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बाइबल और पृथ्वी
सृष्टि और अंतरिक्ष से संबंधित बातों को बाइबल में से देखने के बाद, पृथ्वी से संबंधित बाइबल में लिखी कुछ वैज्ञानिक बातों को देखते हैं, जिन्हें विज्ञान के जानने से पहले ही परमेश्वर ने अपने वचन में लिखवा दिया था। साथ ही हम यह भी देखेंगे कि पृथ्वी को लेकर जो बाइबल के बारे में प्रचलित गलत धारणाएं हैं, वे निराधार और झूठ हैं; बाइबल ऐसा कुछ नहीं कहती है जैसा उसके विषय गलत फैलाया जाता रहा है।
पृथ्वी पर जीवन अनायास अथवा आकस्मिक ही नहीं पनप गया। परमेश्वर ने पृथ्वी को एक बहुत योजनाबद्ध तरीके से बनाया है। पृथ्वी की भीतरी, सतही, वायुमंडलीय, आकाश, और अंतरिक्ष में स्थिति तथा पृथ्वी पर इन सब बातों के प्रभाव बहुत ही बारीकी से रचे और स्थिर किए गए हैं, जिससे जीवन, विशेषकर मानवीय जीवन इस पृथ्वी पर संभव हो सके। पृथ्वी की संरचना और सूर्य से उसकी दूरी, तथा उसकी धुरी का झुकाव जीवन को बनाए रखने के लिए उपयुक्त है। यदि सूर्य से दूरी बढ़ जाए, तो पृथ्वी पर ठंड बहुत हो जाएगी, तथा जल जम जाएगा, जिससे जीवन संभव नहीं रहेगा; यदि पृथ्वी की दूरी सूर्य के कुछ निकट हो जाए, तो गर्मी बहुत बढ़ जाएगी और पानी भाप कर उड़ जाएगा, और जीवन संभव नहीं होगा; सूर्य से इस उपयुक्त दूरी के क्षेत्र को “Goldilocks Zone” या “वास योग्य क्षेत्र” कहते हैं (Goldilocks Zone/वासयोग्य_क्षेत्र; अंग्रेजी में यह विवरण अधिक विस्तृत और रोचक है)। पृथ्वी की रचना और जीवन के योग्य होने के लिए विशेषताओं का वर्णन, जिसे वैज्ञानिकों ने पिछले कुछ समयों से समझना आरंभ किया है, बहुत बड़ा है (Earth/पृथ्वी)। पृथ्वी की धुरी का झुकाव, पृथ्वी पर मौसम उत्पन्न करता है, जिससे जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों की विविधता तथा जीवन के लिए सहायता, साधन और उपयुक्त वातावरण बना रहता है। इसी प्रकार पृथ्वी की भीतरी रचना, उसकी सतह की धरती की गतिविधियां, उसके चारों ओर का वातावरण, उसके चारों ओर बना हुआ उसका चुंबकीय क्षेत्र, चंद्रमा तथा अन्य ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण बल के द्वारा उसे मिलने वाली स्थिरता तथा सुरक्षा, आदि भी उसे जीवन के लिए विशिष्ट और उपयुक्त बनाते हैं; क्योंकि ये बातें अन्य किसी गृह में नहीं पाई जाती हैं, इसलिए किसी भी अन्य गृह पर जीवन नहीं है।
बाइबल में यशायाह नबी (सेवकाई का काल लगभग 700 ईस्वी पूर्व, या आज से लगभग 2700 वर्ष पूर्व) और यिर्मयाह नबी (सेवकाई का काल लगभग 600 ईस्वी पूर्व, या आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व) की पुस्तकों से हम कुछ पदों को देखेंगे जो यह प्रकट कर देते हैं कि पृथ्वी को परमेश्वर ने मनुष्य को बसाने के लिए बनाया था “क्योंकि यहोवा जो आकाश का सृजनहार है, वही परमेश्वर है; उसी ने पृथ्वी को रचा और बनाया, उसी ने उसको स्थिर भी किया; उसने उसे सुनसान रहने के लिये नहीं परन्तु बसने के लिये उसे रचा है। वही यों कहता है, मैं यहोवा हूं, मेरे सिवा दूसरा और कोई नहीं है” (यशायाह 45:18); और “अपने अपने स्वामी