ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

मंगलवार, 2 अगस्त 2022

मसीही सेवकाई में पवित्र आत्मा की भूमिका / The Holy Spirit in Christian Ministry – 14


Click Here for the English Translation

पवित्र आत्मा - न्याय के लिए कायल करता है (यूहन्ना 16:11)


पिछले लेखों में हमने देखा है कि मसीही सेवकाई में, परमेश्वर पवित्र आत्मा अपने कार्य और सामर्थ्य को प्रभु यीशु के शिष्यों, अर्थात मसीही विश्वासियों में होकर करता है, और उनमें होकर संसार के लोगों के समक्ष मसीही जीवन के उदाहरण तथा वचन की शिक्षाओं को प्रत्यक्ष करता है। इस प्रकार से परमेश्वर पवित्र आत्मा मसीही विश्वासी यानि कि प्रभु यीशु के शिष्य बनने वालों के जीवन, व्यवहार, और विचारधारा में, मसीही विश्वास में आने के बाद आए परिवर्तन का प्रत्यक्ष एवं व्यावहारिक प्रमाण प्रदान करता है। साथ ही यह प्रत्यक्ष एवं व्यावहारिक प्रमाण औरों को भी प्रभावित एवं प्रोत्साहित करता है कि जैसा औरों के जीवन में हुआ है, वैसे ही उनके जीवन में भी हो। यूहन्ना 16:8 में पवित्र आत्मा ने तीन बातें लिखवाई हैं, जिनके विषय वह प्रभु यीशु के शिष्यों में होकर संसार को दोषी ठहराता, या कायल करता है। ये तीन बातें हैं - पाप, धार्मिकता, और न्याय। और फिर पद 9, 10, और 11 में इन तीनों के विषय टिप्पणी दी है। इनमें से पहली दो बातें, पाप तथा धार्मिकता के विषय कायल करना को हम यूहन्ना 16:9, 10 से पिछले दो लेखों में देख चुके हैं। आज हम तीसरी बात, न्याय के लिए कायल करने के विषय हम यूहन्ना 16:11 “न्याय के विषय में इसलिये कि संसार का सरदार दोषी ठहराया गया है” से कुछ शिक्षाएं लेंगे।


मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद यहाँ ‘न्याय’ किया गया है, उसका अर्थ होता है ‘पहचान करना’ या ‘निर्णय लेना’। जिससे ‘न्याय’ शब्द का सामान्य अभिप्राय, वैधानिक या कानूनी न्याय करना, यानि कि उनके अपराधों के लिए लोगों को दोषी ठहराना और दण्ड देना ध्यान में आता है। किन्तु इस शब्द का केवल यही - दोषी ठहराना और दण्ड देना ही एकमात्र अभिप्राय और प्रयोग नहीं है। इस शब्द का प्रयोग और अर्थ सही पहचान करने, परिस्थितियों का सही विश्लेषण करने, या व्यक्तियों का सही आँकलन करने और उनके विषय सही निर्णय करने, आदि के लिए भी किया जाता है। यूहन्ना 16:11 में पवित्र आत्मा द्वारा करवाए गए ‘न्याय’ और “संसार का सरदार” अर्थात शैतान के ‘न्याय’ के मध्य एक तुलना (contrast) रखी गई है। अर्थात, दोनों के ‘न्याय’ करने, यानि कि सही निर्णय देने, या सही पहचान, अथवा आँकलन करने में भिन्नता है। और परमेश्वर पवित्र आत्मा, मसीही विश्वासियों में होकर बिलकुल सटीक, सही, और पक्षपात रहित न्याय, उचित व्यवहार, या निर्णय करवाने के द्वारा, ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करेगा जो संसार के लोगों द्वारा सांसारिक विचार और व्यवहार के अनुसार, “संसार के सरदार” के प्रभाव में होकर किए जाने वाले अनुचित एवं अपूर्ण न्याय, या निर्णय के बारे में उनको दोषी ठहराएंगे।

 

एकमात्र सच्चे और जीवते प्रभु परमेश्वर का न्याय सदा सच्चा, खरा, और पक्षपात रहित होता है। परमेश्वर के वचन बाइबल से इसके विषय दो प्रतिनिधित्व करने वाले हवाले देखिए; एक पुराने नियम में से और दूसरा नए नियम में से:


