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बाइबल और सृष्टि
पिछले लेख में हमने देखा था कि सृष्टि अपने सृष्टिकर्ता के विरुद्ध गवाही नहीं देगी, उसका इनकार नहीं करेगी। आज हम परमेश्वर के वचन से इस कथन की पुष्टि को देखेंगे। परमेश्वर के वचन बाइबल में लिखा है:
भजन 19:1-3 — “आकाश ईश्वर की महिमा वर्णन कर रहा है; और आकाशमण्डल उसकी हस्तकला को प्रगट कर रहा है। दिन से दिन बातें करता है, और रात को रात ज्ञान सिखाती है। न तो कोई बोली है और न कोई भाषा जहां उनका शब्द सुनाई नहीं देता है।”
यिर्मयाह 10:12 — “उसी [परमेश्वर] ने पृथ्वी को अपनी सामर्थ्य से बनाया, उसने जगत को अपनी बुद्धि से स्थिर किया, और आकाश को अपनी प्रवीणता से तान दिया है।”
रोमियों 1:20 "क्योंकि उस [परमेश्वर] के अनदेखे गुण, अर्थात उस की सनातन सामर्थ्य, और परमेश्वरत्व जगत की सृष्टि के समय से उसके कामों के द्वारा देखने में आते है, यहां तक कि वे निरुत्तर हैं।"
साथ ही हमने इस पर भी ध्यान किया था कि बाइबल वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लिखी गई पुस्तक नहीं है, और इसकी विभिन्न पुस्तकें, जब अपने-अपने समय में लिखी गई थीं, तो साधारण सामान्य लोगों के पढ़ने, सुनने और समझने के लिए लिखी गई थीं, जिनमें से अधिकांश अशिक्षित या बहुत कम शिक्षा-प्राप्त होते थे; तथा विज्ञान जैसा आज है, वैसा उस समय नहीं था। इसलिए, बाइबल में विज्ञान की बातें, न तो वैज्ञानिक शब्दावली में दी गई हैं, और न ही किसी वैज्ञानिक व्याख्या अथवा चर्चा के समान दी गई हैं। वरन उन शिक्षाओं और चर्चाओं में जो उन पुस्तकों में है, ये बातें सामान्य साधारण भाषा में सम्मिलित की गई हैं। आज हम सृष्टि से संबंधित कुछ बातों को देखेंगे, जो बाइबल की पुस्तकों में तो हजारों वर्षों से विद्यमान हैं, किन्तु विज्ञान और वैज्ञानिकों ने उन्हें कुछ सदियों अथवा दशकों पहले जाना है। सृष्टि से संबंधित कुछ वैज्ञानिक तथ्यों को देखते हैं जो बाइबल की पुस्तकों में पहले से विद्यमान हैं:
सृष्टि की हर चीज अति-सूक्ष्म कणों से बनी है जो आँखों से नहीं देखे जा सकते हैं, अनदेखे हैं: - इब्रानियों 11:3 "विश्वास ही से हम जान जाते हैं, कि सारी सृष्टि की रचना परमेश्वर के वचन के द्वारा हुई है। यह नहीं, कि जो कुछ देखने में आता है, वह देखी हुई वस्तुओं से बना हो।"
सृष्टि का एक समय पर आरंभ हुआ है: बीसवीं सदी के आरंभ में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एल्बर्ट आईनस्टाईन के कार्यों के बाद से विज्ञान ने यह स्वीकार करना आरंभ किया कि सृष्टि का किसी समय पर आरंभ हुआ था; जबकि उससे पहले अधिकांश लोग यही मानते थे कि सृष्टि अनन्त काल से चली आ रही है। जबकि बाइबल के पहले ही पद में इस 'आरंभ' को बताया गया है: उत्पत्ति 1:1 "आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की।" और , इब्रानियों 1:10 "और यह कि, हे प्रभु, आदि में तू ने पृथ्वी की नेव डाली, और स्वर्ग तेरे हाथों की कारीगरी है।"
विज्ञान इस सृष्टि को चार बातों के अंतर्गत व्यक्त करता है – समय (Time), स्थान (Space), पदार्थ (Matter), और ऊर्जा (Energy): सारी सृष्टि इन्हीं चार बातों से संबंधित नियमों तथा कार्यों और इनके परस्पर सामंजस्य तथा व्यवहार के द्वारा कार्य कर रही है। बाइबल के पहले तीन पद, सृष्टि के साथ इन चारों बातों को बताते हैं: उत्पत्ति 1:1-3 “आदि [समय/Time] में परमेश्वर ने आकाश [स्थान/Space] और पृथ्वी [पदार्थ/Matter] की सृष्टि की। और पृथ्वी बेडौल और सुनसान पड़ी थी; और गहरे जल के ऊपर अन्धियारा था: तथा परमेश्वर का आत्मा जल के ऊपर मण्डलाता था। तब परमेश्वर ने कहा, उजियाला [रौश्नी – ऊर्जा/Energy] हो: तो उजियाला हो गया।”
