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बपतिस्मा - उद्धार के लिए अनिवार्य? (4) - 1 पतरस 3:21
पिछले दो लेखों में हमने बाइबल की बातों की सही व्याख्या करने में सहायक कुछ अनिवार्य मूल सिद्धांतों का प्रयोग किया था जिस से कि बपतिस्मे के बारे में बाइबल के दो सामान्यतः दुरुपयोग किए जाने वाले पदों की गलत व्याख्या और गलतफहमियों को सुधार सकें। जिन सिद्धांतों का हमने प्रयोग किया था वे हैं: हर बात को उसके संदर्भ में लेना, उस बात को उस से संबंधित अन्य खण्डों और पदों के साथ लेना, उसे बाइबल की अन्य संबंधित शिक्षाओं के साथ लेना, और उस बात को उसके उस अर्थ के साथ समझना जो उसके मूल या प्रथम श्रोताओं ने उस बात के कहे या लिखे जाने के समय समझा था और पालन किया था। साथ ही हमने दो और भाषा संबंधी तथ्यों का प्रयोग भी किया था: पहला था कि सामान्य वार्तालाप और भाषा के प्रयोग के समान, बाइबल में भी आलंकारिक भाषा का प्रयोग किया गया है। और दूसरा था कि हमें हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि हर भाषा में कुछ शब्दों के एक से अधिक शब्दार्थ भी हो सकते हैं, और उस शब्द के प्रयोग का संदर्भ तथा उसके प्रयोग के समय जिन से वह कहा गया था उन्होंने उसे कैसे समझा था, यही आज हमारे लिए बाइबल की उस बात के सही एवं अपरिवर्तनीय अर्थ को निर्धारित करते हैं। इसलिए हर बात उसके भिन्न शब्दार्थ के अंतर्गत ही नहीं, वरन संदर्भ के अनुसार उसके अर्थ या भावार्थ में समझना भी आवश्यक होता है। यदि इन मूल सिद्धांतों का ध्यान न रखा जाए, तो बाइबल की बातों की गलत व्याख्या करना और अनुचित अर्थ निकालना बहुत सरल हो जाता है; और इसी गलती के द्वारा ये गलत व्याख्याएं और गलत शिक्षाएं बनाई और सिखाई जाती हैं।
फिर इन सिद्धांतों के आधार पर हमने बपतिस्मे से संबंधित एक बहुत आम किन्तु मन-गढ़न्त धारणा, कि उद्धार के लिए बपतिस्मा भी आवश्यक है, उद्धार बपतिस्मे के बिना नहीं है, के समर्थन में प्रयोग होने वाले दो पदों, प्रेरितों 2:38 और प्रेरितों 22:16, का विश्लेषण किया था। उपरोक्त सिद्धांतों के आधार पर किए गए इन पदों के सही विश्लेषण के द्वारा हम समझने पाए थे कि ये पद, इस के विषय प्रचलित आम धारणा के विपरीत, उद्धार के लिए बपतिस्मा लेने की अनिवार्यता अथवा आवश्यकता की पुष्टि नहीं करते हैं। आज हम बपतिस्मे से संबंधित इस गढ़ी हुई गलत धारणा के समर्थन के लिए दुरुपयोग किए जाने वाले एक और पद, 1 पतरस 3:21 का विश्लेषण भी उपरोक्त सिद्धांतों के अनुसार करेंगे।
एक और पद जिसका इसी प्रकार से गलत व्याख्या के साथ दुरुपयोग किया जाता है, वह है, 1 पतरस 3:21 “और उसी पानी का दृष्टान्त भी, अर्थात बपतिस्मा, यीशु मसीह के जी उठने के द्वारा, अब तुम्हें बचाता है; (उस से शरीर के मैल को दूर करने का अर्थ नहीं है, परन्तु शुद्ध विवेक से परमेश्वर के वश में हो जाने का अर्थ है)” है। इस पद से भी पहली झलक में लोग यही अर्थ लेते हैं कि बपतिस्मे द्वारा बचाए जाते हैं। किन्तु इस पद के वाक्यों को भी ध्यान से, और उसके संदर्भ में देखने से यह प्रकट हो जाता है कि इस पद का यह अर्थ नहीं है।
इस पद का पहला वाक्य, इससे ठीक पहले के पद 20 को उदाहरण के समान लेते हुए, नूह के समय की जल-प्रलय और आठ लोगों के उससे बचाए जाने को एक प्ररूप के समान लेता है। वे आठ लोग बिना सुरक्षा के साधन को लिए, पानी में चले जाने के द्वारा नहीं बच गए थे। वे केवल नूह द्वारा बनाए गए जहाज़ में चले जाने के द्वारा बचे थे। वे स्वयं जल पर तैरते नहीं रहे थे, वरन वह जहाज़ जिसमें वे थे, वह जल पर तैर रहा था, और उन्हें सुरक्षित रखे हुए था। नूह द्वारा बनाए गए जहाज़ में उनकी सुरक्षा और देखभाल, उद्धारकर्ता प्रभु यीशु मसीह में आ जाने से, विनाश से लोगों के बचाए जाने का प्रतीक या प्ररूप है। विनाश करने वाले जल-प्रलय के समय में भी उस जहाज़ में नूह और उसके परिवार का सुरक्षित बने रहना, नूह और उसके परिवार द्वारा कही जा रही बात के सही होने की गवाही थी। इसी प्रकार से बपतिस्मा भी संसार के सामने प्रभु यीशु मसीह में विश्वास के द्वारा आ जाने से मिलने वाले बचाव या उद्धार और अनन्तकाल की सुरक्षा की गवाही है (रोमियों 8:1)। इस पद को उसके संदर्भ में देखने से अब यह प्रकट है कि बचाने या उद्धार देने वाला बपतिस्मा नहीं है, वरन बपतिस्मा तो नूह और उसके परिवार की गवाही – परमेश्वर की आज्ञाकारिता में होने के कारण उनका बचाव होने का प्ररूप है। बपतिस्मा तो वर्तमान संसार के लिए, जिसकी आज्ञाकारिता के अंतर्गत वह लिया गया है, उस प्रभु यीशु में होने से बचाए जाने की गवाही है। जबकि बचाने वाला या उद्धार देने वाला तो प्रभु यीशु मसीह ही है। बपतिस्मा तो प्रभु यीशु मसीह के द्वारा लोगों के उद्धार पाने या बचाए जाने के लिए प्रभु यीशु द्वारा किए गए कार्य की गवाही है।
और यही बात बाइबल के अन्य स्थानों पर भी कही गई है कि बपतिस्मा केवल उद्धार पाए हुए व्यक्ति के द्वारा उन के पापों से बचा लिए जाने की दी जाने वाली गवाही है। जिससे कि लोग इस बात का गलत अर्थ न निकाल लें, पवित्र आत्मा की अगुवाई में पतरस तुरंत ही, इसी वाक्य में, साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया बपतिस्मे के पानी के द्वारा तो केवल शरीर के मैल को दूर किया जा सकता है, किन्तु केवल परमेश्वर के वश में, उसकी अधीनता में होने से ही आत्मा को शुद्ध किया जा सकता है। उस समय, पतरस और अन्य शिष्यों के लिए तो बपतिस्मा केवल डुबकी का बपतिस्मा ही था; इसीलिए वह लिखता है कि बपतिस्मे के द्वारा, अर्थात पानी में डुबकी लेना शरीर के मैल को तो दूर कर सकता है, किन्तु आत्मा का मैल परमेश्वर के वश में हो जाने से ही दूर होता है। साथ ही यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि, जैसा कि पिछले लेख में दोहराया और दिखाया गया है, यहूदी इस बात से भली भांति परिचित और अवगत थे कि शरीर का बाहरी स्नान या धोया जाना, प्रतीक के समान पापों से भीतरी शुद्धि के सूचक होने के लिए भी प्रयोग किया जाता है (यशायाह 1:16; ज़कर्याह 13:1; यूहन्ना 13:10; इब्रानियों 10:19-22; तीतुस 3:4-7)।
हम इसी विषय पर आगे के लेखों में भी देखेंगे, और बाइबल से संबंधित कुछ अन्य तथ्यों को देखेंगे जो उद्धार के लिए बपतिस्मे की अनिवार्यता की इस मन-गढ़न्त धारणा का खण्डन करते हैं। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में नया जन्म पाए हुए प्रभु यीशु के शिष्य हैं, पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
लैव्यव्यवस्था 25
मरकुस 1:23-45
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Baptism - Necessary for Salvation? (4) – 1 Peter 3:21
In the previous two article, we have used some essential fundamental principles that help to interpret the statements of the Bible correctly, to correct the misunderstandings and misinterpretations of two verses commonly misused in relation to baptism. The principles we have used are: to consider everything in its context, to always consider along with other passages and verses related to that matter, to always consider along with other relevant Bible teachings, and to always consider understanding it with the meaning that its original or first audience understood and followed when it was first said or written. We also kept in mind two linguistic facts; first was that the Bible too uses figurative language, as is usual in normal conversation and use of language. The second was that as is in every language, the same word can have different meanings; and the correct or applicable meaning is determined by the context. For us today, for the things of the Bible it means how it was understood when it was first stated - that and that alone is the primary unalterable meaning of that word or phrase. Therefore, it is necessary to understand everything not only in its literal meaning, but also in its implied meaning or connotation, according to the context. If these basic principles are not taken care of, it becomes very easy to misinterpret and misunderstand Biblical statements; And because of these mistakes, there are misinterpretations and wrong teachings that are made and taught.
