प्रभु यीशु की कलीसिया
संबंधी रूपकों में होकर कलीसिया के लिए प्रभु के प्रयोजन समझें - 3
प्रभु यीशु की कलीसिया के लिए परमेश्वर
के वचन बाइबल के नए नियम खंड में विभिन्न रूपक (metaphors) दिए गए हैं, जैसे कि - प्रभु का परिवार या घराना; परमेश्वर का
निवास-स्थान या मन्दिर; परमेश्वर का भवन; परमेश्वर की खेती; प्रभु की देह; प्रभु की दुल्हन; परमेश्वर की दाख की बारी, इत्यादि। इन रूपकों में होकर परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रभु द्वारा अपनी
कलीसिया, अर्थात, अपने सच्चे और
समर्पित शिष्यों का धर्मी और पवित्र किए जाना, परमेश्वर के
साथ कलीसिया के संबंध, संगति, एवं
सहभागिता की बहाली, तथा कलीसिया के लोगों के व्यवहार और
जीवनों में परमेश्वर के प्रयोजन, उन से उसकी अपेक्षाएं,
आदि को समझाया है। हमने यहाँ पर इन लेखों में रूपकों को किसी
निर्धारित अथवा विशेष क्रम में नहीं लिया अथवा रखा है; सभी
रूपक समान ही महत्वपूर्ण हैं, सभी में मसीही जीवन से संबंधित
कुछ आवश्यक शिक्षाएं हैं।
इन सभी रूपकों में सामान्य बात है कि
इनमें से प्रत्येक रूपक, एक सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी मसीही विश्वासी के प्रभु यीशु और पिता परमेश्वर के साथ संबंध को,
तथा उसके मसीही जीवन, और दायित्वों के विभिन्न
पहलुओं को दिखाता है। साथ ही प्रत्येक रूपक यह भी बिलकुल स्पष्ट और निश्चित कर
देता है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रकार के किसी भी मानवीय प्रयोजन, कार्य, मान्यता या धारणा के निर्वाह आदि के द्वारा,
अपनी अथवा किसी अन्य मनुष्य की ओर से परमेश्वर की कलीसिया का सदस्य
बन ही नहीं सकता है; वह चाहे कितने भी और कैसे भी प्रयास
क्यों न कर ले। अगर व्यक्ति प्रभु यीशु की कलीसिया का सदस्य होगा, तो वह केवल प्रभु की इच्छा से, उसके माप-दंडों के
आधार पर, उसकी स्वीकृति से होगा, अन्यथा
कोई चाहे कुछ भी कहता रहे, वह चाहे किसी मानवीय कलीसिया अथवा
किसी संस्थागत कलीसिया का सदस्य चाहे हो जाए, किन्तु प्रभु
की वास्तविक कलीसिया का सदस्य हो ही नहीं सकता है। और यदि वह अपने आप को प्रभु की
कलीसिया का सदस्य समझता या कहता भी है, तो भी प्रभु उसकी
वास्तविकता देर-सवेर प्रकट कर देगा, और अन्ततः वह अनन्त
विनाश के लिए प्रभु की कलीसिया से पृथक कर दिया जाएगा। इसलिए अपने आप को मसीही
विश्वासी कहने वाले प्रत्येक जन के लिए अभी समय और अवसर है कि अभी अपने ‘मसीही विश्वासी’ होने के आधार एवं वास्तविक स्थिति
को भली-भांति जाँच-परख कर, उचित कदम उठा ले और प्रभु के साथ
अपने संबंध ठीक कर ले। हर व्यक्ति को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि वह किसी
मानवीय कलीसिया अथवा किसी संस्थागत कलीसिया का नहीं, परंतु
प्रभु यीशु की वास्तविक कलीसिया का सदस्य है।
पिछले लेखों में हम इस सूची के पहले दो
रूपकों को देख चुके हैं। आज हम इस सूची के तीसरे रूपक, परमेश्वर का भवन होने के
संबंध में देखेंगे, जो इससे पहले वाले रूपक, परमेश्वर का निवास स्थान या मन्दिर होने से मिलता-जुलता है।
(3) परमेश्वर का भवन
कलीसिया और
उसके सदस्यों के परमेश्वर का भवन होने से संबंधित
परमेश्वर के वचन बाइबल में से कुछ पदों को देखिए:
- “परमेश्वर के उस अनुग्रह के अनुसार, जो मुझे
दिया गया, मैं ने बुद्धिमान राज-मिस्री के समान नींव
डाली, और दूसरा उस पर रद्दा रखता है; परन्तु हर एक मनुष्य चौकस रहे, कि वह उस पर
कैसा रद्दा रखता है। क्योंकि उस नींव को छोड़ जो
पड़ी है, और वह यीशु मसीह है कोई दूसरी नींव
नहीं डाल सकता” (1 कुरिन्थियों 3:10-11)।