परमेश्वर का भय मानने वाले, तथा परमेश्वर के भय में होकर राज्य करने वाले यहूदा के राजा यहोशापात ने अपने प्रजा के ऊपर जब न्यायी ठहराए: “फिर उसने यहूदा के एक एक गढ़ वाले नगर में न्यायी ठहराया। और उसने न्यायियों से कहा, सोचो कि क्या करते हो, क्योंकि तुम जो न्याय करोगे, वह मनुष्य के लिये नहीं, यहोवा के लिये करोगे; और वह न्याय करते समय तुम्हारे साथ रहेगा। अब यहोवा का भय तुम में बना रहे; चौकसी से काम करना, क्योंकि हमारे परमेश्वर यहोवा में कुछ कुटिलता नहीं है, और न वह किसी का पक्ष करता और न घूस लेता है” (2 इतिहास 19:5-7)।


प्रभु यीशु मसीह ने अपने समय के धर्म के अगुवों को उनके व्यवहार और ‘न्याय’ के विषय उलाहना देते हुए, उन ‘धार्मिक’ लोगों से अपने विषय में कहा, “मैं अपने आप से कुछ नहीं कर सकता; जैसा सुनता हूं, वैसा न्याय करता हूं, और मेरा न्याय सच्चा है; क्योंकि मैं अपनी इच्छा नहीं, परन्तु अपने भेजने वाले की इच्छा चाहता हूं” (यूहन्ना 5:30); और “मुंह देखकर न्याय न चुकाओ, परन्तु ठीक ठीक न्याय चुकाओ” (यूहन्ना 7:24)।


निष्कर्ष यह कि मसीही विश्वास में आने के द्वारा व्यक्ति के मन, जीवन, विचार, और व्यवहार में जो परिवर्तन आता है, वह उसे परमेश्वर पवित्र आत्मा की अधीनता में खरा और सच्चा न्याय करने, या जाँच-परख करने, या सही आँकलन करके पक्षपात रहित निर्णय करने वाला बना देता है। उसका यह बदला हुआ व्यवहार, उसमें परमेश्वर पवित्र आत्मा की उपस्थिति का प्रमाण है। साथ ही उसका इस प्रकार का जीवन, पाप और पापमय प्रवृत्तियों तथा विचारधाराओं में रहने वाले, “संसार के सरदार” के प्रभाव में होकर कार्य करने वाले लोगों के समक्ष एक तुलना (contrast) रखता है, और उन्हें उनके अनुचित न्याय, व्यवहार, और विचार के लिए दोषी ठहराता है। 


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो यूहन्ना 16:11 के समक्ष आपका जीवन कैसा है? यदि आप अभी इस पद के समक्ष अपने आप को दोषी पाते हैं, तो फिर आपको 2 कुरिन्थियों 13:5 के अनुसार अपने आप को और अपने मसीही विश्वास में होने के दावे का पुनः अवलोकन करने, अपने मसीही विश्वासी होने की समीक्षा करने की आवश्यकता है। मसीही विश्वासी होने के नाते, आप में विद्यमान परमेश्वर पवित्र आत्मा आपको संसार के लोगों के समान अनुचित न्याय नहीं करने देगा।  आप जब भी ऐसा करेंगे, वह आपके जीवन में खलबली उत्पन्न करेगा, आपके जीवन में तब तक बेचैनी रहेगी जब तक आप अपने इस गलत व्यवहार को सही नहीं कर लेंगे। और यदि आप फिर भी ढिठाई में ऐसे व्यवहार में बने रहेंगे, जो एक मसीही विश्वासी के लिए सही नहीं है, तो आपको ताड़ना में से भी होकर निकलना पड़ेगा, जिससे आप सुधारे जा सकें (इब्रानियों 12:5-11)।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो थोड़ा थम कर विचार कीजिए, क्या मसीही विश्वास के अतिरिक्त आपको कहीं और यह अद्भुत और विलक्षण आशीषों से भरा सौभाग्य प्राप्त होगा, कि स्वयं परमेश्वर आप में आ कर सर्वदा के लिए निवास करे; आपको धर्मी बनाए; आपको अपना वचन सिखाए; और आपको शैतान की युक्तियों और हमलों से सुरक्षित रखने के सभी प्रयोजन करके दे? और फिर, आप में होकर अपने आप को तथा अपनी धार्मिकता को औरों पर प्रकट करे, आपको खरा आँकलन करने और सच्चा न्याय करने वाला बनाए; तथा आप में होकर पाप में भटके लोगों को उद्धार और अनन्त जीवन प्रदान करने के अपने अद्भुत कार्य करे, जिससे अंततः आपको ही अपनी ईश्वरीय आशीषों से भर सके? इसलिए अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु से क्षमा माँगकर, अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आप अपने पापों के अंगीकार और पश्चाताप करके, प्रभु यीशु से समर्पण की प्रार्थना कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए मेरे सभी पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” प्रभु की शिष्यता तथा मन परिवर्तन के लिए सच्चे पश्चाताप और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 60-62 

  • रोमियों 5

******************************************************************

English Translation

Holy Spirit Convicts of Judgment - John 16:11


We have seen in the previous articles that in Christian ministry, the Holy Spirit does His works and demonstrates His power through the disciples of the Lord Jesus, i.e., through the Born-Again Christian Believers. The Holy Spirit, through the Christian Believers, places before the people of the world the examples of Christian living and teachings from God’s Word. In this manner, God the Holy Spirit, through the changes that happen in the lives, thinking, and behavior of those who decide to become the disciples of the Lord Jesus, presents an evident, practical example of the change of heart and mind through the Christian Faith. This practical example also serves to influence and attract the others to experience the same changes in their lives as well.  In John 16:8, the Holy Spirit had recorded three things regarding which He convicts the world. These three are - sin, righteousness, and judgment; and then in verses 9, 10, and 11 He adds comments to each of these three. Of these three, we have already seen from John 16:9, 10 about convicting for sin and righteousness. Today we will consider the third, i.e., judgment from John 16:11 “of judgment, because the ruler of this world is judged” and draw some lessons from it.


The word translated as “judgment” in the original Greek language means “to discern” or “to decide” about something. From this the generally understood meaning of the word “judge” is derived, to legally or constitutionally judge, i.e., to hold people guilty for their offences and take punitive action for the offences. But this - to hold guilty and punish, is not the only use or meaning of this word. This word is also used with the meaning of coming to the right understanding, to correctly analyze or discern the situations, or to correctly assess people and come to right conclusions about them, etc. In John 16:11 the Holy Spirit has placed a contrast between “judgment” and the judgement of the “ruler of this world”, implying that there is a difference in the two ‘judgments’ or in giving the correct decision or in giving the true identification or analysis. God the Holy Spirit, through the Christian Believers, places such examples of absolutely correct, just, impartial, and appropriate behavior and decisions before the people of this world, which will expose the unjust, inappropriate, incomplete, and wrong judgments made under the influence of the “ruler of this world”, by the people of this world, and thereby convict them. 


The judgment of the one and only true and living Lord God is always honest, correct, and impartial. Consider two representative examples form God’s Word the Bible about this fact, one from the Old Testament and the other from the New Testament:


King Jehoshaphat, who lived and ruled in the fear of God, he placed judges over his people: “Then he set judges in the land throughout all the fortified cities of Judah, city by city, and said to the judges, "Take heed to what you are doing, for you do not judge for man but for the Lord, who is with you in the judgment. Now therefore, let the fear of the Lord be upon you; take care and do it, for there is no iniquity with the Lord our God, no partiality, nor taking of bribes."” (2 Chronicles 19:5-7).


The Lord Jesus, admonishing the religious leaders for their behavior and “judgments”, said to these “religious” and “pious” elders of the community, about Himself “I can of Myself do nothing. As I hear, I judge; and My judgment is righteous, because I do not seek My own will but the will of the Father who sent Me” (John 5:30), and their standards of judgement, “Do not judge according to appearance, but judge with righteous judgment” (John 7:24).


The conclusion is that the change that comes into the life, thinking, mentality, and behavior, of a person after coming into the Christian Faith, that guides him under the Holy Spirit to judge honestly, justly, impartially, and correctly, after properly evaluating and correctly discerning the facts. This changed behavior is a proof of the presence of the Holy Spirit in him. Moreover, his this behavior presents a contrast to the people living in sin, sinful desires and tendencies, and working under the influence and control of the “ruler of this world”, and convicts them for their unjust judgments, and inappropriate behavior of being unfair, and showing partiality.


If you are a Christian Believer, then in the face of John 16:10, what is your life like? If you find yourself guilty before this verse, then according to 2 Corinthians 13:5, you need to review your life and reaffirm whether you really are in the Christian Faith or not? If you are a Christian Believer, then the Holy Spirit of God residing within you, will never permit you to judge unjustly, as the people of the world do. Whenever you do it, He will create an uneasiness, a turmoil in your life, which will remain till you have set things right. But if you persist in your stubbornness, which is never the right thing for a Christian Believer to do, then for correction you may have to pass through chastisement also (Hebrews 12:5-11).


If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 60-62 

  • Romans 5





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें