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जीवन, साहित्य, कला, और सभ्यताओं पर प्रभाव में अनुपम
बाइबल के द्वारा जिस प्रकार से लोगों के जीवन परिवर्तित हुए और हो रहे हैं, वह विलक्षण है। संसार भर में अनगिनत लोग हैं, जिन्होंने बाइबल को पढ़ा, परमेश्वर को पहचाना, और उसे अपना जीवन समर्पित कर दिया। यह परिवर्तन संसार के हर स्थान, हर धर्म, हर विचारधारा के लोगों में देखा जाता है, नास्तिकों में भी। बाइबल के वचन लोगों को उनके पापों के लिए कायल करते हैं, बेचैन करते हैं। जो संवेदनशील होकर अपने विवेक की आवाज़ को सुनते हैं, अपने कायल होने के अनुसार, विचार-विमर्श करते हैं, सच्चाई को पहचानने का प्रयास करते हैं, परमेश्वर का वचन उनसे बात करता है, उन्हें सही मार्ग दिखाता है, और उन्हें उनके पापों के लिए पश्चाताप में लेकर आता है। यह सिलसिला लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व, प्रभु यीशु के शिष्य पतरस द्वारा यरूशलेम में धार्मिक पर्व मनाने के लिए एकत्रित हुए धर्मी यहूदियों के मध्य किए गए प्रचार से आरंभ हुआ था; जिसके विषय लिखा है: "तब सुनने वालों के हृदय छिद गए, और वे पतरस और शेष प्रेरितों से पूछने लगे, कि हे भाइयों, हम क्या करें? पतरस ने उन से कहा, मन फिराओ, और तुम में से हर एक अपने अपने पापों की क्षमा के लिये यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा ले; तो तुम पवित्र आत्मा का दान पाओगे" (प्रेरितों 2:37-38), और परमेश्वर के वचन के उस एक प्रचार परिणामस्वरूप "सो जिन्होंने उसका वचन ग्रहण किया उन्होंने बपतिस्मा लिया; और उसी दिन तीन हजार मनुष्यों के लगभग उन में मिल गए" (प्रेरितों 2:41)। और तब से लेकर आज दिन तक, तब यरूशलेम से लेकर आज संसार के हर स्थान में, यह सिलसिला अविरल, नियमित चलता चला आ रहा है।
प्रतिदिन, प्रतिपल, संसार भर में लोगों के जीवन बदले जा रहे हैं। जिन्होंने परमेश्वर के वचन के सत्य को पहचाना, वो फिर उसके लिए अपने घर-बार, जमीन-जायदाद तथा नौकरी-व्यवसाय छोड़ने, यहाँ तक कि प्राणों की भी आहुति देने के लिए तैयार हो गए, किन्तु बाइबल द्वारा उनके जीवनों में आए परिवर्तन से फिर मुंह नहीं मोड़ा। जो बाइबल के आज्ञाकारी हो गए, उनके जीवन की दिशा और प्राथमिकताएं बदल गईं; जिन बुरी आदतों और व्यवहारों को वो छोड़ नहीं पा रहे थे, या जो बातें पहले उन्हें बुरी लगती भी नहीं थीं, वे बाइबल की आज्ञाकारिता में आ जाने के बाद स्वतः ही उनके जीवनों से जाती रहीं। उन्हें बहुधा अपने इस विश्वास और निर्णय की एक बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी, समाज और परिवार का बहुत विरोध सहन करना पड़ा, किन्तु सत्य की पहचान हो जाने के बाद, फिर वे उस सत्य पर बने ही रहे, सहते रहे, निभाते रहे, और परमेश्वर की शांति तथा आशीषों का अनुभव करने वाले, तथा औरों को उसके बारे में बताने वाले बन गए।
संसार भर के साहित्य और कला पर बाइबल की बातों, घटनाओं, शिक्षाओं, और पात्रों ने बहुत गहरी छाप छोड़ी है। बाइबल से संबंधित बातों को लेकर जितनी पुस्तकें, लेख, कहानियाँ, उपन्यास, गीत, कविताएं, नाटक आदि लिखे गए हैं उतने किसी भी अन्य पुस्तक के द्वारा कभी भी प्रेरित होकर नहीं रचे या लिखे गए हैं। साहित्य में अनेकों मुहावरे बाइबल की शिक्षाओं और बातों से निकले हैं। कला के क्षेत्र में भी जितनी कलाकृतियाँ बाइबल की बातों के आधार पर बनाई गई हैं, उतनी संसार की किसे भी अन्य पुस्तक की बातों के आधार पर नहीं बनी हैं - वे चाहे शिल्प कला और मूर्तियाँ हों, विभिन्न प्रकार के चित्र हों, या संगीत कला में स्तुति गीत और भजन आदि हों। इस प्रकार की प्रेरणा पाई हुई कृतियाँ अन्य हर धर्म और विश्वास और स्थान में भी पाई जाती हैं, किन्तु वे अधिकांशतः किसी एक विशेष स्थान या क्षेत्र, और भाषा, संस्कृति आदि तक ही सीमित रहती हैं। किन्तु जितनी संख्या और विविधता में बाइबल की प्रेरणा से संसार भर में हर प्रकार के साहित्य और कला पर प्रभाव निरंतर चलता चला आ रहा है, वह अभूतपूर्व है, अनुपम है, विलक्षण है; उसका कोई सानी नहीं है।
बाइबल में दी गई परमेश्वर की दस आज्ञाएँ अपने आप में अनुपम और अनूठी हैं। पुराने नियम में निर्गमन 20:1-17 में दी गई इन दस आज्ञाओं में परमेश्वर के स्वरूप और चरित्र, मनुष्य और परमेश्वर के संबंध, तथा मनुष्य के साथ मनुष्य के पारिवारिक एवं सामाजिक संबंधों के विषय परमेश्वर की आज्ञाएँ दी गई हैं। और अद्भुत, विलक्षण बात यह है कि संसार के किसी भी देश के किसी भी संविधान में, वह चाहे कितना भी वृहत क्यों न हो, ऐसा कुछ नहीं है, जो इन दस आज्ञाओं की परिधि में न पाया जाता हो, या इनके अन्तर्गत न देखा जा सकता हो।
