा यही है कि दस आज्ञाएँ मूसा द्वारा दी गई व्यवस्था का एक भाग हैं। किन्तु यदि हम निर्गमन की पुस्तक में दिए गए और व्यवस्थाविवरण की पुस्तक में स्मरण करवाने के लिए दोहराए क्रम को देखते हैं, तो यह प्रकट हो जाता है कि परमेश्वर ने दस आज्ञाएँ पहले और अलग से दी थीं, और वे विधियाँ, पर्व, भेंट, बलिदान, नियम, आदि जिन्हें सामूहिक रीति से “मूसा की व्यवस्था” कहा जाता है, उन्हें अलग से और बाद में दिया था।


निर्गमन 19 अध्याय में हम देखते हैं कि मिस्र से निकलकर और लाल समुद्र को पार करने के बाद, इस्राएलियों ने सीनै के जंगल में, सीनै पर्वत के नीचे डेरे डाले (निर्गमन 19:1-2), और परमेश्वर के साथ वाचा बांधी कि वे उसकी हर बात का पालन करेंगे (निर्गमन 19:8)। अब यहाँ पर 9 पद पर ध्यान कीजिए; तब यहोवा ने मूसा से कहा कि वह लोगों को तैयार होने के लिए कहे, जिससे जब परमेश्वर मूसा से बातें करे, तो वे लोग उन बातों को सुनें; और शेष अध्याय लोगों की इसी तैयारी और परमेश्वर की बात सुनने से सम्बन्धित है। फिर 20 अध्याय इस वाक्य के साथ आरम्भ होता है “तब परमेश्वर ने ये सब वचन कहे” (निर्गमन 20:1); साथ ही इसी वृतान्त को व्यवस्थाविवरण 5 अध्याय से भी देखिए। निर्गमन 20:1-17 परमेश्वर द्वारा बोली गई दस आज्ञाएँ हैं। इस्राएलियों ने उन बातों को, उन दस आज्ञाओं को सुना, वे बहुत डर गए, और जब मूसा उनके पास नीचे आया तो उन्होंने उससे कहा कि उनमें परमेश्वर की वाणी सुनने की हिम्मत नहीं है, इसलिए मूसा ही सुनकर उन्हें आकर बताया करे (निर्गमन 20:18-22; व्यवस्थाविवरण 5:23-27)। यह दस आज्ञाओं का पहली बार दिया जाना था, जो मौखिक था, और इससे अधिक और कुछ न कहा, अर्थात, व्यवस्था की अन्य कोई विधि या रीति इसके साथ नहीं दी गई थी (व्यवस्थाविवरण 5:22)। पद निर्गमन 20:20 बताता है कि यह परमेश्वर द्वारा उनकी परीक्षा, और उनके मनों में उसके भय को स्थापित करने के लिए था। इसके बाद की बात के लिए, और हमारे प्रश्न के उत्तर को समझने के लिए व्यवस्थाविवरण 5:30-31 बहुत महत्वपूर्ण पद हैं। इन दो पदों में हम देखते हैं कि परमेश्वर ने पहले तो मूसा के अतिरिक्त सभी इस्राएलियों को उनके डेरों में वापस भेजा, लेकिन मूसा से कहा कि वह वहीं परमेश्वर के सम्मुख खड़ा रहे। और तब परमेश्वर ने मूसा से इन दस आज्ञाओं के अतिरिक्त अपनी व्यवस्था इस्राएलियों को सिखाने के लिए उसे देने की बात की “इसलिये तू जा कर उन से कह दे, कि अपने अपने डेरों को लौट जाओ। परन्तु तू यहीं मेरे पास खड़ा रह, और मैं वे सारी आज्ञाएं और विधियां और नियम जिन्हें तुझे उन को सिखाना होगा तुझ से कहूंगा, जिस से वे उन्हें उस देश में जिसका अधिकार मैं उन्हें देने पर हूं मानें” (व्यवस्थाविवरण 5:30-31)।

 

