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आत्मिक वरदानों के प्रयोगकर्ता - भविष्यद्वक्ता और भविष्यवाणी
पिछले लेख में हमने 1 कुरिन्थियों 12:28 में दिए आत्मिक वरदानों में से दूसरे वरदान - भविष्यद्वक्ता होने के बारे में देखना आरंभ किया था। यह वरदान मसीही विश्वासियों की मण्डली में वचन की सेवकाई से संबंधित वरदान है। हमने देखा था कि बाइबल के अनुसार भविष्यद्वक्ता होने और भविष्यवाणी करने का अर्थ केवल आने वाले समय में होने वाली बातें बताना नहीं था, किन्तु परमेश्वर की ओर से मिले संदेश या शिक्षा को लेकर लोगों के समक्ष खड़े होना, और हर कीमत पर उसे खराई से बताना था। उन भविष्यद्वक्ताओं के परमेश्वर के प्रति पूर्णतः समर्पित सत्यवादी होने, और अपनी भविष्यवाणियों द्वारा लोगों के पाप और बुराई तथा परमेश्वर के विमुख होने को प्रकट किए जाने के कारण न तो वे और न ही उनके संदेश लोगों में लोकप्रिय होते थे। बाइबल में उल्लेखित भविष्यद्वक्ताओं ने सामान्यतः दुख, तिरस्कार, और सताव झेलकर अपनी इस सेवकाई को परमेश्वर के लिए पूरा किया। न तो वे लोकप्रिय नहीं होते थे और न ही अपने भविष्यद्वक्ता होने को आदर और प्रशंसा पाने के लिए किसी पदवी या उपाधि के समान प्रयोग करते थे। आज बहुत से लोग अपने आप को पवित्र आत्मा की ओर से “भविष्यद्वक्ता” कहते हैं, और अनेकों लोग पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से “भविष्यवाणियाँ” करने के दावे करते हैं, किन्तु उनकी ‘सेवकाई’ समाज और लोगों से आदर, प्रशंसा, और सांसारिक लाभ प्राप्त करने से संबंधित होती है, लोगों पर उनकी वास्तविक आत्मिक स्थिति और उनके बारे में परमेश्वर के विचार खराई से प्रकट करने वाली नहीं। उनके जीवन और बातें शारीरिक और सांसारिक लाभ और लोक-लुभावनी बातों से भरी होती हैं, जो परमेश्वर के वचन (2 तिमुथियुस 3:16-17; 4:1-5) के अनुरूप कदापि नहीं है; आरंभिक मसीही मण्डली में परमेश्वर पवित्र आत्मा की ओर से नियुक्त भविष्यद्वक्ताओं और उनकी भविष्यवाणियों से पूर्णतः भिन्न है।
आज हम परमेश्वर के वचन से देखेंगे कि पुराने और नए नियम में “भविष्यवाणी” या “नबूवत” शब्द कितने विभिन्न अभिप्रायों के लिए प्रयोग किया गया है, तथा यह पहचानेंगे और समझेंगे कि बाइबल में “भविष्यवाणी” या “नबूवत” शब्द का अभिप्राय केवल भविष्य की बातें बताना ही नहीं है, जैसा ये लुभावनी बातें कर के लोगों को भरमाने और बहकाने वाले कहते और करते हैं, जबकि उनकी कही अधिकांश ‘भविष्यवाणी’ की बातें पूरी भी नहीं होती हैं। हमने कल देखा था कि नए नियम की मूल यूनानी भाषा में इनके लिए प्रयोग किए गए शब्दों का अर्थ है “सामने या समक्ष, अथवा आगे, बोलने वाला”, और “सामने या समक्ष, अथवा आगे, बोला गया”; और इसके समान पुराने नियम की मूल इब्रानी भाषा के शब्दों का भी यही अर्थ और अभिप्राय होता है। इस शब्दार्थ से यह प्रकट है कि मूल भाषा के शब्दों के अनुसार, न केवल भविष्य की बातें बताने वाला और भविष्य की बातों को बताना भविष्यद्वक्ता और भविष्यवाणी है, वरन यदि कोई लोगों के सामने या समक्ष आकर परमेश्वर की ओर से बोले, वर्तमान की ही किसी बात के लिए सन्देश अथवा शिक्षा दे, तो वह भी भविष्यद्वक्ता है, और उसकी कही बात भी भविष्यवाणी है।
बाइबल में “भविष्यवाणी” या “नबूवत” शब्द के प्रयोग के कुछ उदाहरण हैं:
किसी देवता के नाम को पुकारना - 1 राजाओं 18:29 - बाल देवता के नबियों द्वारा अपने देवता को पुकारना।
किसी विषय या संदेश को परमेश्वर की ओर से लोगों को बताना या उनके सामने रखना - 1 कुरिन्थियों 14:3
परमेश्वर की ओर से किसी होने वाली भावी घटना के बारे में सचेत करना - यहेजकेल 36:1, 3, 6; 37:12-14
परमेश्वर की ओर से कोई आज्ञा देना - यहेजकेल 37:4, 9-10
परमेश्वर के प्रभाव में आकर बात करना - आमोस 3:8
परमेश्वर की आराधना और स्तुति, भजन और गीतों के द्वारा तथा संगीत वाद्य बजाकर करना - 1 इतिहास 25:1-6
किसी छिपी हुई बात को प्रकट करना - लूका 22:64
साथ ही नए नियम में परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में प्रेरित पौलुस के द्वारा तिमुथियुस को उसकी सेवकाई के विषय जो शिक्षाएं दी गईं, जो तिमुथियुस के नाम लिखी दोनों पत्रियों में मिलती हैं, वे भी हमें नए नियम के इस समय में परमेश्वर की ओर से बोलने वाले व्यक्ति में पाए जाने वाले गुणों, और उसके संदेश तथा शिक्षाओं में आवश्यक बातों को बताती हैं। 2 तिमुथियुस 2 अध्याय बताता है कि परमेश्वर की ओर से बोलने और सिखाने वाले व्यक्ति में क्या गुण होने चाहिएं। उसकी शिक्षाओं के परमेश्वर की ओर से होने के बारे में 2 तीमुथियुस 3:16-17 में लिखा है कि “हर एक पवित्र शास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिये लाभदायक है। ताकि परमेश्वर का जन सिद्ध बने, और हर एक भले काम के लिये तत्पर हो जाए।” अर्थात, परमेश्वर की ओर से वचन की सेवकाई करने वाले को अपनी इच्छा और समझ की बातों के द्वारा नहीं, पवित्र शास्त्र की बातों के उपयोग के द्वारा अपनी सेवकाई करनी है। इस सेवकाई के निर्वाह के लिए उस पवित्र शास्त्र की बातों के द्वारा लोगों को “उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा”” देनी है। परमेश्वर के उस जन को “सब प्रकार की सहनशीलता, और शिक्षा के साथ उलाहना दे, और डांट, और समझा” (2 तिमुथियुस 4:2) के द्वारा यह करना है। परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा दी गई बाइबल की इन स्पष्ट और खरी बातों तथा शिक्षाओं की तुलना वर्तमान के “भविष्यद्वक्ता” कहलाने वाले और “भविष्यवाणियाँ” करने वाले लोगों के जीवनों और कार्यों तथा प्रचार से कीजिए; तुरंत प्रकट हो जाएगा कि उन लोगों की बातें और व्यवहार पवित्र आत्मा की ओर से हैं या नहीं, क्योंकि पवित्र आत्मा “सत्य का आत्मा” है और “सब सत्य का मार्ग” ही बताता है (यूहन्ना 16:13), वह न तो कभी झूठ बोलता है, और न कभी दोगलापन करता है।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो निवेदन है कि किसी शब्द अथवा वाक्यांश के बाइबल में प्रयोग के विभिन्न उदाहरणों से समझें कि वचन के अनुसार उसका सही अर्थ और अभिप्राय क्या है, और गलत शिक्षाओं में पड़ने से बचें। परमेश्वर के वचन से ही पहचानें कि वास्तव में “भविष्यद्वक्ता” या “नबी” कौन है; और परमेश्वर के वचन में “भविष्यवाणी” या “नबूवत” शब्द को कितने भिन्न अभिप्रायों के साथ प्रयोग किया गया है। यह जाँचें कि वर्तमान के “भविष्यद्वक्ता” या “नबी” कहलाए जाने वाले और उनकी “भविष्यवाणी” या “नबूवत” की बातें क्या वचन के इन उदाहरणों से मेल खाते हैं, वचन की सच्चाई के अनुसार हैं कि नहीं? स्वयं भी शैतान द्वारा फैलाई जा रही गलत शिक्षाओं से बचें तथा औरों को भी बचाएं, और बाहर निकालें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 148-150
1 कुरिन्थियों 15:29-58
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Users of the Gifts of the Holy Spirit - Prophets & Prophecy
In the previous article we had started to examine the second gift and ministry given in 1 Corinthians 12:28 - Prophets and Prophecy. This gift is also related to the Word Ministry in the Church. We had seen that Biblically speaking, to be a Prophet and to prophesy does not necessarily mean to foretell about future things, but it also means to stand before the people to honestly speak a message or teaching from God, at any cost. We had also seen that unlike the modern day “Prophets”, the Prophets of God were people who not only were completely surrendered to God, but also spoke His Word or message forthrightly and candidly; they exposed the sin and evil of the people, and their being contrary to God in their lives and behavior. Because of these things, God’s prophets and their “prophecy” or messages were usually not popular amongst people, were usually not appreciated or liked by the people. The Prophets mentioned in the Bible, usually suffered persecution, rejection, and sorrows at the hands of the people they ministered amongst, but still fulfilled their ministry from God. God’s Prophets, in the Bible, were neither popular, nor used their ministry as a title or status to gain name, fame and worldly prosperity. In contrast, today many people call themselves “Prophets” and claim to “Prophesy” by the power of the Holy Spirit, but their work and ministry is usually related to using these as a title or status symbol, to gain name, fame and worldly prosperity. They usually stay clear of exposing the sins and actual spiritual condition of the people, and speaking the clear Word of God with honesty and commitment. Their own lives, preaching, and teachings are full of popular things related to physical healings, temporal benefits, and gaining material things, instead of teaching about sin, repentance, forgiveness, salvation, judgment, eternal life, etc., all of which is quite unlike what the teachings of the Word of God speak about (2 Timothy 3:16-17; 4:1-5), and their lives and ministry in no way conforms to the life and ministry of the prophets appointed by the Holy Spirit in the first Church and the initial Christian congregations.
Today we will also see how the term “to prophesy” has been used in God’s Word, in the Old as well as the New Testaments, with different meanings, but all have been called “to prophesy.” Through this we will understand that in the Bible “to prophesy” does not only mean foretelling the future as these teachers of false doctrines and wrong teachings catering to popular public sentiments usually emphasize, and most of their “prophecies” do not actually come true. We had seen yesterday that the meaning of the words “prophet” and “prophesying” in the original Greek language of the New Testament is “to speak before” - in context of time or in context of before people; and the message conveyed in that context; similarly, in the Old Testament as well, the original Hebrew words too mean the same thing, have the same implications. It is clear from these word-meanings that in the original languages, for their initial audiences, the terms “prophet” and “prophesying” not only meant those who tell about the future and the messages related to the future happenings, but also the people who came and spoke God’s message before the people, even if it was about the people’s current unspiritual state and ungodly behavior, they too were “prophets” and “prophesied” on behalf of God.
Consider some examples of the use of the term “To prophesy” from the Bible:
To call upon the name of a deity - 1 Kings 18:29 - the “prophets” of Baal “prophesied” calling the name of their deity, but nothing happened.
To speak to the people about a message or a topic given by God, to put it before them 1 Corinthians 14:3.
To forewarn about a future event on behalf of God - Ezekiel 36:1, 3, 6; 37:12-14.
To give a commandment to the people on behalf of God - Ezekiel 37:4, 9-10.
To speak under the influence of the power of God - Amos 3:8.
To praise and worship God using musical instruments and by singing songs - 1 Chronicles 25:1-6.
To reveal or tell something hidden or concealed - Luke 22:64.
Besides this, in the New Testament, the teachings Paul gave to Timothy under the guidance of the Holy Spirit, in the two letters written to Timothy, they too tell us about the characteristics of a person speaking on behalf of God, and the qualities in God’s messages that he speaks. 2 Timothy chapter 2 tells about the characteristics that should be present in a prophet or spokesman of God. About the qualities of the message of such a person, it is written in 2 Timothy 3:16 that “All Scripture is given by inspiration of God, and is profitable for doctrine, for reproof, for correction, for instruction in righteousness, that the man of God may be complete, thoroughly equipped for every good work.” The implication is that the person speaking God’s message, has to fulfill his ministry not through messages from his own thinking and understanding, but from the Scriptures. In fulfillment of his ministry, from the Scriptures he should speak to the people about “doctrine, for reproof, for correction, for instruction in righteousness.” The spokesman of God has to “Preach the word! Be ready in season and out of season. Convince, rebuke, exhort, with all longsuffering and teaching” (2 Timothy 4:2). Compare the clear and straightforward teachings of the Bible, with the lives, works, and messages of these modern day so-called “prophets” and their “prophecies”, and it will immediately become apparent whether they and their ministry is from the Holy Spirit or not; because the Holy Spirit is the “Spirit of Truth” and “guides into all truth” (John 16:13); He never speaks any lies, nor does He ever mislead or wrongly guide anyone about anything.
If you are a Christian Believer, then it is a humble request that you understand the actual meaning and implications of any term or word used in the Bible, please see how it has been used at different places in God’s Word, and thereby stay safe from falling into wrong teachings and doctrines. Examine and see if these modern day so-called “prophets” and their “prophecies” are conforming to what the Bible says; do they measure up to the criteria of God’s Word. Beware of all false teachings being spread by Satan to beguile and mislead people, and warn others, teach them as well to be safe and secure.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, a child of God, entitled to a place in heaven, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start learning, understanding, and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 148-150
1 Corinthians 15:29-58
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