- “और प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं की नींव पर जिसके कोने का पत्थर
मसीह यीशु आप ही है, बनाए गए हो। जिस में सारी रचना एक
साथ मिलकर प्रभु में एक पवित्र मन्दिर बनती जाती है” (इफिसियों 2:20-21)।
- “तुम भी आप जीवते पत्थरों के समान आत्मिक घर बनते जाते हो, जिस से याजकों का पवित्र समाज बन कर, ऐसे
आत्मिक बलिदान चढ़ाओ, जो यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर
को ग्राह्य हों। इस कारण पवित्र शास्त्र में भी आया है, कि देखो, मैं सिय्योन में कोने के सिरे का चुना
हुआ और बहुमूल्य पत्थर धरता हूं: और जो कोई उस पर विश्वास करेगा, वह किसी रीति से लज्जित नहीं होगा। सो तुम्हारे लिये जो विश्वास करते
हो, वह तो बहुमूल्य है, पर जो
विश्वास नहीं करते उन के लिये जिस पत्थर को राजमिस्त्रीयों ने निकम्मा ठहराया
था, वही कोने का सिरा हो गया” (1 पतरस 2:5-7)।
यह एक सामान्य
एवं सर्व-विदित तथ्य है कि हर भवन एक नींव पर बनाया जाता है, जो दिखाई तो नहीं देती है किन्तु उस भवन की स्थिरता और स्थापना के लिए
सबसे महत्वपूर्ण भाग है। नींव जितनी गहरी और दृढ़ होगी, भवन
उतना ऊंचा और स्थिर बनेगा। साथ ही उस नींव का एक अति-महत्वपूर्ण अंश होता है उसके
सिरे या कोने का पत्थर; इस पत्थर से ही भवन की दीवारों की
सीध और दिशा देखी और नापी जाती है। यदि इस कोने के पत्थर में कुछ भी टेढ़ापन होगा,
तो भवन का निर्माण और स्वरूप भी टेढ़ा होगा। नींव और भवन की स्थिरता
से संबंधित तीसरी अति-महत्वपूर्ण बात है वह भूमि जिस पर भवन बनाया जा रहा है। यदि
भूमि अस्थिर या रेतीली होगी, तो नींव भी अस्थिर रहेगी,
और भवन कभी दृढ़ और स्थिर नहीं होगा; किसी परिस्थिति
को सहन नहीं कर पाएगा, और विपरीत परिस्थितियों में बहुत
शीघ्र ही ढह जाएगा। जब परमेश्वर का प्रथम मन्दिर, सुलैमान
द्वारा बनवाया जा रहा था, तो उसकी नींव साधारण पत्थरों से
नहीं डाली गई; वरन उसके लिए लिखा है “फिर राजा की आज्ञा से बड़े बड़े अनमोल पत्थर इसलिये खोदकर निकाले गए कि
भवन की नेव, गढ़े हुए पत्थरों से डाली जाए” (1 राजाओं 5:17) - बड़े-बड़े और अनमोल पत्थर खोद कर
निकाले गए, गढ़कर तैयार किए गए और तब परमेश्वर के मन्दिर की
नींव में स्थापित किए गए।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए, प्रभु की कलीसिया,
जिसे परमेश्वर का भवन कहा गया है, प्रभु की
शिक्षाओं रूपी दृढ़ चट्टान (मत्ती 7:24-25) पर तथा परमेश्वर
के भविष्यद्वक्ताओं और प्रेरितों में होकर पवित्र आत्मा द्वारा परमेश्वर के वचन
में दी गई शिक्षाओं पर स्थापित है (1 कुरिन्थियों 3:10-11;
इफिसियों 2:20-21), तथा इस नींव में भवन को
सही स्वरूप देने के लिए प्रभु यीशु मसीह स्वयं ही नींव और भवन
का कोने का पत्थर है। साथ ही हम 1 कुरिन्थियों 3:10 से यह भी सीखते हैं
इस नींव पर भवन बनाने के लिए रद्दा, अर्थात निर्माण के लिए
प्रयोग किए जाने वाले पत्थरों की एक के ऊपर दूसरी तह या परत, प्रभु के अन्य सेवक रखते जा रहे हैं। यह भवन अभी निर्माणाधीन है, और भवन जिन पत्थरों से बन रहा है वे जीवते पत्थर, अर्थात
मसीही विश्वासी हैं (1 पतरस 2:5)। हम
प्रभु की कलीसिया के वर्तमान में निर्माणाधीन होने वाले 10 जनवरी के लेख में 1 राजाओं 6:7 से
तथा अन्य संबंधित पदों से इसके बार में विस्तार से देख चुके हैं। परमेश्वर के भवन
के बनाने से संबंधित सामग्री में इन विशेषताओं के विद्यमान होने की अनिवार्यताओं
को ध्यान में रखते हुए, एक बार फिर से यह बात प्रकट है कि
परमेश्वर का भवन केवल प्रभु यीशु के प्रति सच्चे विश्वास, समर्पण,
और निष्ठा रखने वालों से ही बनाया जा सकता है, कोई भी मनुष्य या संस्था इसमें अपनी ओर से कुछ नहीं कर सकते हैं। प्रभु की कलीसिया, प्रभु ही बनाता है,
वह किसी मनुष्य द्वारा नहीं बनाई जाती है।
भवन बनाने से
संबंधित एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य भी है, जिसका ध्यान रखा जाना
चाहिए। हर भवन, अपनी नींव पर ही बनाया जाता है। यदि संपूर्ण
नींव का प्रयोग नहीं किया जाएगा, तो भवन अधूरा रहेगा;
और यदि नींव के बाहर बिना नींव के कुछ बनाया जाएगा तो वह अस्थिर
होगा, और शीघ्र ही ढह भी जाएगा। प्रेरित पौलुस ने अपनी
सेवकाई और शिक्षाओं के लिए कहा, “क्योंकि मैं परमेश्वर की
सारी मनसा को तुम्हें पूरी रीति से बनाने से न झिझका” (प्रेरितों
20:27); और “हर एक पवित्र शास्त्र
परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने,
और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिये
लाभदायक है” (2 तीमुथियुस 3:16)। इसीलिए
किसी मनुष्य को परमेश्वर के वचन की बातों में कोई भी काट-छाँट या बढ़ोतरी करना,
कड़ाई से मना किया गया है; ऐसा करने वाले के लिए भारी दण्ड
रखा गया है (व्यवस्थाविवरण 4:2; 12:32; नीतिवचन 30:6;
प्रकाशितवाक्य 22:18-19)। प्रभु हम साधारण
मनुष्यों को लेकर, जगत के उन तिरस्कृत, अयोग्य, और मूर्ख लोगों (1 कुरिन्थियों
1:26-28) के द्वारा, जिन्होंने उस पर
विश्वास किया, पापों से पश्चाताप करके, उसकी आज्ञाकारिता में चलने और बने रहने के लिए अपना जीवन उसे समर्पित कर
दिया है, परमेश्वर के लिए ऐसे याजकों के पवित्र समाज को खड़ा
कर रहा है, जो परमेश्वर को स्वीकार्य आत्मिक बलिदान यीशु
मसीह में होकर चढ़ाने वाले हों, (1 पतरस 2:5); एक चुना हुआ वंश, व्यवस्था के याजकों से भी उच्च
श्रेणी के “राजपद धारी याजकों” का समाज,
परमेश्वर की निज प्रजा बना रहा है, जिससे कि
हम उसके गुणों को संसार के सामने प्रकट करें (1 पतरस 2:9)। प्रभु की कलीसिया परमेश्वर का ऐसा भवन बनें जो परमेश्वर की
भव्यता, महानता और महिमा को प्रकट करे। प्रभु की कलीसिया के
सभी लोग साथ मिलकर परमेश्वर का निवास स्थान हों (इफिसियों 2:22)। यह ऐसी ईश्वरीय आशीष और स्वर्गीय आदर है जो कोई
भी मनुष्य या मानवीय प्रयोजन कभी किसी मनुष्य को नहीं दे सकता है।
यदि आप मसीही
विश्वासी हैं तो, क्या आपका मसीही जीवन, चाल-चलन, और सामाजिक व्यवहार उस नींव की गवाही देता
है जिस पर प्रभु ने आपको बनाया है? क्या परमेश्वर के वचन की
शिक्षाएं आपके जीवन शैली का आधार हैं। जो प्रभु के द्वारा अपनी कलीसिया में जोड़ा
गया होगा, वह प्रभु के समान और प्रभु की आज्ञाकारिता में
चलने का भी प्रयत्न करता रहेगा (1 यूहन्ना 2:3-6)। किन्तु जो किसी मत, समुदाय, डिनॉमिनेशन,
या संस्था के द्वारा, किसी मानवीय प्रक्रिया
के द्वारा कलीसिया में जोड़ा गया होगा, वह उस मानवीय संस्थान
की बातों का, उसके अधिकारियों एवं लोगों को प्रसन्न करने के
प्रयास करेगा; उसके जीवन में बाइबल की नहीं, उस संस्थान के बातें प्राथमिकता पाएंगी। आपके जीवन में प्राथमिकता किस की
है? आप से कौन प्रसन्न रहता है - प्रभु यीशु या कुछ मनुष्य?
ध्यान कीजिए पौलुस ने अपनी सेवकाई और प्राथमिकताओं के विषय लिखा,
“यदि मैं अब तक मनुष्यों को ही प्रसन्न करता रहता, तो मसीह का दास न होता” (गलातियों 1:10)। यदि आपको अपने प्रभु की कलीसिया का वास्तविक, प्रभु
के द्वारा बनाया गया सदस्य होने पर जरा सा भी संदेह है, तो
अभी, समय और अवसर रहते, इसे ठीक कर
लीजिए। अन्यथा लापरवाही या विलंब बहुत भारी पड़ सकता है और अनन्तकाल के लिए कष्टदायक हो
सकता है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- उत्पत्ति
33-35
- मत्ती 10:1-20
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें