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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 23
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 2 - संगति (5)
मसीही विश्वासियों और कलीसियाओं की बढ़ोतरी के लिए हम व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित शिक्षाओं को देख रहे हैं। वर्तमान में हम प्रेरितों 2:42 में दी गई और “मसीही जीवन के स्तम्भ” कही जाने वाली चार बातों में से दूसरी, संगति रखने के बारे में विचार कर रहे हैं। पिछले दो लेखों में हमने बहुत संक्षेप में उन सात अनुपम और अद्भुत आशीषों के बारे में देखा है जो पापों से पश्चाताप करके, प्रभु यीशु तो उद्धारकर्ता ग्रहण करने और अपना जीवन उसे समर्पण कर देने के द्वारा, प्रत्येक मसीही विश्वासी को सेंत-मेंत मिल जाती हैं। हमने यह भी देखा है कि मसीही विश्वास से बाहर, संसार में कहीं भी, इन अद्भुत आशीषों के समान कोई भी बात मिलनी तो दूर, उनका उल्लेख भी नहीं मिलता है। केवल मसीही विश्वास ही एकमात्र है जिसमें दिखाया गया है कि परमेश्वर, एक प्रेमी पिता के समान, बड़े धैर्य और सहनशीलता के साथ, हमेशा और हर बात में अपने लोगों की, अपनी सन्तानों की, केवल भलाई ही करते रहने के लिए प्रयासरत रहता है, उनकी सहता रहता है, उन्हें न केवल इस संसार में वरन अपने साथ स्वर्ग में भी आशीषित रखना चाहता है। मसीही विश्वास के अतिरिक्त अन्य सभी में लोग किसी न किसी प्रकार से अपने इष्ट-देव को प्रसन्न करने या प्रसन्न बनाए रखने के प्रयासों में लगे रहते हैं, और अपने इष्ट-देव से उनकी आशाएं केवल भौतिक वस्तुओं और इस संसार के जीवन तक ही सीमित होती हैं। मसीही विश्वासियों के लिए ये आशीषें परमेश्वर तथा मनुष्यों के साथ उनकी संगति बहाल हो जाने पर आधारित हैं। आज हम इसी विषय पर थोड़ा और आगे देखेंगे।
शैतान इस संगति की सामर्थ्य को, और कैसे यह संगति उसके कार्यों और योजनाओं के लिए घातक है, इस बात को भली-भांति जानता और समझता है। इसीलिए, उसका भरसक प्रयास रहता है कि वह इस संगति को किसी न किसी रीति से बिगाड़े। हम मत्ती 18:19-20 से देख चुके हैं कि यह संगति, एकता, एक-मनता, मसीही विश्वासी की, कलीसिया की सामर्थ्य है। जहाँ विश्वासियों और कलीसिया में यह संगति और एक-मनता है, वहाँ प्रभु की सामर्थ्य है। प्रभु की सामर्थ्य से ही प्रभु की सफल सेवकाई है, परमेश्वर के वचन तथा सुसमाचार का प्रभावी प्रचार और प्रसार है, लोगों का उद्धार है; जो शैतान और उसके राज्य के लिए घातक है। इसलिए वह इस संगति और एक-मनता को बने नहीं रहने देना चाहता है, इसे भंग या छिन्न-भिन्न करना चाहता है। ऐसा करने के लिए, शैतान उसी हथियार को प्रयोग करता है, जो उसने अदन की वाटिका में संगति तोड़ने के लिए किया था - पाप करवाना। जैसा हमने ऊपर देखा है, जहाँ पाप है, वहाँ संगति नहीं है - न परमेश्वर के साथ, और न ही मनुष्यों के साथ। और जैसे ही यह संगति, यह एक मनता टूटेगी, विश्वासी और कलीसिया की सामर्थ्य भी जाती रहेगी। शिमशोन की ताकत उसके नाज़िर बने रहने में थी, और नाज़िर होने का एक गुण था बालों को न काटना; शिमशोन के बाल कटते ही उसके नाज़िर होने की शर्त टूट गई, उसकी सामर्थ्य जाती रही, और फिर पलिश्तियों ने उसके साथ मन-माना दुर्व्यवहार किया। विश्वासी से पाप करवाकर, उसकी सामर्थ्य को समाप्त करवा कर, शैतान आज विश्वासियों और कलीसिया के साथ भी मन-मानी कर रहा है, उन्हें अपनी उँगलियों पर नचा रहा है, संसार के सामने उनका तमाशा बनाकर परमेश्वर और प्रभु को, परमेश्वर के वचन को ठट्ठों में उड़ा रहा है।
