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शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

बपतिस्मे से संबंधित विवादास्पद बातें (3) / Baptism Related Controversies (3)

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बपतिस्मा - उद्धार के लिए अनिवार्य? (3) - प्रेरितों 22:16


पिछले लेख में हमने बाइबल की बातों की सही व्याख्या करने में सहायक कुछ अनिवार्य मूल सिद्धांतों: हर बात को उसके संदर्भ में लेना, उस बात को उस से संबंधित अन्य खण्डों और पदों के साथ लेना, उसे बाइबल की अन्य संबंधित शिक्षाओं के साथ लेना, और उस बात को उसके उस अर्थ के साथ समझना जो उसके मूल या प्रथम श्रोताओं ने उस बात के कहे या लिखे जाने के समय समझा था और पालन किया था, को प्रयोग किया था। साथ ही हमने दो और तथ्यों का प्रयोग भी किया था: पहला था कि सामान्य वार्तालाप और भाषा के प्रयोग के समान, बाइबल में भी आलंकारिक भाषा का प्रयोग किया गया है। और दूसरा था कि हमें हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि हर भाषा में शब्दों के एक से अधिक शब्दार्थ भी हो सकते हैं, और उस शब्द के प्रयोग का संदर्भ तथा उसके प्रयोग के समय जिन से वह कहा गया था उन्होंने उसे कैसे समझा था, यही आज हमारे लिए उसके सही अर्थ को निर्धारित करते हैं। इसलिए हर बात उसके भिन्न शब्दार्थ के अंतर्गत ही नहीं, वरन संदर्भ के अनुसार उसके अर्थ या भावार्थ में समझना भी आवश्यक होता है। यदि इन मूल सिद्धांतों का ध्यान न रखा जाए, तो बाइबल की बातों की गलत व्याख्या करना और अनुचित अर्थ निकालना बहुत सरल हो जाता है; और इसी गलती के द्वारा ये गलत व्याख्याएं और गलत शिक्षाएं बनाई और सिखाई जाती हैं।


फिर इन सिद्धांतों के आधार पर हमने बपतिस्मे से संबंधित एक बहुत आम किन्तु मन-गढ़न्त धारणा, कि उद्धार के लिए बपतिस्मा भी आवश्यक है, उद्धार बपतिस्मे के बिना नहीं है, के समर्थन में प्रयोग होने वाले एक पद, प्रेरितों 2:38, का विश्लेषण किया था। उपरोक्त सिद्धांतों के आधार पर किए गए इस पद के सही विश्लेषण के द्वारा हम समझने पाए थे कि यह पद, इस के विषय प्रचलित आम धारणा के विपरीत, उद्धार के लिए बपतिस्मा लेने की अनिवार्यता अथवा आवश्यकता की पुष्टि नहीं करता है। आज हम बपतिस्मे से संबंधित इस गढ़ी हुई गलत धारणा के समर्थन के लिए दुरुपयोग किए जाने वाले एक और पद, प्रेरितों 22:16 का विश्लेषण भी उपरोक्त सिद्धांतों के अनुसार करेंगे।

 

बपतिस्मे के द्वारा पापों के धोए जाने के तर्क को समर्थन देने के लिए प्रेरितों 22:16 में पौलुस के कथन “अब क्यों देर करता है? उठ, बपतिस्मा ले, और उसका नाम ले कर अपने पापों को धो डाल” का भी ऐसी ही एक पूर्व-धारणा के साथ अनुचित प्रयोग किया जाता है। यहाँ पर पौलुस प्रेरितों 9:16-18 के अपने अनुभव को यहूदियों के और उनके धर्म-गुरुओं के सामने दोहरा रहा है। एक बार फिर से, इस गलत व्याख्या और गलतफहमी का कारण है केवल एक पद या वाक्यांश को उसके संदर्भ से बाहर, और बिना अन्य संबंधित बातों या पदों का ध्यान किए हुए लेना, और उसी पर धारणा बनाकर मन-गढ़न्त निष्कर्ष दे देना।

 

पौलुस का प्रभु यीशु से पहला साक्षात्कार दमिश्क के रास्ते पर हुआ था, और पौलुस ने उसी साक्षात्कार में यीशु को अपना प्रभु ग्रहण कर लिया था (प्रेरितों 9:4-5)। यहाँ पर गलातियों 1:11-12 “हे भाइयो, मैं तुम्हें जताए देता हूं, कि जो सुसमाचार मैं ने सुनाया है, वह मनुष्य का सा नहीं। क्योंकि वह मुझे मनुष्य की ओर से नहीं पहुंचा, और न मुझे सिखाया गया, पर यीशु मसीह के प्रकाश से मिला” में पौलुस द्वारा उसे सुसमाचार सुनाए जाने की बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है। गलातियों के इन पदों में पौलुस इस बात के लिए स्पष्ट है कि उसे सुसमाचार “यीशु मसीह के प्रकाश से मिला” था। अर्थात दमिश्क के रास्ते पर प्रभु यीशु से हुए उसके साक्षात्कार के समय, प्रभु के साथ जो उसकी बातचीत हुई, उसमें ही उसे स्वयं प्रभु द्वारा ही सुसमाचार दिया गया, और उसने उस सुसमाचार को स्वीकार किया और उस पर विश्वास किया, तभी तो उसने वहाँ पर ही न केवल यीशु को प्रभु कहकर संबोधित किया (प्रेरितों 22:7, 10), वरन पूरे दिल से उसकी आज्ञाकारिता भी की। बिना इस बात को समझे और स्वीकार किए कि दमिश्क के मार्ग पर प्रभु के साथ हुए उसके साक्षात्कार में पौलुस ने विश्वास करने के द्वारा उद्धार पाया था, उसके, जो मसीह और मसीहियों का घोर विरोधी था, जीवन, व्यवहार, और रवैये में आए अभूत-पूर्व परिवर्तन को स्वीकार करना असंभव है। अर्थात, हनन्याह के उसके पास आने से पहले प्रभु पर विश्वास लाने के द्वारा पौलुस उद्धार पा चुका था। अब, इस संदर्भ में पौलुस द्वारा प्रेरितों 22:16 में कही गई बात पर ध्यान दीजिए; वह यह नहीं कह रहा है कि हनन्याह ने उससे कहा कि वह बपतिस्मे द्वारा अपने पापों को धो डाले, वरन “उसका” यानि कि यीशु का नाम लेकर, अर्थात यीशु पर विश्वास के द्वारा अपने पापों को धो डाल। इसे 1 कुरिन्थियों 6:11 “और तुम में से कितने ऐसे ही थे, परन्तु तुम प्रभु यीशु मसीह के नाम से और हमारे परमेश्वर के आत्मा से धोए गए, और पवित्र हुए और धर्मी ठहरे।” जैसे कुरिन्थुस के ये विश्वासी प्रभु यीशु के नाम में धोए गए और पवित्र किए गए, उसी प्रकार से पौलुस ने भी उद्धार पाया और पापों से शुद्ध किया गया, प्रतीक के समान प्रभु यीशु द्वारा धोया गया। साथ ही इस बात का ध्यान भी रखिए कि जैसा हम अपने आरंभिक लेखों में पुराने नियम में बपतिस्मे के प्ररूप में देख चुके हैं (फरवरी 4) कि यहूदी भीतरी शुद्ध किए जाने के बाहरी प्रतीक के लिए पानी से धोए जाने से भली भांति परिचित थे (यशायाह 1:16; ज़कर्याह 13:1; यूहन्ना 13:10; इब्रानियों 10:19-22; तीतुस  3:4-7)। इन बातों को ध्यान में रखते हुए प्रेरितों 22:16 में पौलुस के कथन की यह धोए जाने की बात का अभिप्राय और भी स्पष्ट हो जाता है कि यह बपतिस्मे के जल के द्वारा पापों के धोए जाने की बात नहीं है। इसलिए पौलुस द्वारा बपतिस्मा लेने का अर्थ बपतिस्मे के जल से पापों को धो डालना कहना प्रेरितों 22:16 का सही अर्थ और व्याख्या नहीं है।

 

हम इसी विषय पर आगे के लेखों में भी देखेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में नया जन्म पाए हुए प्रभु यीशु के शिष्य हैं, पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • लैव्यव्यवस्था 23-24           

  • मरकुस 1:1-22      


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English Translation


Baptism - Necessary for Salvation? (3) – Acts 22:16

In the previous article, we made use of some essential fundamental principles that help to interpret the statements of the Bible correctly; i.e., to consider everything in its context, to always consider along with other Biblical verses and passages related to that matter, to always consider along with other relevant Bible teachings, and to always consider understanding it with the meaning that its original or first audience understood and followed when it was first said or written. We also utilized two other facts: the first was that the Bible also uses figurative language, as is usual in normal conversation and use of any language. And the second was that we need to also bear in mind that in every language words can have more than one meaning, and it is the context and the way those to whom it was first stated understood it, that determines the applicable meaning for us today. Therefore, it is necessary to understand everything not only in considering different literal meanings of words, but also the implied meaning or connotation, according to the context. If these basic principles are not taken care of, it becomes very easy to misinterpret and misunderstand Biblical statements; And because of these mistakes, there are misinterpretations and wrong teachings that are made and taught.