इसके बाद फिर हम निर्गमन 24:12 में देखते हैं कि परमेश्वर ने मूसा को अपने पास बुलाया, कि वह उसे आज्ञा लिख कर और व्यवस्था दे “तब यहोवा ने मूसा से कहा, पहाड़ पर मेरे पास चढ़, और वहां रह; और मैं तुझे पत्थर की पटियाएं, और अपनी लिखी हुई व्यवस्था और आज्ञा दूंगा, कि तू उन को सिखाए” (निर्गमन 24:12)। अर्थात हम स्पष्ट देखते हैं कि परमेश्वर ने व्यवस्था और उन दस आज्ञाओं में भिन्नता की। मूसा चालीस दिन और रात पर्वत पर परमेश्वर के साथ रहा (निर्गमन 24:18) और परमेश्वर उसे अपनी व्यवस्था और मिलाप वाले तम्बू तथा अन्य सम्बन्धित बातों को सिखाता रहा। जब लोगों ने देखा कि मूसा के आने में विलम्ब हो रहा है तो उन्होंने हारून से कहकर एक बछड़ा बनाया और उसकी उपासना करने लगे (निर्गमन 32:1-8)। परमेश्वर ने मूसा को पर्वत से नीचे इस्राएलियों के पास भेजा, और वह साक्षी की दोनों तख्तियों को लिए हुए नीचे उतर आया, लेकिन इस्राएलियों की हालत और व्यवहार को देखकर वह क्रोधित हुआ और उन दोनों तख्तियों को पटक कर तोड़ डाला (निर्गमन 32:15-20)। इसके बाद निर्गमन 34:1 में परमेश्वर ने मूसा को फिर से अपने पास पत्थर की दो तख्तियों के साथ बुलाया, और परमेश्वर ने उससे कहा कि उन तख्तियों पर वह फिर से वही वचन लिखेगा जो उसने पहली तख्तियों पर लिखे थे “फिर यहोवा ने मूसा से कहा, पहिली तख्तियों के समान पत्थर की दो और तख्तियां गढ़ ले; तब जो वचन उन पहिली तख्तियों पर लिखे थे, जिन्हें तू ने तोड़ डाला, वे ही वचन मैं उन तख्तियों पर भी लिखूंगा” (निर्गमन 34:1)। हम व्यवस्थाविवरण 9:10; 10:4 से देखते हैं कि परमेश्वर ने उन तख्तियों पर वे दस आज्ञाएँ लिखी थीं जो उसने होरेब पर्वत पर से, निर्गमन 20:1-17 में, इस्राएलियों से बोली थीं; और जब दोबारा मूसा को परमेश्वर ने फिर से अपने पास बुलाया तो जो तख्तियाँ मूसा साथ लेकर गया था, उन तख्तियों पर भी वही दस आज्ञाएँ परमेश्वर ने फिर से लिख कर दे दीं, और उन तख्तियों को बाद में वाचा के सन्दूक में रख दिया गया (व्यवस्थाविवरण 5:22; 10:5; इब्रानियों 9:4)।

 

ये दस आज्ञाएँ वास्तव में परमेश्वर की सभी आज्ञाओं और निर्देशों का सार, उनका संक्षिप्त रूप हैं; इसलिए ये परमेश्वर की उस व्यवस्था का प्रारूप तो हैं जिन्हें बाद में परमेश्वर ने मूसा को विस्तार से दिया; किन्तु अपने आप में ये वह “मूसा की व्यवस्था” नहीं हैं, जिसके सन्दर्भ में हम बात कर रहे हैं, और जिसके पालन के विषय यह प्रश्न उठा है। यहाँ पर शब्द “व्यवस्था” के बारे में एक अन्य बात का भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि वचन में कुछ स्थानों पर इस शब्द को मूसा द्वारा लिखी बाइबल की पहली पाँच पुस्तकों के लिए (1 राजाओं 2:3; मत्ती 5:17; लूका 16:16; गलतियों 3:10), या उस व्यवस्था की किसी एक विधि के लिए (लैव्यव्यवस्था 7:7), कभी पुराने नियम की किसी पुस्तक के लिए (यूहन्ना 10:34 और भजन 82:6; 1 कुरिन्थियों 14:21 और यशायाह 28:11), कभी सम्पूर्ण पुराने नियम के लिए (भजन 19:7; यूहन्ना 12:34), कभी दस आज्ञाओं के सन्दर्भ में (याकूब 2:11), कभी मसीही विश्वास के निर्वाह (रोमियों 3:27), कभी मसीही विश्वास से सम्बन्धित व्यक्तिगत व्यवहार (रोमियों 7:23) के लिए भी प्रयोग किया गया है। तात्पर्य यह कि शब्द “व्यवस्था” को केवल “मूसा की व्यवस्था” नहीं समझा जाना चाहिए, वरन सन्दर्भ तथा इस शब्द के प्रयोग के अनुसार उसके अर्थ को देखना, समझना, और व्याख्या करनी चाहिए।