Then, based on these principles, we analyzed two verses, Acts 2:38, and Acts 22:16, that are very often used to support a very common but erroneous belief that baptism is necessary for salvation, that salvation without baptism is not possible. Through a proper analysis of these verses based on the above principles, we were able to understand that both these verses, contrary to popular belief about them, do not affirm the compulsion or necessity of baptism for salvation. Today we will similarly analyze another verse used for this argument, 1 Peter 3:21, using the above principles.
Another verse that is similarly misused because of its misinterpretation is 1 Peter 3:21 “There is also an antitype which now saves us--baptism (not the removal of the filth of the flesh, but the answer of a good conscience toward God), through the resurrection of Jesus Christ". From this verse also at first glance people assume the meaning that they are saved by baptism. But by looking carefully at the sentences of this verse, and in its context, it becomes apparent that this verse does not mean this.
The first sentence of this verse, using the immediately preceding verse 20 as an illustration, takes the flood of Noah's time and the rescue of eight people mentioned in it, as an antitype, meaning, an earlier type or symbol. Those eight people did not survive by going into the water without a security mechanism; but only survived by getting into the ark built by Noah. It was the ark, not they themselves, which floated on the water and kept them safe. Their safety and security in the ark built by Noah is a representation of the protection and security from eternal destruction in the Lord Jesus Christ the Savior. The destroying flood and the safe presence of Noah and his family in the saving ark served to confirm Noah’s testimony; of what he had been foretelling the people of the world. Similarly, baptism also is before the world as a testimony of the people being saved and made eternally secure by coming into faith in the Lord Jesus Christ (Romans 8:1). Considering the verse in its context, it is evident that in this verse baptism is not the saving agent, but the equivalence of the ‘antitype’ - the testimony of Noah and his family trusting in God to be their savior. For us today, baptism points to the one who saves and to the one for whose obedience it is taken i.e., the Lord Jesus Christ. Baptism is just a testimony of being saved through the redemptive work of the Lord Jesus Christ.
And the same thing, that baptism is only the testimony given by a saved person of the salvation from his sins, is said in other places in the Bible too. So that people may not misinterpret this, Peter, led by the Holy Spirit, immediately, within the same sentence, also said that while by the water of baptism, only the filth of the body may be cleansed, but the purification of the soul is only by having a good conscience towards God, i.e., through forgiveness of sins. At that time, for Peter and the other disciples, baptism was simply baptism of immersion into water. That is why he writes that taking a dip in water for baptism can only remove the filth of the body, but the filth of the soul is removed only by being under the control of God. Also bear in mind, as had been reiterated and pointed out in the previous article, the Jews were quite familiar with external washing of the body being used symbolically as an expression of the inner cleansing from sins (Isaiah 1:16; Zechariah 13:1; John 13:10; Hebrews 10:19-22; Titus 3:4-7).
We will continue on this topic in the articles ahead, and consider some other Biblical facts that disprove this contrived necessity of baptism for salvation. If you are a Christian Believer, then please examine your life and make sure that you are actually a Born-Again disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. Whoever may be the preacher or teacher, but you should always, like the Berean Believers, first cross-check and test all teachings that you receive, from the Word of God. Only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Leviticus 25
Mark 1:23-45
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