प्रभु यीशु मसीह के प्रभाव के बारे में कहा गया है, "वे संसार के इतिहास के महानतम व्यक्ति हैं। उन्होंने कोई सेवक नहीं रखे, लेकिन लोगों ने उन्हें 'स्वामी' कहकर संबोधित किया। उनके पास कोई शैक्षिक योग्यता नहीं थी, किन्तु उनके समय के विद्वानों, धर्म-गुरुओं, और आम लोगों ने उन्हें 'हे गुरु' कहा। उनके पास कोई औषधि नहीं थी, किन्तु वे इतिहास के सबसे महान चंगाई देने वाले हुए। उनकी कोई सेना नहीं थी, किन्तु राजा उनसे थर्राते थे। उन्होंने कोई सैनिक अभियान अथवा युद्ध नहीं लड़े, फिर भी वे सारे विश्व पर जयवंत हैं। उन्होंने कोई पाप, कोई अपराध नहीं किया, फिर भी उन्हें क्रूस पर चढ़ाकर मार डाल गया। उन्हें कब्र में गाड़ कर उसे भारी पत्थर से मुहरबंद कर दिया गया और सैनिकों का पहरा बैठा दिया गया, किन्तु वे तीसरे दिन जीवित होकर कब्र से बाहर आ गए और आज भी जीवित हैं, तथा हर उस हृदय में रहते हैं जो उन्हें स्वेच्छा से समर्पित होकर आमंत्रित करता है।"
बाइबल की शिक्षाओं ने सभ्यताओं और समाजों के व्यवहारों को बदल डाला है - हजारों वर्ष पुरानी और प्राचीनतम सभ्यताओं की भी अनुचित तथा अनुपयुक्त बातों को सुधार दिया है, जिन्हें वे सभ्यताएं और उनके लोग स्वयं नहीं पहचान और सुधार पाए। बाइबल की शिक्षाओं के आधार पर संसार भर के अनेकों स्थानों में व्याप्त कुरीतियाँ, जैसे कि मनुष्यों में परस्पर भेद-भाव का व्यवहार और मनुष्यों को ऊंचा-नीचा देखना, बाल-विवाह, रंग-भेद, दास प्रथा, स्त्रियों का दमन और उनके साथ दुर्व्यवहार, नर-भक्षी प्रथाएं, शिक्षा को केवल कुछ विशेष लोगों तक ही सीमित रखना, आदि को बुराई के रूप में पहचाना तथा मिटाया गया है; यह करने के लिए संविधान बनाए अथवा बदले गए हैं या संशोधित किए गए हैं। संसार भर में जहाँ-जहाँ भी बाइबल के प्रचारक गए हैं, वहाँ उनके साथ समाज के सभी लोगों के लिए समान शिक्षा, सभी लोगों को हर प्रकार की शिक्षा उपलब्ध करवाने के लिए शिक्षा-संस्थान और विद्यालय, सभी को समाज में आदर का स्थान तथा समाज सुधार, सभी के लिए चिकित्सा सुविधाएं, महिलाओं का उत्थान आदि भी साथ ही होता चला गया है।
क्या यह सब किसी मनुष्य की कल्पना या विचारों के द्वारा लिखी गई बातों से संभव है? वास्तविकता तो यह कि बाइबल की बातों और शिक्षाओं ने ही मनुष्यों के विचारों और कल्पनाओं से लिखी गई बातों में पलने और बनी रहने वाली सामाजिक कुरीतियों को सुधार कर लोगों के जीवनों को एक नई दिशा, एक नया मार्गदर्शन प्रदान किया है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल:
1 राजाओं 8-9
लूका 21:1-19
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Unique in its effects on Life, Literature, Arts, Culture and Civilizations
The way people's lives have been, and are being changed through the Bible is remarkable. There are countless people around the world who have read the Bible, came to know God, and submitted their lives to Him. This change is seen everywhere in the world, in people of every religion, every ideology, even among atheists. The words of the Bible convict people of their sins, make them uneasy about them. Those who are sensitive to it, and listen to the voice of their conscience, deliberate upon the conviction brought by it, make sincere efforts to seek and know the truth, the Word of God speaks to them, shows them the right path, and leads them to repentance for their sins. This trend began about two thousand years ago with the preaching of the Lord Jesus' disciple Peter, among the “devout” Jews who had gathered in Jerusalem to celebrate the feast, as is written: "Now when they heard this, they were cut to the heart, and said to Peter and the rest of the apostles, "Men and brethren, what shall we do?" Then Peter said to them, "Repent, and let every one of you be baptized in the name of Jesus Christ for the remission of sins; and you shall receive the gift of the Holy Spirit" (Acts 2:37-38), and as a result of the preaching of God's word "Then those who gladly received his word were baptized; and that day about three thousand souls were added to them" (Acts 2:41). And from then onwards, to this day, from Jerusalem to every place of the world today, this has been going on continuously, and regularly.
