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उन्नति के लिए (2)
पिछले लेख में हमने 1 कुरिन्थियों 10:23-24 से देखा था कि प्रभु परमेश्वर व्यक्ति के मन को देखता है और व्यक्ति का आँकलन उसके मन की दशा कि अनुसार करता है, न कि उसके बाहरी स्वरूप और कार्यों, कार्यविधि तथा वैधानिक रीति से सही होने, या सांसारिक मानकों के अनुसार स्वीकार्य होने के आधार पर। यहाँ, पद 23 के अन्त में एक और बहुत महत्वपूर्ण बात कही गई है, कि मसीही विश्वासी को उन बातों में लगे रहना चाहिए जिन से उन्नति होती है। पौलुस इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए पद 24 में कहता है कि मसीही विश्वासी को, अपनी नहीं, बल्कि औरों की भलाई में लगे रहना चाहिए। कहने का तात्पर्य है कि जिस मसीही विश्वासी का मन ठीक होगा, वह न केवल अपनी उन्नति में लगा रहेगा, वरन औरों के लिए सही काम भी करेगा। क्योंकि कलीसिया, जो प्रभु की देह है, वह मसीही विश्वासियों से मिलकर बनी है, इसलिए, यदि उसके सदस्य उन्नति करते जा रहे हैं, तो फिर स्वतः ही कलीसिया भी उन्नति करती जाएगी। और यदि सदस्य एक-दूसरे की सहायता करते रहते हैं और औरों की भलाई में लगे रहते हैं, तो इस परस्पर सहयोग और सहायता के द्वारा कलीसिया भी बढ़ती और दृढ़ होती चली जाएगी। आज हम पद 23 में कही गई ‘उन्नति’ के बारे में देखेंगे, और मसीही विश्वासी की उन्नति कैसे हो सकती है।
मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का हिन्दी अनुवाद ‘उन्नति’ किया गया है, उसका शब्दार्थ होता है “घर का बनाने वाला”, अर्थात, वह जो निर्माण करता या बनाता है। इससे यह प्रकट है कि हमारी उन्नति क्रमशः एक के बाद दूसरे कदम के द्वारा होते जाने वाला काम है, उन्नति का हर स्तर या चरण पहले वाले स्तर या चरण पर बनता है। साथ ही इसमें धैर्य और निरंतर परिश्रम की आवश्यकता होती है; सारा काम एक ही बार में, एक साथ ही नहीं हो सकता है। इसी बात को वचन में अन्य स्थानों पर भी कुछ भिन्न शब्दों में कहा गया है। यह 1 कुरिन्थियों 3:1-2 में निहित है, जहाँ मसीही विश्वासियों से यह आशा की जाती है कि वे आत्मिक रीति से उन्नति करते जाएंगे, और इसका प्रमाण होगा कि उनमें से बच्चों का सा व्यवहार जाता रहेगा; इसे 2 कुरिन्थियों 3:18 में मसीही विश्वासी के अंश-अंश करके प्रभु के स्वरूप में बदलते जाने के द्वारा व्यक्त किया गया है; और इब्रानियों 5:12 में इसे इस आशा के रूप में लिखा गया है कि विश्वासी को परिपक्व होकर औरों को सिखाने वाला हो जाना चाहिए।
इस प्रकार से, परमेश्वर का वचन इस बात पर ज़ोर देता है कि मसीही विश्वासी की आत्मिक उन्नति, उसके लिए एक अनिवार्य बात है। प्रभु भोज में योग्य रीति से भाग लेने के लिए अपने आप को जाँचते समय, विश्वासियों को इस बात का अभी ध्यान रखना चाहिए, और जाँचना चाहिए कि क्या वे उन्नति करते जा रहे हैं कि नहीं। उपरोक्त तीनों उदाहरण - बच्चों के से व्यवहार से निकल जाना, प्रभु की समानता में बढ़ते जाना, और परमेश्वर के वचन की समझ-बूझ रखते हुए, उसे दूसरों को भी सिखा पाने के योग्य होते जाना, विश्वासी को अपने आप को जाँचने के विषय प्रदान करती हैं। पद 23 का यह आग्रह है कि मसीही विश्वासी को उन बातों के बारे सोचना और उन्हें करना चाहिए जिनसे उन्नति हो (रोमियों 14:19; 15:2), न कि केवल कार्यविधि और वैधानिक रीति से सही होने की, यानि कि केवल रीतियों और औपचारिक्ताओं को पूरा करते हुए यह समझने की, कि इसके द्वारा हम प्रभु के साथ ठीक हो जाएंगे।
एक नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी कैसे उन्नति कर सकता है, और औरों की करवा सकता है?
