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कलीसिया का तीसरा स्तंभ - प्रभु की मेज़ - स्थापना से शिक्षाएँ
इस श्रृंखला में हम देखते आ रहे हैं कि अपने पापों के लिए पश्चाताप करने और प्रभु यीशु पर लाए गए विश्वास द्वारा पापों की क्षमा तथा उद्धार प्राप्त करने पर प्रभु व्यक्ति को अपनी कलीसिया, अपने लोगों के समूह, अर्थात कलीसिया के साथ जोड़ देता है। प्रभु की कलीसिया के साथ जोड़ दिए जाने वाले व्यक्तियों के जीवनों में, कलीसिया के आरंभ से ही, सात बातें भी देखी जाती रही हैं, जिन्हें प्रेरितों 2:38-42 में बताया गया है। इन सात में से चार बातें, एक साथ एक ही वाक्य में, प्रेरितों 2:42 में लिखी गई हैं, और इन चारों के लिए यह भी कहा गया है कि उस आरंभिक कलीसिया के लोग उन में “लौलीन रहे”। इन चार बातों को मसीही जीवन तथा कलीसिया को स्थिर और दृढ़ बनाए रखने वाले चार स्तंभ भी कहा जाता है। पिछले लेखों में हम सात में से पाँच बातें देख चुके हैं। आज हम छठी बात, जो 2:42 की तीसरी बात, और कलीसिया तथा मसीही जीवन का तीसरा स्तंभ है, ‘रोटी तोड़ना’ के बारे में कुछ बातें देखेंगे, और इन्हें अगले लेख में पूरा करने का प्रयास करेंगे।
जब परमेश्वर ने इस्राएलियों को मूसा के द्वारा मिस्र के दासत्व से छुड़ाया था, तो उनके छुटकारे की रात को उन्हें “फसह का पर्व” या “लाँघन पर्व” मनाने की विधि भी दी थी, जिसका वर्णन निर्गमन 12 अध्याय में दिया गया है। इस पर्व को, व्यवस्था के दिए जाने के समय, इस्राएल के वार्षिक पर्वों में सम्मिलित किया गया (लैव्यव्यवस्था 23:5-8)। निर्गमन 12 में दिए गए विवरण के अनुसार, फसह का यह पर्व परिवार जनों के द्वारा साथ मिलकर मनाया जाना था, और यदि परिवार छोटा हो, तो किसी अन्य निकट के छोटे परिवार के साथ सम्मिलित होकर मनाया जाना था (निर्गमन 12:3-4)। यह पर्व पापों से और शैतान के दासत्व से “परमेश्वर के मेमने” प्रभु यीशु के बलिदान के द्वारा छुटकारे का प्रतीक था। इस प्रतीकात्मक पर्व को वास्तविक करने से ठीक पहले, प्रभु यीशु मसीह ने यह पर्व अपने शिष्यों के साथ मनाया था (मत्ती 26:17-19)। इस पर्व को मनाते समय, पर्व की रीति के अनुसार शिष्यों के साथ भोजन करते समय, प्रभु ने एक और कार्य भी किया - जो पर्व की विधि से कुछ भिन्न था - प्रभु ने रोटी और कटोरे को लेकर उन्हें अपनी देह और लहू का चिह्न बताया और उसे शिष्यों में वितरित किया। इस पर्व के मनाए जाने और प्रभु द्वारा इस प्रकार से रोटी और कटोरे को अपनी देह और लहू का चिह्न बताने का उल्लेख चारों सुसमाचारों में किया गया है।
इस पर्व के मनाए जाने और प्रभु द्वारा रोटी और कटोरा दिए जाने के चारों सुसमाचारों के वर्णनों को साथ मिलाकर ध्यान से तथा क्रमवार देखने से स्पष्ट हो जाता है कि प्रभु ने फसह के पर्व का भोजन बारहों शिष्यों के साथ आरंभ किया, अर्थात फसह के भोज के समय यहूदा इस्करियोती भी उनके साथ था, और जब प्रभु ने शिष्यों के पाँव धोए, तो यहूदा के भी धोए थे (यूहन्ना 13:4-25)। और फसह के भोज का पहला टुकड़ा, प्रभु ने यहूदा इस्करियोती को दिया, जिसने उसके साथ थाली में हाथ डाला था (मत्ती 26:23, मरकुस 14:20; लूका 22:21; यूहन्ना 13:26), और उससे कहा कि जो तुझे करना है सो कर (यूहन्ना 13:27)। फसह के पर्व का वह पहला टुकड़ा दिए जाने के साथ भोज को खाना आरंभ हो गया, प्रभु और शिष्य फसह के भोज को खाने लगे, और प्रभु से वह टुकड़ा लेते ही यहूदा तुरंत बाहर चला गया (यूहन्ना 13:30); किन्तु यह ध्यान देने योग्य बात है कि यह कहीं नहीं लिखा है कि यहूदा ने उस टुकड़े को लेकर खाया भी। यहूदा के चले जाने के बाद, जब वे खा रहे थे, तब प्रभु यीशु ने भोज में से उठकर रोटी और कटोरे को उन्हें अपनी देह और लहू के चिह्न के रूप में दिया, और उनसे यह करते रहने के लिए कहा (मत्ती 26:26-28; मरकुस 14:22-25; लूका 22:19-20)। अर्थात, शैतान का वह जन, यहूदा इस्करियोती फसह के पर्व की आरंभिक प्रक्रियाओं में तो था, और प्रभु ने उसे बदलने का मौका भी दिया, उसके पाँव धोए, उससे प्रेम दिखाया, उसे सब के सामने प्रकट और शर्मिंदा नहीं किया, और भोज का पहला टुकड़ा भी उसे ही दिया, जो पारंपरिक रीति से प्रिय जन को दिया जाता था। किन्तु न तो वह बदला, और न उसने फसह का भोज खाया और न ही प्रभु द्वारा मानव जाति के पापों के निवारण और समाधान के लिए दिए जाने वाले अपने बलिदान के प्रतीक रोटी और लहू का चिह्न स्थापित किए जाने के समय वह उनके मध्य में उपस्थित था।