Then, based on these principles, we analyzed Acts 2:38, a verse that is very often used to support the very common but erroneous contrived belief that baptism is necessary for salvation, and salvation without baptism is not possible. Through a proper analysis of this verse based on the above principles, we were able to see and understand that Acts 2:38, contrary to popular belief about it, neither states nor affirms the compulsion or necessity of baptism for salvation. Today, using the same principles, we will analyze another verse, Acts 22:16, that is also similarly misused to erroneously support this contrived argument related to baptism.


To argue that baptism washes away sins, Paul's statement of, Acts 22:16 "And now why are you waiting? Arise and be baptized, and wash away your sins, calling on the name of the Lord” is used in a pre-conceived manner; similarly misinterpreting it and creating misunderstandings about it. Here, Paul is recalling to the Jews and their religious leaders, his experience of Acts 9:16-18. Once again, as usually happens, the reason for misinterpreting and misunderstanding this verse is taking it out of its context, without taking into consideration the other related teachings, passages or verses from the Bible, and giving contrived conclusions about it.

 

Paul's first encounter with the Lord Jesus was on the way to Damascus, and Paul accepted Jesus as Lord in that encounter itself (Acts 9:4–5). It is also important to note here Paul's statement regarding his receiving of the Gospel, as stated in Galatians 1:11-12 “But I make known to you, brethren, that the gospel which was preached by me is not according to man. For I neither received it from man, nor was I taught it, but it came through the revelation of Jesus Christ.” In these verses from Galatians, Paul is clear that he received the gospel "by the revelation of Jesus Christ." In other words, at the time of his encounter with the Lord Jesus on the way to Damascus, the gospel was given to him by the Lord Himself during his conversation with the Lord, and he had accepted and believed in that gospel; that is why he not only addressed Jesus as Lord there (Acts 22:7, 10), but also whole-heartedly obeyed Him immediately. Without realizing and accepting that Paul was saved by faith on the road to Damascus during his conversation with the Lord Jesus, it is impossible to accept the radical transformation in life, behavior, and attitude of Paul, who was a vehement Christ and Christian hater before this happened. That is, Paul had already been saved by faith in the Lord before Ananias came to him. Now, in this context, consider what Paul said in Acts 22:16. He is not saying that Ananias asked him to wash away his sins by baptism, but that he should wash away his sins by “calling on the name of the Lord" i.e., by accepting Jesus as his Lord. Consider this with 1 Corinthians 6:11 "And such were some of you. But you were washed, but you were sanctified, but you were justified in the name of the Lord Jesus and by the Spirit of our God." Just as these Believers of Corinth were washed and sanctified in the name of the Lord Jesus, similarly, Paul too was saved and cleansed of his sins, figuratively was washed by the Lord Jesus. Also bear in mind what we have seen earlier in our initial considerations about Old Testament antecedents of baptism (February 4) - that the Jews were quite familiar with symbolical external bodily washing as a representation of the inner cleansing from sins (Isaiah 1:16; Zechariah 13:1; John 13:10; Hebrews 10:19-22; Titus 3:4-7). Keeping these in mind, the meaning of Paul’s statement in Acts 22:16 becomes even more clear that here Paul is not talking about the water of baptism washing away his sins. So, claiming that here Paul is saying that being baptized means the washing away of sins with the water of baptism is not the correct meaning and interpretation of Acts 22:16.


We will continue on this topic in the articles ahead. If you are a Christian Believer, then please examine your life and make sure that you are actually a Born-Again disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. Whoever may be the preacher or teacher, but you should always, like the Berean Believers, first cross-check and test all teachings that you receive, from the Word of God. Only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


Through the Bible in a Year: 

  • Leviticus 23-24 

  • Mark 1:1-22



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