सबसे पहली और मुख्य बात है सांसारिक बातों और व्यवहार से पलट कर, एक स्वच्छ मन के साथ, परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने और उसे अपने जीवन में लागू करने के द्वारा। प्रेरित पतरस ने लिखा, “इसलिये सब प्रकार का बैर भाव और छल और कपट और डाह और बदनामी को दूर करके नये जन्मे हुए बच्चों के समान निर्मल आत्मिक दूध की लालसा करो, ताकि उसके द्वारा उद्धार पाने के लिये बढ़ते जाओ” (1 पतरस 2:1-2)। परमेश्वर के वचन को अपना आत्मिक भोजन समझना, उसकी सुनना, और फिर जो वह कहता है उसे अपने जीवन में लागू करना; परमेश्वर के वचन का पालन करना ही विश्वासी की उन्नति की बुनियादी आवश्यकता है।
कलीसिया में तथा अन्य विश्वासियों के साथ प्रेम में बने रहने, व्यवहार करने के द्वारा भी विश्वासी उन्नति करता है (1 कुरिन्थियों 8:1)। और यही बात 1 कुरिन्थियों 10:24 में भी कही गई है - औरों की भलाई करो। यह प्रभु यीशु मसीह के निर्देश “और जैसा तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करें, तुम भी उन के साथ वैसा ही करो” (लूका 6:31) का व्यावहारिक प्रयोग है।
न केवल वचन को सीखो, परन्तु उसे औरों को भी सिखाओ। परमेश्वर और उसके वचन के साथ बिताए गए समय में परमेश्वर जो कुछ भी हमें सिखाता है, हमें उसे औरों के साथ भी साझा करना चाहिए, न केवल उनकी उन्नति के लिए, बल्कि हमारी अपनी उन्नति के लिए भी (1 कुरिन्थियों 14:3-5; यहाँ प्रयुक्त शब्द ‘भविष्यवाणी’ के मूल यूनानी भाषा के शब्द का तात्पर्य है ‘सामने बोलना’, जो लोगों के सामने बोलने के लिए भी प्रयोग होता है, तथा आने वाले समय के बारे में बोलना के लिए भी)।
हमारे आत्मिक वरदानों का प्रयोग कलीसिया के लाभ के लिए करने के द्वारा भी हम, तथा अन्य लोग उन्नति पाते हैं (1 कुरिन्थियों 14:12; 12:7; इफिसियों 4:11-12)।
परमेश्वर नहीं चाहता है कि उसके लोग एक ही आत्मिक स्तर पर अटके रहें; वरन वह चाहता है कि वे स्वयं भी उन्नति करें, तथा औरों की उन्नति का भी कारण हों। मसीही विश्वासी का अपने आप को अपनी उन्नति के बारे में जाँचते हुए - कि वह उन्नति कर रहा है कि नहीं? उसके द्वारा औरों की उन्नति हो रही है कि नहीं? कहीं वह किसी की आत्मिक उन्नति में बाधा तो नहीं बन रहा है? आदि, और फिर अपने जीवन में उपयुक्त सुधार के साथ उचित रीति से प्रभु भोज में सम्मिलित होना, उसके स्वयं की, तथा कलीसिया की उन्नति लाता है। प्रभु भोज, प्रभु द्वारा आत्मिक उन्नति के लिए ठहराया गया एक तरीका है, जिसका सही उपयोग प्रत्येक मसीही विश्वासी को परिपक्व तथा प्रभु के लिए उपयोगी बनाता है।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
निर्गमन 27-28
मत्ती 21:1-22
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For Edification (2)
In the last article we have seen from 1 Corinthians 10:23-24 that the Lord God looks at the person’s heart and evaluates him according to what is in his heart, and not on external appearances, or being technically or legally correct, or being acceptable by worldly standards and ways. Another important thing mentioned at the end of verse 23 is that the Christian Believer should be looking to do things that edify. Then, Paul carries this thought forward and says in verse 24 that the Believers should always be concerned about the well-being of others, rather than their own. The implication is that a Believer, whose heart is right, besides wanting to be edified, will also do the right things for others. Since the Church, the body of Christ Jesus is made up of the Christian Believers, therefore, automatically if the members are continually being edified, the Church too will continually be edified; and if the members are helping for the well-being of others, the Church too would be growing and becoming stronger, through the help and cooperation of each other. Today we will consider about edification mentioned at the end of verse 23, and the things that edify a Christian Believer.
