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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 24
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 2 - संगति (6)
ऐसा व्यावहारिक मसीही जीवन जीने के लिए, जिससे मसीही विश्वासी की बढ़ोतरी, तथा कलीसिया की उन्नति हो, हमें परमेश्वर के वचन में दिए गए निर्देशों का पालन करना आवश्यक है। इस सन्दर्भ में, वर्तमान में हम प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों, जिन्हें “मसीही विश्वास के स्तम्भ” भी कहा जाता है, पर विचार कर रहे हैं। हम इन चारों में से पहले ‘स्तम्भ’ अर्थात परमेश्वर के वचन के अध्ययन के बारे में देख चुके हैं; और अब दूसरे ‘स्तम्भ’ अर्थात संगति रखने पर विचार कर रहे हैं। पिछले लेख में हमने देखा है कि शैतान किस प्रकार से मसीही विश्वासियों को बहका कर, भरमा कर संसार और संसार के लोगों के साथ समझौता करने के पाप में डाल देता है, और उन्हें संगति से दूर कर देता है। ऐसे विश्वासियों का उदाहरण बनाकर शैतान फिर परमेश्वर में विश्वास करने वालों का तमाशा बनाता है, और परमेश्वर को, तथा उसके वचन को ठट्ठों में उड़ाता है। आज हम यहाँ से आगे देखेंगे।
परमेश्वर शैतान की इस युक्ति से अनजान नहीं है, और न ही इसके विरुद्ध निरुपाय है। परमेश्वर ने इसका प्रावधान भी कर के दिया है; लेकिन समाधान तब ही कार्यकारी और प्रभावी होता है, जब उस समाधान की आवश्यकता को पहचान कर, उस समाधान को स्वीकार कर के, बताए गए तरीके से उसे लागू किया जाए, और फिर निरन्तर उस का निर्वाह करते रहें। समाधान सीधा और स्पष्ट है - परमेश्वर के निर्देशों और उसके वचन का पालन करना। अर्थात, अपने जीवन में परमेश्वर और उसके वचन की प्राथमिकता को पुनःस्थापित करना; लौलीन होकर, यत्न के साथ, परमेश्वर के वचन का अध्ययन करना, और उसका पालन करना। अपनी गलती को मानकर सच्चे मन से परमेश्वर की ओर मुड़ने से, उस गिरा दिए गए पहले स्तम्भ को अपने जीवनों में फिर से खड़ा कर लेने से, परमेश्वर के साथ संगति बहाल हो जाती है “जिस के पास मेरी आज्ञा है, और वह उन्हें मानता है, वही मुझ से प्रेम रखता है, और जो मुझ से प्रेम रखता है, उस से मेरा पिता प्रेम रखेगा, और मैं उस से प्रेम रखूंगा, और अपने आप को उस पर प्रगट करूंगा।”; “यीशु ने उसको उत्तर दिया, यदि कोई मुझ से प्रेम रखे, तो वह मेरे वचन को मानेगा, और मेरा पिता उस से प्रेम रखेगा, और हम उसके पास आएंगे, और उसके साथ वास करेंगे।” (यूहन्ना 14:21, 23)।
परमेश्वर के साथ संगति में बने न रहने की समस्या हम मसीही विश्वासियों ने, शैतान की बातों और बहकावे में पड़कर, अपने लिए स्वयं ही उत्पन्न की है। जब तक हम अपने जीवनों में सांसारिकता के, संसार के समान चलने और व्यवहार करने के, परमेश्वर और उसके वचन के नहीं वरन मनुष्यों और उनकी गढ़ी हुई शिक्षाओं के पालन को प्राथमिकता एवं महत्व देने के, और ऐसे ही अन्य पापों को पाप के रूप में नहीं देखेंगे और पाप के समान उनके साथ व्यवहार करके उसका निवारण नहीं करेंगे, समस्या बनी ही रहेगी, परमेश्वर की आशीष, देखभाल, और मार्गदर्शन रुके ही रहेंगे। हम परमेश्वर और उसके वचन को प्राथमिकता देने के स्थान पर केवल औपचारिकताओं का निर्वाह करने के द्वारा समझते हैं, कि हमने तो अपना कर्तव्य पूरा कर लिया है, अब परमेश्वर को भी अपनी बात पूरी करनी चाहिए। हम परमेश्वर से उसके वचन को सीखने और फिर उसका पालन करने की बजाए, मनुष्यों को महत्व और प्राथमिकता देने लगते हैं और उनकी ओर देखने लगते हैं। अपने आप को मनुष्यों पर निर्भर कर लेते हैं, वचन को मनुष्यों से सीखते हैं, मनुष्यों का अनुसरण करने लगते हैं, उनकी बातों को मानने से पहले उन्हें वचन से जाँचे या परखे बिना ही मनुष्यों की कही हुई बातों का पालन करने लगते हैं, और इन कारणों से शैतान की युक्तियों में फंसे रहते हैं। हमने ऊपर देखा है कि पाप का निवारण और पाप से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान पापों की क्षमा है। जब भी विश्वासी पाप करे, उसके पापों के लिए उसे परमेश्वर से क्षमा उपलब्ध है “यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने, और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है” (1 यूहन्ना 1:9); और पाप क्षमा होने के साथ ही परमेश्वर से संगति भी बहाल हो जाती है।