थर्मोडायनमिक्स का प्रथम नियम स्थापित किया गया: समस्त सृष्टि में विद्यमान ऊर्जा और पदार्थ के व्यवहार की व्याख्या करने वाले थर्मोडायनमिक्स के तीन सिद्धांत हैं। इनमें से प्रथम सिद्धांत कहता है कि समस्त सृष्टि में विद्यमान कुल ऊर्जा और पदार्थ की मात्रा स्थाई है – ऊर्जा और मात्रा परस्पर परिवर्तित हो सकते हैं, किन्तु उनका कुल योग बढ़ या घट नहीं सकता है। बाइबल की पहली पुस्तक में ही लिख दिया गया था कि परमेश्वर ने सृष्टि की रचना की समाप्ति भी की; और उस समाप्ति के बाद उसमें फिर कभी और कुछ बढ़ाया या घटाया नहीं गया है: उत्पत्ति 2:1-2 “यों आकाश और पृथ्वी और उनकी सारी सेना का बनाना समाप्त हो गया। और परमेश्वर ने अपना काम जिसे वह करता था सातवें दिन समाप्त किया। और उसने अपने किए हुए सारे काम से सातवें दिन विश्राम किया।” इसके बाद से सृष्टि का सारा कार्य उसी प्रथम रचना के समय में सृजे गए पदार्थ (Matter) और ऊर्जा (Energy) के माध्यम से ही हो रहा है।
थर्मोडायनमिक्स का द्वितीय नियम स्थापित किया गया: थर्मोडायनमिक्स का द्वितीय नियम है कि सृष्टि की हर वस्तु क्षय होती जा रही है, नष्ट हो रही है, निरंतर घटती, और अव्यवस्थित होती जा रही है (Entropy – deteriorating or running down)। पहले लोगों का मानना था कि सृष्टि अपरिवर्तनीय है। किन्तु अब विज्ञान ने पहचाना है कि ऐसा नहीं है, सारी सृष्टि की हर वस्तु इस दूसरे नियम के अनुसार क्षय होती चली जा रही है। Evolution या क्रमिक विकासवाद इस दूसरे नियम के विरुद्ध है, क्योंकि उसके अनुसार विकासवाद में जीव-जन्तु सुधरते और उन्नत होते चले गए, और अभी भी यही हो रहा है। किन्तु बाइबल में इस क्षय होने को पहले ही लिख दिया गया था: भजन 102:25-26 “आदि में तू ने पृथ्वी की नेव डाली, और आकाश तेरे हाथों का बनाया हुआ है। वह तो नाश होगा, परन्तु तू बना रहेगा; और वह सब कपड़े के समान पुराना हो जाएगा। तू उसको वस्त्र के समान बदलेगा, और वह तो बदल जाएगा;”; तथा इब्रानियों 1:11-12 “वे तो नाश हो जाएंगे; परन्तु तू बना रहेगा: और वे सब वस्त्र के समान पुराने हो जाएंगे। और तू उन्हें चादर के समान लपेटेगा, और वे वस्त्र के समान बदल जाएंगे: पर तू वही है और तेरे वर्षों का अन्त न होगा।”
साथ ही बाइबल यह भी बताती है कि यह क्षय होना सृष्टि में पाप के प्रवेश के द्वारा हुआ: उत्पत्ति 3:17 “और आदम से उसने कहा, तू ने जो अपनी पत्नी की बात सुनी, और जिस वृक्ष के फल के विषय मैं ने तुझे आज्ञा दी थी कि तू उसे न खाना उसको तू ने खाया है, इसलिये भूमि तेरे कारण शापित है: तू उसकी उपज जीवन भर दु:ख के साथ खाया करेगा” तथा “रोमियों 8:20-22 क्योंकि सृष्टि अपनी इच्छा से नहीं पर आधीन करने वाले की ओर से व्यर्थता के आधीन इस आशा से की गई। कि सृष्टि भी आप ही विनाश के दासत्व से छुटकारा पाकर, परमेश्वर की सन्तानों की महिमा की स्वतंत्रता प्राप्त करेगी। क्योंकि हम जानते हैं, कि सारी सृष्टि अब तक मिलकर कराहती और पीड़ाओं में पड़ी तड़पती है।”
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल:
1 राजाओं 12-13
लूका 22:1-30
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Bible and the Universe
In the previous article we saw that creation will never testify against its Creator, and will never deny Him. Today we will see the Biblical affirmation of this statement. In the Word of God, the Bible it is written:
Psalm 19:1-3 — “The heavens declare the glory of God; And the firmament shows His handiwork. Day unto day utters speech, And night unto night reveals knowledge. There is no speech nor language Where their voice is not heard.”
Jeremiah 10:12 — “He [God] has made the earth by His power, He has established the world by His wisdom, And has stretched out the heavens at His discretion.”
Romans 1:20 "For since the creation of the world His invisible attributes are clearly seen, being understood by the things that are made, even His eternal power and Godhead, so that they are without excuse."
We had also taken note of the fact that the Bible is not a book written from a scientific point of view, and its various books, when written in their respective times, were written for the average, common people, most of whom were illiterate or poorly educated, for them to read, hear and understand. And neither, at the time of the writing of those books, was science and scientific terminology as it is seen and known today. Therefore, in the Bible the things of science are neither stated in scientific terminology, nor have they been written in the form of a scientific explanation or discussion. Rather, in the teachings and discourses that are in the books of the Bible, the scientific things have been included in common simple language. Today we will look at some things related to the universe; things which have existed in the books of the Bible for thousands of years, but science and scientists have come to know about them a few centuries or even decades ago.
Let's look at some scientific facts about the universe that already exist in the books of the Bible:
Everything in the universe is made up of very fine particles that cannot be seen with the eye, are invisible: - Hebrews 11:3 "By faith we understand that the worlds were framed by the word of God, so that the things which are seen were not made of things which are visible.”
Creation has a time of its beginning: in the early twentieth century after the works of the famous scientist Albert Einstein, science began to accept that the universe had a time when it began. Whereas before that most people believed that the universe has been present and continuing on from eternity. The very first verse of the Bible refers to this 'beginning': Genesis 1:1 "." and, Hebrews 1:10 “And: "You, Lord, in the beginning laid the foundation of the earth, And the heavens are the work of Your hands".”
Science sees and explains the universe under four components – Time, Space, Matter, and Energy: The whole universe and everything in it is functioning through the rules and workings related to these four components, in mutual harmony and inter-related behavior. The first three verses of the Bible refer to these four things of the universe and everything in it: Genesis 1:1-3 "In the beginning [Time] God created the heavens [Space] and the earth [Matter]. The earth was without form, and void; and darkness was on the face of the deep. And the Spirit of God was hovering over the face of the waters. Then God said, "Let there be light [Energy]"; and there was light."
First law of thermodynamics was established: There are three principles of thermodynamics explaining the behavior of energy and matter present in the whole universe. The first of these states that the total amount of energy and matter present in all creation is constant – energy and matter can only be mutually interchanged, but their sum cannot ever increase or decrease. It was written in the very first book of the Bible that God also ended the creation of the universe; And after that end nothing more has been added or removed from it: Genesis 2:1-2 "Thus the heavens and the earth, and all the host of them, were finished. And on the seventh day God ended His work which He had done, and He rested on the seventh day from all His work which He had done." Since then, all the work of creation is being done only through the matter and energy that God created at the time of that initial creation.
Second law of thermodynamics was established: The second law of thermodynamics is that everything in creation is decaying, being destroyed, is continuously decreasing, and becoming disordered or deteriorating (Entropy – deteriorating or running down). Earlier people believed that the universe is unchanging. But now science has recognized that it is not so, everything in the whole universe is undergoing a decaying process, which is according to this second law. Evolution is against this second law, because according to it the animals are improving and advancing; under evolution, this gradual improvement and advancement has happened in the past, and it is still happening today, and will continue happening in the future, instead of decaying and deteriorating as stated by the second law of thermodynamics. But this decay was already recorded in the Bible: Psalm 102:25-26 "Of old You laid the foundation of the earth, And the heavens are the work of Your hands. They will perish, but You will endure; Yes, they will all grow old like a garment; Like a cloak You will change them, And they will be changed."; and Hebrews 1:11-12 "They will perish, but You remain; And they will all grow old like a garment; Like a cloak You will fold them up, And they will be changed. But You are the same, And Your years will not fail."
At the same time, the Bible also states that this decay was caused by the entry of sin into creation: Genesis 3:17 "Then to Adam He said, "Because you have heeded the voice of your wife, and have eaten from the tree of which I commanded you, saying, 'You shall not eat of it': "Cursed is the ground for your sake; In toil you shall eat of it All the days of your life." and Romans 8:20-22 “For the creation was subjected to futility, not willingly, but because of Him who subjected it in hope; because the creation itself also will be delivered from the bondage of corruption into the glorious liberty of the children of God. For we know that the whole creation groans and labors with birth pangs together until now.”
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Through the Bible in a Year:
1 Kings 12-13
Luke 22:1-30
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