Every day, every moment, people's lives are being changed all over the world. Those who recognized the truth of God's Word, were then ready to give up their homes, property and jobs and businesses, even to sacrifice their lives for it, but not turn back on the changes brought in their lives by the Bible. Those who became obedient to the Bible, the course of their life and their priorities were radically changed. Bad habits and behaviors that they were unable to give up earlier, or things they didn't even consider to be bad earlier, automatically went away from their lives, once they came to obey the Bible. They often had to pay a great price for this faith and decision, they had to endure a lot of opposition from society and family, but once they had recognized the truth, then they remained committed to that truth. They endured, persisted in it, told others about it, and also became the ones to experience God's peace and blessings.
The words, events, teachings, and characters of the Bible have left a deep impression on literature and art all over the world. The number of books, articles, stories, novels, songs, poems, plays etc. that have been written about things related to the Bible, is unparalleled; no other book in the history of the world has ever inspired the volume and variety of written works, as the Bible has. Many idioms in literature are derived from Biblical teachings and sayings. Even in the field of art, the sheer number of works of art that have been made on the basis of the things of the Bible, no other book in the world has ever been able to inspire - whether it is in crafts and sculptures, or various types of paintings and pictures, or of music, songs of praise and worship, hymns of various genre, etc. Though such inspired creations are also found in every other religion and belief and place; but they are mostly limited to a particular place or region, or language, and culture etc. But the volume and variety in which the inspiration of the Bible continues to influence every type of literature and art all around the world even today is unprecedented, unique, astounding; it has no comparison, no match with any other book or scripture.
The Ten Commandments of God given in the Bible are unique and a class apart in themselves. These Ten Commandments in the Old Testament, given in Exodus 20:1-17, contain God's commandments regarding the nature and character of God, the relationship between man and God, and man's family and social relationship with others. And the wonderful thing is that in no constitution of any country in the world, however large or voluminous it may be, is there anything that is not found and covered in the scope of these Ten Commandments.
For the Lord Jesus Christ's influence, it is said that “He is the greatest man in the history of the world. He did not have any servants, but people addressed him as 'Master'. He had no educational qualifications, but during his time The scholars, religious leaders, and common people called him 'Rabbi or Teacher'. He did not have any medicine, but he became the greatest healer in world history. He had no army, but the Kings used to tremble at His name. He never conducted any military campaign, nor did He ever fight any war, yet He is victorious over the whole world. He committed no sin, no crime, yet He was crucified and killed as a criminal. He was buried in a tomb, which was sealed with heavy stone and the soldiers were put on guard; but on the third day He arose from the dead and came out of the grave alive. And He is still alive today, living in every heart that invites him voluntarily, by surrendering to His Lordship."
The teachings of the Bible have changed the behavior of civilizations and societies - correcting the unjust and inappropriate things being practiced for thousands of years amongst even the oldest civilizations; things which those civilizations and their people themselves could not recognize and correct. Based on the teachings of the Bible, the evils prevailing in many places around the world, such as the mutual discrimination between humans and considering of human beings of lower or higher birth, child marriages, apartheid, slavery, the oppression of women and their abuse, cannibalistic practices, restricting imparting of education only to certain people, etc., have been recognized as evil and eradicated. To accomplish these changes in people and societies, Constitutions have either been made, or altogether changed, or suitably amended. All around the world, wherever the preachers of the message of the Bible have gone, their message has simultaneously been accompanied by bringing about equal educational opportunities for all the people of the society, through educational institutions and schools that provide all varieties of education to all the people; by bring about social reforms and giving a place of respect to all in the society; by creating medical facilities for all; by bringing about upliftment of women etc.
Are all these possible because of the things written by the imagination or thoughts of a human being? Many such books based on human thoughts and imagination are available, but has any such book brought about such wide-ranging changes, and on the scale that the Bible has done? The reality is that the words and teachings of the Bible have given a new direction, a new guidance to people's lives by rectifying the social evils that they have been born in, and have persisted; inappropriate things that came into the society and took hold because of the thoughts and imaginations written by mere men.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Through the Bible in a Year:
1 Kings 8-9
Luke 21:1-19
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