प्रभु की मेज़, प्रभु भोज का यह दर्शन कुछ बहुत गंभीर तथ्य हमारे सामने रखता है। न ही प्रभु यीशु ने, और न ही उनके उन शिष्यों ने यह पर्व अपने निज परिवारों के साथ मनाया, वरन एक साथ मिलकर मनाया - प्रभु में लाए गए विश्वास और समर्पण के द्वारा अब प्रभु और उसके अन्य विश्वासी ही उनका “परिवार” थे, जो यूहन्ना 1:12-13 में प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास के द्वारा परमेश्वर की संतान, प्रभु की कलीसिया और परमेश्वर के घराने के लोग (इफिसियों 2:19) होने की पुष्टि करता है। फिर, प्रभु की मेज़, प्रभु के सच्चे समर्पित लोगों के लिए है, सार्वजनिक निर्वाह के लिए कोई प्रथा या परंपरा नहीं है। प्रभु ने इसमें भाग लेने के लिए केवल अपने साथ रहने वाले उन शिष्यों को ही आमंत्रित किया, सर्व-साधारण को नहीं; और फिर शिष्यों में से भी जब शैतान का जन चला गया, तब ही प्रभु ने इसे स्थापित किया। निःसंदेह, इसमें भाग लेने वाले शिष्य सिद्ध नहीं थे - थोड़ी ही देर बाद सब के सब प्रभु को छोड़ कर भाग गए, और पतरस ने तो तीन बार प्रभु का इनकार भी किया। किन्तु पुनरुत्थान के बाद प्रभु ने इन्हीं शिष्यों को फिर से दृढ़ और स्थापित कर के कलीसिया का आरंभ किया, सारे संसार में सुसमाचार को पहुँचाया, और उन्हीं के द्वारा संसार भर में कलीसिया का दर्शन गया, कलीसिया स्थापित हुईं। प्रभु की मेज़ से संबंधित कुछ अन्य तथ्य हम आगे अगले लेख में देखेंगे।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके मसीही जीवन को स्थिर और दृढ़ रखने में, आपको प्रभु के लिए उपयोगी बनाने में, प्रभु की मेज़ में सम्मिलित होने की एक बहुत प्रमुख और महत्वपूर्ण भूमिका है। किन्तु ध्यान रखिए कि यह कोई रस्म या परंपरा नहीं है, जिसमें भाग लेने के द्वारा आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी हो जाते हैं। वरन, अनुचित रीति से भाग लेने के द्वारा, व्यक्ति दंड के भागी हो जाते हैं। इसलिए प्रभु की मेज़ में, प्रभु भोज में सम्मिलित होने से पहले इसके अर्थ और दर्शन को भली भांति समझकर, तब उचित रीति से इसमें सम्मिलित हों तथा इसकी आशीषों के संभागी हों, अन्यथा अनुचित रीति से भाग लेना बहुत भारी पड़ जाएगा।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यशायाह 45-46
1 थिस्सलुनीकियों 3
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The Third Pillar - Lord’s Table - Lessons From it's Inception
In this series we have seen that once a person repents of his sins, comes to faith in the Lord Jesus, and is saved, the Lord Jesus joins him to His people, i.e., His Church. In the lives of the people joined to the Church of the Lord Jesus, since the beginning, seven things, given in Acts 2:38-42 have been seen. Of these seven things, four have been grouped together and given in one sentence, in Acts 2:42. In the same sentence it has also been stated about these four things that the members of the initial Church “continued steadfastly” in them. These four things have been called the four pillars of Christian life and Church that keep the Believer and the Church stable and firm. In the previous articles we have already seen five out of these seven things. Today we will consider the sixth one, which is the third thing stated in Acts 2:42, and is the third pillar of the Church and Christian living - “Breaking of Bread” - we will see some things about it today and try to complete it in the next article.
When God delivered the Israelites out of slavery of Egypt, then He also gave them the “Passover Feast” to celebrate in the night of their deliverance, its description we have in Exodus 12. This feast was later included in the annual feasts given in the Law, to be celebrated by the Israelites (Leviticus 23:5-8). According to the description given in Exodus 12, the Passover Feast was to be celebrated as a family, and if the family was small then that family could join with another family to celebrate it (Exodus 12:3-4). This feast was a depiction of deliverance from Satan and sin through the sacrifice of the “Lamb of God” - the Lord Jesus Christ. The Lord Jesus celebrated this feast with His disciples, immediately before turning this representative feast into His actual sacrifice (Matthew 26:17-19). While celebrating this feast in the prescribed manner, the Lord Jesus also did one more thing - which was somewhat different from the traditional ritual of the feast - the Lord took the Bread and the Cup, and called them representations of His Body and Blood, and then distributed them amongst the disciples. The celebration of this feast and the Lord calling the Bread and the Cup representations of His Body and Blood, has been recorded in all the four gospels.
When we put chronologically place together the descriptions given in the four gospels, then it becomes apparent that the Lord began the Passover feast with His twelve disciples, i.e., Judas Iscariot was also present at that time, and when the Lord washed the feet of the disciples, He washed the feet of Judas as well (John13:4-25). The Lord gave the first piece of the Passover Feast meal to Judas Iscariot, who had put his hand in the dish with the Lord (Matthew 26:23, Mark 14:20; Luke 22:21; John 13:26), and told him to do what he wanted to do (John 13:27). With the giving of the first piece of the Passover Feast meal to Judas Iscariot, the eating of the meal began, and the Lord with His disciples started to eat the meal; but Judas after taking that first piece from the Lord went out (John 13:30); it is noteworthy that it is not recorded anywhere that having taken that piece from the Lord, Judas ate it as well! After Judas had left, while they were eating the feast, the Lord got up and gave the Bread and the Cup as a representation of His Body and Blood to his remaining eleven disciples, and asked them to continue to do it in remembrance of Him (Matthew 26:26-28; Mark 14:22-25; Luke 22:19-20). In other words, Judas Iscariot, the representative of Satan, was present in the initial part of the celebration, and the Lord gave him another chance to repent, washed his feet, showed love to him, never exposed or humiliated him before others, and honored him by giving him the first piece of the meal, which traditionally was given to the most loved person. But Judas neither repented nor changed; he did not eat of the Passover feast, and was not present when the Lord initiated the Holy Communion through the Bread and the Cup as representations of His Body and Blood to be shed as a sacrifice for the remission of sins for mankind.
The facts related to the Lord’s Table, presents some very deep insights and teachings for our Christian Faith and lives. Neither the Lord Jesus, nor His disciples celebrated the Passover feast with their respective families, but celebrated it together with each other; the implication is that by coming into faith in the Lord Jesus and surrendering their lives to Him, now the Lord and the other disciples or Believers were their “family”, which is an affirmation of John 1:12-13 - of the Believers becoming members of God’s family as His Born-Again children, and of Ephesians 2:19 - as members of the Lord’s Church being the family of God. We also learn that the Lord’s Table, His Holy Communion, is only for the true and committed Christian Believers, it is not a ritual to be observed for common and general use. The Lord only invited His disciples, not His casual or general followers, to participate in the Communion, and established the Holy Communion after Satan’s representative had left their company. No doubt, that those who participated in the Communion were not perfect - shortly afterwards they all deserted the Lord and ran away, and Peter even denied the Lord three times. But after His resurrection, the Lord gathered these same disciples, strengthened and established them in faith, got the first Church going through them, sent them out into the world with His gospel of salvation, through them gave to the world the understanding of His Church, and had local churches established all over the world.
We will consider some other important facts and teachings related to the Lord’s Table, the Hoy Communion, in the next article. But if you are a Christian Believer, then to keep you firm and established in the Faith, and make you effective and useful for the Lord, Lord’s Holy Communion has a very important role to play. Also bear in mind that this participation is not a ritual or a tradition; it is not that by participating in it you become righteous in God’s eyes. Rather, by participating in an unworthy manner, the person comes under God’s judgement and punishment. Therefore, before participating in the Holy Communion, it is very necessary to understand its true meaning and teachings, and then participate in a worthy manner to gain its blessings; else participating unworthily will be very detrimental.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Isaiah 45-46
1 Thessalonians 3
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