In the original Greek language, the word used, and translated into English as “edify”, literally means “to be a house-builder”, i.e., one who constructs or builds up. This makes it evident that our edification is a gradual process, occurring step-by-step, one stage or one level being built upon the earlier or previous ones. Also, it needs patience and perseverance; it cannot happen all at once. This is alluded to in different ways at other places too in God’s Word. In 1 Corinthians 3:1-2 it is implied in the Believers expected to grow spiritually, and make it evident by their getting rid of childish behavior; in 2 Corinthians 3:18 it is presented as the Christian Believers being gradually transformed, bit-by-bit, into the image of the Lord; in Hebrews 5:12, it has been stated as an expectation that the Believers should have matured and become teachers for others.
So, in multiple ways, the Word of God emphasizes the point that spiritual growth or edification is a must for the Christian Believers. While examining themselves for worthily partaking in the Holy Communion, they have to keep this in mind as well, and check if they are being edified continually. The above three examples - growing out of childish behavior, being transformed into the likeness of the Lord, and being able to understand the Word of God and teach it to others serve as points to ponder over and self-assess if the Believer is being edified. The exhortation of verse 23 is that the Believer should think about and do those things that edify him (Romans 14:19; 15:2), instead of only trying to be “lawful”, i.e., fulfilling the procedures and formalities, and then think that by doing so he will be okay with God.
How can a Born-Again Christian Believer be edified, and edify others?
The first and foremost is his turning away from worldly ways and behavior, then with a clean heart and mind, studying God’s Word and applying it to his life. The Apostle Peter writes, “Therefore, laying aside all malice, all deceit, hypocrisy, envy, and all evil speaking, as new-born babes, desire the pure milk of the word, that you may grow thereby” (1 Peter 2:1-2). Feeding upon the Word of God, listening to what it says, and then applying what it says to one’s life, obeying God’s Word is the basic necessity for a Believer’s edification.
Living with love in the Church and with Believers also edifies (1 Corinthians 8:1). This what is said in 1 Corinthians 10:24 as well - care for others. When we care for others and nurture them in the Lord, we ourselves will be nurtured and be edified. This is the practical application of the Lord’s teaching, “And just as you want men to do to you, you also do to them likewise” (Luke 6:31).
Not only learn, but also teach God’s Word to others. Whatever God gives to us in our time with Him and His Word, we should share it with others, for not only their edification, but ours as well (1 Corinthians 14:3-5; the word ‘prophesies’ used in these verses is not about foretelling the future but for speaking forth or speaking before others).
Using our spiritual gifts for the benefit of the Church also edifies us as well as others (1 Corinthians 14:12; 12:7; Ephesians 4:11-12).
God does not want that His people should get stuck and stagnate at one spiritual level. Rather, He wants that they should be edified, and they should edify others as well. When a Christian Believer examines himself about his edification – Is he being edified? Are others being edified by him? Is he in anyway obstructing the edification of others? etc., then participates worthily in the Holy Communion, he not only edifies himself, but also the Church. The Holy Communion is one of the ways given by the Lord for spiritual growth and edification, and participating in it worthily makes the Believers mature and effective for the Lord.
If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Exodus 27-28
Matthew 21:1-22
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