श्रेष्ठगीत 2:15 में लिखा है “जो छोटी लोमडिय़ां दाख की बारियों को बिगाड़ती हैं, उन्हें पकड़ ले…;” मसीही विश्वासियों के व्यक्तिगत, तथा कलीसिया के रूप में उनके सामूहिक जीवनों में आज अनेकों प्रकार के पापों ने घर कर रखा है। वे सांसारिकता और संसार की बातों के साथ समझौते करने, संसार तथा अन्यजातियों के अनुरूप चलने में लगे हुए हैं। वे परमेश्वर और परमेश्वर के वचन से अधिक मनुष्यों और मनुष्यों की बनाई हुई शिक्षाओं तथा गढ़ी हुई बातों को महत्व देने और पालन करने वाले बन गए हैं; उनका प्रयास रहता है कि चाहे परमेश्वर अप्रसन्न हो, चाहे परमेश्वर के वचन का उल्लंघन हो, लेकिन मनुष्य को अप्रसन्न नहीं होना चाहिए, और मनुष्य की कही हुई बातों, दी गई शिक्षाओं का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। इस प्रकार से वे जीवन तो शैतान के अनुसार जी रहे हैं, किन्तु स्वीकृति, प्रशंसा, और आशीष परमेश्वर से चाहते हैं। और फिर अचरज करते हैं कि क्यों लोगों में एक-मनता नहीं है? परिवारों में, जो संगति का मूल स्वरूप और आधार हैं, क्यों तनाव और बिखराव है? क्यों कलीसियाएं उन्नति करने की बजाए गिरती और घटती जा रही हैं? जहाँ परमेश्वर और उसके वचन की प्राथमिकता और आज्ञाकारिता नहीं है, वहाँ परमेश्वर की देखभाल और आशीष कैसे होगी? परमेश्वर को ऊपरी दिखावा और औपचारिकता का निर्वाह नहीं, सच्ची आज्ञाकारिता चाहिए। शमूएल नबी ने राजा शाऊल को उसकी अनाज्ञाकारिता के लिए परमेश्वर की ओर से फटकार लगाते हुए कहा “शमूएल ने कहा, क्या यहोवा होमबलियों, और मेलबलियों से उतना प्रसन्न होता है, जितना कि अपनी बात के माने जाने से प्रसन्न होता है? सुन मानना तो बलि चढ़ाने और कान लगाना मेढ़ों की चर्बी से उत्तम है। देख बलवा करना और भावी कहने वालों से पूछना एक ही समान पाप है, और हठ करना मूरतों और गृह-देवताओं की पूजा के तुल्य है। तू ने जो यहोवा की बात को तुच्छ जाना, इसलिये उसने तुझे राजा होने के लिये तुच्छ जाना है” (1 शमूएल 15:22-23; साथ ही यशायाह 1:10-20 भी देखिए)।
साथ ही हमारे दयालु और अनुग्रहकारी परमेश्वर पिता ने अपने लोगों, अपनी सन्तानों से यह वायदा भी किया है “परन्तु यदि तुम मेरी ओर फिरो, और मेरी आज्ञाएं मानो, और उन पर चलो, तो चाहे तुम में से निकाले हुए लोग आकाश की छोर में भी हों, तौभी मैं उन को वहां से इकट्ठा कर के उस स्थान में पहुंचाऊंगा, जिसे मैं ने अपने नाम के निवास के लिये चुन लिया है” (नहेम्याह 1:9); और “इसलिये तू इन लोगों से कह, सेनाओं का यहोवा यों कहता है: तुम मेरी ओर फिरो, सेनाओं के यहोवा की यही वाणी है, तब मैं तुम्हारी ओर फिरूंगा, सेनाओं के यहोवा का यही वचन है” (ज़कर्याह 1:3)। अगले लेख में हम यहाँ से और आगे देखेंगे, तथा इस स्थिति के लिए परमेश्वर के प्रावधान को देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 23
The Four Pillars of Christian Living - 2 - Fellowship (5)
We are looking at the teachings related to practical Christian living for the growth of the Christian Believers and the Churches. We are currently considering “fellowship,” which is the second of the four “Pillars of the Christian life” given in Acts 2:42. In the last two articles, we have looked very briefly at the seven unique and wonderful blessings that every Christian Believer freely receives on repenting of sins, accepting the Lord Jesus as his Savior, and surrendering his life to Him. We have also seen that outside the Christian faith, none of these wonderful blessings are even mentioned, let alone be found, anywhere in the world. The Christian faith is the only one that shows that God, as a loving father, with great patience and forbearance, always and in all things strives to do only good for His people, His children. He wants to keep them blessed not only in this world but also with Him in heaven. Apart from Christian Faith, everywhere else, people are engaged in trying to please or to keep their deity happy, in some way or the other; and their expectations from their deity are limited only to the physical things and life of this world. For the Christian Believers, these blessings are based on their being restored to fellowship with God and men. Today we will look a little further on this topic.
Satan knows and understands very well the power of this fellowship, and how this fellowship is detrimental to his works and plans. Therefore, he tries his best to spoil this fellowship, in some way or the other. We have seen from Matthew 18:19-20 that this fellowship, unity, being one minded, is the strength of the Christian Believers, and of the Church. Where there is fellowship and unity amongst the Believers and the Church, the power of the Lord is there among them. It is only by the power of the Lord that a successful ministry for the Lord, the effective preaching and spreading of God's Word and gospel, and people's salvation are possible; Which is fatal for Satan and his kingdom. Therefore, he does not want to allow this fellowship and unity to continue, he wants to break or disintegrate it. To do this, Satan uses the same weapon he used to break fellowship in the Garden of Eden – incitement to sin. As we have seen above, wherever there is sin, there can be no fellowship – neither with God, nor with men. And as soon as this fellowship, this unity, is broken, the strength of the Believers and the Church will also be lost. Samson's strength lay in his being a Nazirite, and one of the characteristics of being a Nazirite was not cutting his hair; As soon as Samson's hair was cut, his status as a Nazirite was broken, he lost his strength, and then the Philistines misused and abused him whichever way they wanted, to their heart's content. By causing Believers to sin and thereby lose their power, today Satan is playing havoc amongst the Believers and the Church as well, making them dance to his tunes, making a spectacle of them in front of the world, mocking and insulting God, the Lord, and God's Word.
Song of Solomon 2:15 reads “Catch us the foxes, The little foxes that spoil the vines…;” Many types of sins have taken a hold in the personal lives of Christians today, and also in their corporate lives as a Church. They are engaged in worldliness and in compromising with the things of the world, conforming to the world, living and behaving as the Gentiles do. They have become those who prefer to value and follow some man, man-made teachings, and contrived doctrines, over and above God and God's Word. It does not matter to them if God is displeased, or if God's Word is violated; what matters to them is that man should not be displeased, and man’s sayings and teachings should be followed. Thereby, they are living their lives according to Satan, but want the approval, praise, and blessings from God. And then they wonder why there is no unity among them? Why is there tension and disintegration in families, which are the basic form and basis of fellowship? Why are the Church numbers declining and Churches degenerating instead of growing and progressing? How can God's care and blessing be there, where the necessary priority and obedience to God and His Word are missing? What God requires is true obedience, not some superficial pretense and formality. The prophet Samuel, on behalf of God, rebuked King Saul for his disobedience "So Samuel said: "Has the Lord as great delight in burnt offerings and sacrifices, As in obeying the voice of the Lord? Behold, to obey is better than sacrifice, And to heed than the fat of rams. For rebellion is as the sin of witchcraft, And stubbornness is as iniquity and idolatry. Because you have rejected the word of the Lord, He also has rejected you from being king."" (1 Samuel 15:22-23; also see Isaiah 1:10-20).
But our merciful and gracious God the Father, has also made this promise to His people, His children: "but if you return to Me, and keep My commandments and do them, though some of you were cast out to the farthest part of the heavens, yet I will gather them from there, and bring them to the place which I have chosen as a dwelling for My name.'" (Nehemiah 1:9); and "Therefore say to them, 'Thus says the Lord of hosts: "Return to Me," says the Lord of hosts, "and I will return to you," says the Lord of hosts." (Zechariah 1:3). In the next article we will look further from here, and look at God's provision for this situation.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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