इसी प्रकार पाप द्वारा मनुष्यों में परस्पर संगति टूटने और सम्बन्धों में समस्याएँ आ जाने का भी यही समाधान है - परमेश्वर के वचन के अनुसार प्रभु का सा दीनता और नम्रता का स्वभाव रखना, सहनशील होना, क्षमा माँगना और देना:
इफिसियों 4:31-32 “सब प्रकार की कड़वाहट और प्रकोप और क्रोध, और कलह, और निन्दा सब बैरभाव समेत तुम से दूर की जाए। और एक दूसरे पर कृपालु, और करुणामय हो, और जैसे परमेश्वर ने मसीह में तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी एक दूसरे के अपराध क्षमा करो।”
फिलिप्पियों 2:1-5 “सो यदि मसीह में कुछ शान्ति और प्रेम से ढाढ़स और आत्मा की सहभागिता, और कुछ करुणा और दया है। तो मेरा यह आनन्द पूरा करो कि एक मन रहो और एक ही प्रेम, एक ही चित्त, और एक ही मनसा रखो। विरोध या झूठी बड़ाई के लिये कुछ न करो पर दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझो। हर एक अपनी ही हित की नहीं, वरन दूसरों की हित की भी चिन्ता करे। जैसा मसीह यीशु का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्वभाव हो।”
कुलुस्सियों 3:12-15 “इसलिये परमेश्वर के चुने हुओं की नाईं जो पवित्र और प्रिय हैं, बड़ी करुणा, और भलाई, और दीनता, और नम्रता, और सहनशीलता धारण करो। और यदि किसी को किसी पर दोष देने को कोई कारण हो, तो एक दूसरे की सह लो, और एक दूसरे के अपराध क्षमा करो: जैसे प्रभु ने तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी करो। और इन सब के ऊपर प्रेम को जो सिद्धता का कटिबन्ध है बान्ध लो। और मसीह की शान्ति जिस के लिये तुम एक देह हो कर बुलाए भी गए हो, तुम्हारे हृदय में राज्य करे, और तुम धन्यवादी बने रहो।”
मसीही विश्वासियों को सक्रिय विश्वास का जीवन जीना पड़ेगा; समस्या के निवारण के लिए केवल प्रार्थना ही नहीं करनी है, बल्कि परमेश्वर के वचन में दिए गए उपाय का निर्वाह भी करना है। वचन का पालन करेंगे तो परमेश्वर से संगति बनी रहेगी। परमेश्वर से संगति सही होगी, तो मनुष्यों के साथ भी संगति सही हो जाएगी, प्रेम और एक-मनता आ जाएगी। जब परमेश्वर के लोगों में परस्पर संगति, प्रेम और एक-मनता होंगे, तो प्रभु की सामर्थ्य भी उनके साथ होगी, और तब वे शैतान और उसकी युक्तियों में नहीं फँसेंगे, वे प्रभु के लिए उपयोगी और एक जयवन्त मसीही जीवन जीने वाले लोग होंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 24
The Four Pillars of Christian Living - 2 - Fellowship (6)
To live a practical Christian life that leads to the growth of the Christian Believer and the edification of the Church, we must follow the instructions given in God's Word. In this context, we are currently considering the four points found in Acts 2:42, also known as the “Pillars of the Christian faith.” We have already seen the first of these four ‘pillars,’ i.e., the study of the Word of God; we are now considering the second ‘pillar,’ i.e., Fellowship. In the previous article we saw how Satan deceives and misleads Christians into the sin of compromising with the world and the people of the world, and thereby breaks them away from fellowship with Go and His people. By using such believers as an example, Satan then makes a mockery of coming to faith in the Lord, of God, and of His Word. Today we will look ahead from here.
God is not unaware of Satan's tactics, nor is He helpless against them. God has already made provision for this; but the remedy can only be made functional and effective, when the need for that remedy is recognized, that remedy is accepted, is implemented in the prescribed manner, and then is followed regularly. The remedy is simple and obvious – follow God's instructions and His Word. That is, restore the priority of God and His Word in your life; begin diligently, and steadfastly studying God's Word and obeying it. Accepting your error and turning to God with a true heart, restoring that first fallen pillar in your life, restores the fellowship with God "He who has My commandments and keeps them, it is he who loves Me. And he who loves Me will be loved by My Father, and I will love him and manifest Myself to him." "Jesus answered and said to him, "If anyone loves Me, he will keep My word; and My Father will love him, and We will come to him and make Our home with him." (John 14:21, 23).
We Christians, by falling prey to Satan's suggestions and deception, have created for ourselves the problem of not maintaining our fellowship with God. Unless we recognize the presence of worldliness in our lives, our living and behaving like the world, our giving priority and importance to following men and their contrived teachings rather than God and His Word, and other such sins; unless we see these and other such things that are present in our lives as the sin that they are, and treat them like sin, the problem will remain. Consequently, God's blessings, care, and guidance will remain absent from our lives. Instead of giving the actual priority to God and His Word in our lives, we merely carry on treating them as rituals and formalities; and then we think that since we have done our duty, therefore, now God must also do His part. Instead of learning His Word from God and then obeying it, we begin to give importance and priority to men and look up to them. We make ourselves dependent on men, learn the Word from men, follow men, do what men say without first checking and affirming what they say from the Word of God, before accepting and following their words, and because of these reasons we remain trapped in the schemes of the devil. We have seen above that the remedy for sin and the solution to the problems arising from sin is forgiveness of sins. Whenever a believer sins, he readily has available to him forgiveness from God for his sins "If we confess our sins, He is faithful and just to forgive us our sins and to cleanse us from all unrighteousness." (1 John 1:9).
Similarly, the same remedy is applicable for the sins that break our fellowship with other people, and creates problems in our relationships. According to God's Word, like it was with the Lord, we too need to maintain an attitude of humility and meekness, to be tolerant, be willing to ask for and give forgiveness:
· Ephesians 4:31-32 "Let all bitterness, wrath, anger, clamor, and evil speaking be put away from you, with all malice. And be kind to one another, tenderhearted, forgiving one another, just as God in Christ forgave you."
· Philippians 2:1-5 "Therefore if there is any consolation in Christ, if any comfort of love, if any fellowship of the Spirit, if any affection and mercy, fulfill my joy by being like-minded, having the same love, being of one accord, of one mind. Let nothing be done through selfish ambition or conceit, but in lowliness of mind let each esteem others better than himself. Let each of you look out not only for his own interests, but also for the interests of others. Let this mind be in you which was also in Christ Jesus."
· Colossians 3:12-15 "Therefore, as the elect of God, holy and beloved, put on tender mercies, kindness, humility, meekness, longsuffering; bearing with one another, and forgiving one another, if anyone has a complaint against another; even as Christ forgave you, so you also must do. But above all these things put on love, which is the bond of perfection. And let the peace of God rule in your hearts, to which also you were called in one body; and be thankful."
Christians must live a life of active faith; To solve the problem, one must not only pray about it, but also carry out the remedies given in God's Word for it. If we obey God’s Word, we will remain in fellowship with God. If the fellowship with God is right, then our fellowship with people will also be right, there will be love and unity. When God's people have mutual fellowship, love, and unity, then the power of the Lord will also be with them. Then they will no longer be trapped by Satan and his schemes, and will be people who not only are useful to the Lord but also live a victorious Christian life.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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