  

इस संक्षिप्त समीक्षा से हम परमेश्वर के वचन के आधार पर देखते हैं कि दस आज्ञाएँ परमेश्वर की व्यवस्था से पहले दी गई थीं, मूसा की व्यवस्था का भाग नहीं थीं, और मूसा की व्यवस्था परमेश्वर द्वारा दस आज्ञाओं को देने के बाद दी गई थी। क्योंकि पहली बार कही गई, फिर दूसरी बार तख्तियों पर लिख कर दी गई ये दस आज्ञाएँ तख्तियों के तोड़ दिए जाने कारण, जब तीसरी बार मूसा को दी गईं, तब वह उन्हें परमेश्वर द्वारा दी गई व्यवस्था की बातों के साथ लेकर आया था (निर्गमन 34:29; व्यवस्थाविवरण 10:5), इसलिए लोगों में यह आम गलतफहमी है कि दस आज्ञाएँ भी व्यवस्था का एक भाग हैं। किन्तु जैसा हमने सम्बन्धित बातों को क्रमवार देखने से पाया है, दस आज्ञाएँ व्यवस्था की विधियों से भिन्न और उनसे पहले कही तथा दी गई आज्ञाएँ हैं। इसलिए प्रेरितों 15:20, 29 की चार बातों के सन्दर्भ में यरूशलेम के अगुवों द्वारा दी गई आज्ञाएँ, उस “मूसा की व्यवस्था” का पालन नहीं है जिसके बारे में प्रेरितों 15 में चर्चा की गई, तथा जिस व्यवस्था को कुछ लोग लागू करवाना चाहते थे, और जिस व्यवस्था के सन्दर्भ में विरोधाभास से सम्बन्धित यह प्रश्न है।

 

इसलिए अन्यजाति विश्वासियों को मूर्तिपूजा और सम्बन्धित बातों, व्यभिचार, लहू के और लहू के साथ मांस को खाने से दूर रहने के जो निर्देश दिए गए, उनके लिए यह नहीं कहा जा सकता है कि वे मूसा की व्यवस्था का पालन करने की आज्ञा देने के समान थे। इससे एक बार फिर यह स्पष्ट हो जाता है कि परमेश्वर के वचन में त्रुटि अथवा विरोधाभास नहीं है; आवश्यकता उसे उसके सही स्वरूप में और सही सन्दर्भ में, अन्य स्थानों पर दी गई सम्बन्धित बातों के साथ देखने तथा समझने की है।


अगले लेख में हम यहाँ से आगे देखेंगे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************


English Translation


Things Related to Practical Christian Living – 100


Christian Living and Observing the Law (5)

 

While studying the things related to practical Christian living, presently we are considering the things given in Acts chapter 15. We have seen in the preceding articles that addition or mixing of anything to the gospel of forgiveness of sins and salvation by the grace of God through faith in the Lord Jesus is absolutely unacceptable; even though the thing being added or mixed may have been taken from the Scriptures. We had seen in this context that from the time of the initial Church and the initial Christian Believers, Satan had begun to corrupt the gospel by mixing being righteous by works into it. At that time Satan tried to add the necessity of circumcision and of obeying the Law of Moses into it. The Church leaders in Jerusalem discussed the matter, and under the guidance of the Holy Spirit came to the decision that for the forgiveness of sins and salvation, other than faith in the Lord Jesus, there is no need for circumcision or following the Law of Moses; and this was spread amongst all the churches and the Christian Believers. But even today this devious concept is still prevalent amongst nearly all the denominations and sects. The only difference is that instead of following the Law of Moses, now the emphasis is on following the rules, rituals, and traditions of the denominations and the sects, and this is enforced on the members. Moreover, there is this misconception amongst the people of denominations and sects that since they are obeying the rules, rituals, and traditions of their sect or denomination, therefore, they are saved; which is totally wrong and countless people are going into eternal destruction because of this. Also, many Christian Believers, because of falling for deceptive teachings, have started to teach and follow the Law of Moses for being righteous in God’s eyes and being acceptable to Him; which is another form of being righteous by works, is contrary to the gospel, and is unacceptable.


After forbidding the adding of following the Law of Moses to the gospel, the Jerusalem Church leaders took another decision related to those who had come into the Christian faith from the Gentiles, and this too was spread amongst all. The decision was that these Believers must give up on four things that they had been doing before salvation. These were things polluted by idols (things offered to idols), from sexual immorality, from things strangled, and from eating blood. While considering these we had seen that this places a question before us that on the one hand the following of the Law of Moses is being forbidden for practical Christian living; on the other, instructions are being given which seem to suggest the observance of the Law. While considering this apparent contradiction, we had seen why, contrary to the common misconception, the forbidding of eating of blood and meat with blood is not following the Law. Rather, it is something that had been given by God much before the giving of the Law, during Noah’s time, and was repeated in the Law. Those Gentiles who had returned to God through coming into Christian faith, they were now being instructed to follow that original instruction given by God. Today, in the same context, we will consider about the pollution of idols and adultery from the same perspective, and see whether forbidding them is related to following the Law.


The pollution of idols, i.e., the eating of meat of animals sacrificed to idols, although is not forbidden directly and in these very words in the Law. But since it is related to the worship of something other than of Jehovah God and with the worship of idols as gods and goddesses, therefore, it is disobeying the first two of the Ten Commandments. Similarly, adultery is the disobeying of the seventh of the Ten Commandments. Therefore, for those Gentiles who had returned to God, it was necessary that they follow the original instructions given by God, and separate themselves from these things. But the question this has put before us is that is this not following the Law? This question has come up since the common understanding is that the Ten Commandments are a part of the Law of Moses. But if we look at the sequence of events given in the book of Exodus, which have been repeated for remembrance in the book of Deuteronomy, then it becomes evident that God had given the Ten Commandments first, and separately. Those practices, feasts, sacrifices, rules and regulations, etc. which are collectively known as “The Law of Moses” were given later and separately by God.


In Exodus chapter 19 we see that after coming out of Egypt and having crossed the Red Sea, the Israelites came to the wilderness of Sinai and camped there at the base of mount Sinai (Exodus 19:1-2), and they entered into a covenant with God that they will do whatever God asks them to do (Exodus 19:8). Now, pay attention to verse 9 over here; God then told Moses to ask the people to prepare themselves, so that when God speaks to Moses, then they should hear what He says; and the rest of the chapter is about how they were to prepare themselves. Then chapter 20 begins with the words “And God spoke all these words, saying” (Exodus 20:1); please see this narrative from Deuteronomy 5 also. Exodus 20:1-17 are the Ten Commandments spoken by God. The Israelites heard the Ten Commandments, were very afraid, and when Moses came down to them, they told him that they did not have the courage to listen to God, therefore Moses should go and listen to God, and then come and tell them what God had to say (Exodus 20:18-22; Deuteronomy 5:23-27). This was the first giving of the Ten Commandments, and nothing more was added to them, i.e., nothing else related to the Law was said or given along with this (Deuteronomy 5:22). The verse Exodus 20:20 tells us that God did this to test them and to establish His fear in their hearts. To understand what happened next and to understand the answer to our question, Deuteronomy 5:30-31 are very important verse for us. We see written in these verses that first God asked except for Moses, all the Israelites to go back to their tents, but He asked Moses to stay behind and stand by Him. It was then that God told Moses that, besides the Ten Commandments, He would also give him the Law so that he would teach it to the Israelites “Go and say to them, "Return to your tents." But as for you, stand here by Me, and I will speak to you all the commandments, the statutes, and the judgments which you shall teach them, that they may observe them in the land which I am giving them to possess” (Deuteronomy 5:30-31).


After this, we see from Exodus 24:12 that God asked Moses to come up to Him so that He would write the Ten Commandments and give him the Law “Then the Lord said to Moses, "Come up to Me on the mountain and be there; and I will give you tablets of stone, and the law and commandments which I have written, that you may teach them."” (Exodus 24:12). In other words, we see clearly that God differentiated between the Ten Commandments and the Law. Moses stayed with God for forty days and nights (Exodus 24:18), and God kept teaching him about the Law and the Tabernacle. When the people saw that Moses’s coming was delayed, they made Aaron make a golden calf for them, and started to worship it (Exodus 32:1-8). God sent Moses down from the mountain to the Israelites, and he came down with the two tablets of the Testimony, but on seeing the condition and behavior of the Israelites, he became very angry, and cast the two tablets down, breaking them (Exodus 32:15-20). After this, God called Moses to come to him with two tablets of stone (Exodus 34:1), and told him that He will once again write on those tablets the same words that he had first written on the tablets which he broke “And the Lord said to Moses, "Cut two tablets of stone like the first ones, and I will write on these tablets the words that were on the first tablets which you broke” (Exodus 34:1). We see from Deuteronomy 9:10; 10:4 that God wrote on those tablets the same Ten Commandments which He had spoken to the Israelites in Exodus 20:1-17 from Mount Horeb. Now, when God had again called Moses to Him along with two stone tablets, then on those tablets also He wrote the same Ten Commandments, and those tablets were placed in the Ark of the Covenant (Deuteronomy 5:22; Hebrews 9:4).


These Ten Commandments are the distillation, the concise form of all the commandments and instructions of God; therefore, although they are the antecedent of the Law which God gave later in detail to Moses; but as such, they are not the “Law of Moses” in context of which we are seeing here, and about which the question had come up before us. There is another thing that needs to be seen, understood, and kept in mind about the word “law.” In God’s Word, this word “law” has been used in various ways; at some places it is used for the first five books of the Bible written by Moses (1 Kings 2:3; Matthew 5:17; Luke 16:16; Galatians 3:10), or for some ritual given in the Law (Leviticus 7:7); sometimes it is used for some book of the Old Testament (John 10:34 and Psalm 82:6; 1 Corinthians 14:21 and Isaiah 28:11); at times it is used for the whole of the Old Testament (Psalm 19:7; John 12:34), at times in relation to the Ten Commandments (James 211), sometime regarding living by the Christian faith (Romans 3:27), at others for the personal behavior related to Christian faith (Romans 7:23). The thing to be understood is that the word “law” has not always been used for the “Law of Moses” therefore, it should always be seen and understood in its context and then interpreted accordingly.


From this brief review, on the basis of God’s Word we see that the Ten Commandments had been given before the Law, and they are not a part of the Law of Moses, which was given by God later, after giving the Ten Commandments. The first time they were spoken, then the second time they were written on tablets and the tablets of the Ten Commandments were broken, therefore the third time when they were given by God, Moses brought them along with the Law (Exodus 34:29; Deuteronomy 10:5), therefore there is this common misconception amongst people that the Ten Commandments are a part of the Law of Moses. But as we have seen by sequentially looking at the related things, the Ten Commandments are separate from the Law, having been given before the Law. Therefore, in context of the four things said in Acts 15:20, 29, the instructions given by the leaders in the Church at Jerusalem, are not instructions to follow the “Law of Moses” which some people wanted to be added to the gospel and was discussed in Jerusalem, in Acts 15; and so, there is no contradiction here about not associating the Law with the gospel and in the giving of these instructions.


Therefore, the instructions given to the Gentile Believers related to idolatry, adultery, eating blood and meat with blood, cannot be said to be instructions as for following the Law. This once again makes it clear that there is no contradiction or error in the Bible; the necessity is of seeing things in their correct form, in their correct context, along with things given at other places in the Bible, then understanding and interpreting it accordingly.


In the next article we will see ahead from here.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


 

Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well