से यों कहो कि पृथ्वी को और पृथ्वी पर के मनुष्यों और पशुओं को अपनी बड़ी शक्ति और बढ़ाई हुई भुजा के द्वारा मैं ने बनाया, और जिस किसी को मैं चाहता हूँ उसी को मैं उन्हें दिया करता हूँ” (यिर्मयाह 27:5)। परमेश्वर द्वारा पृथ्वी को मनुष्यों के निवास के लिए बनाए जाने, उसे इस उद्देश्य के लिए स्थिर या उपयुक्त करने, और इसके लिए आकाश को उसके ऊपर 'तानने' के संदर्भ में बाइबल के कुछ अन्य पदों को भी देखिए: यशायाह 45:12; यिर्मयाह 10:12; 32:17; 51:15। यह सब तब लिखा गया जब न विज्ञान था, न खगोल-शास्त्र और खगोल-विद्या थी, और न ही आज के समान दूरबीन, उपकरण और कंप्यूटर थे जिनके द्वारा इन जटिल बातों का विश्लेषण और आँकलन किया जा सकता। किन्तु परमेश्वर ने अपने वचन बाइबल में यह आज से लगभग 2700 -2600 वर्ष पहले ही लिखवा दिया था कि उसने पृथ्वी की विशेष रीति से मनुष्य के निवास के लिए रचना की है; और उसे इस उद्देश्य के लिए स्थिर भी किया।
पृथ्वी से संबंधित कुछ अन्य बातें हैं:
जबकि अन्य धर्म और मतों की पौराणिक कथाओं में पृथ्वी को किसी पशु अथवा मनुष्य द्वारा उठा कर रखा गया बताया गया है, बाइबल में अय्यूब की पुस्तक में, जो लगभग 2000 ईस्वी पूर्व अर्थात, आज से लगभग 4000 वर्ष पुरानी है, स्पष्ट लिखा है कि पृथ्वी अंतरिक्ष के रिक्त स्थान में मुक्त लटकी हुई है: "वह उत्तर दिशा को निराधार फैलाए रहता है, और बिना टेक पृथ्वी को लटकाए रखता है" (अय्यूब 26:7)।
जबकि प्रचलित विश्वास, और विज्ञान की भी धारणा यही थी कि पृथ्वी सपाट (flat) है, बाइबल में यशायाह नबी की पुस्तक में (आज से लगभग 2700 वर्ष पहले) लिखा गया था कि पृथ्वी गोलाकार है "यह वह है जो पृथ्वी के घेरे के ऊपर आकाशमण्डल पर विराजमान है; और पृथ्वी के रहने वाले टिड्डी के तुल्य है; जो आकाश को मलमल के समान फैलाता और ऐसा तान देता है जैसा रहने के लिये तम्बू ताना जाता है" (यशायाह 40:22)।
आज से लगभग 2000 वर्ष पहले लिखी गई प्रभु यीशु मसीह की जीवनियों में इस बात का संकेत विद्यमान है कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। प्रभु यीशु मसीह ने अंत के दिनों के एक विशिष्ट समय के संदर्भ में कहा था "मैं तुम से कहता हूं, उस रात दो मनुष्य एक खाट पर होंगे, एक ले लिया जाएगा, और दूसरा छोड़ दिया जाएगा। दो स्त्रियां एक साथ चक्की पीसती होंगी, एक ले ली जाएगी, और दूसरी छोड़ दी जाएगी। जन खेत में होंगे एक ले लिया जाएगा और दूसरा छोड़ा जाएगा" (लूका 17:34-36)। एक ही साथ, एक ही घटना के लिए पृथ्वी के अलग अलग स्थानों पर रात, प्रातः (चक्की पीसना), और दिन-दोपहर (खेत में कार्य करना) के उल्लेख देना एक गोलाकार और घूमती हुई पृथ्वी के द्वारा ही संभव है।
विज्ञान को यह 1970 के दशक में पता चला, जब समुद्र की गहराइयों के दबाव को सहन कर पाने वाली पनडुब्बियाँ और सागर तल के गहरे अंधकार में रौश्नी डालकर चित्र लेने वाले कैमरे बन गए, कि गहरे सागर तल में पानी के सोते भी हैं, जिनसे निकलकर पानी सागरों के जल के साथ मिलता रहता है; केवल वर्षा और नदियां ही सागरों के जल का स्त्रोत नहीं हैं। किन्तु आज से लगभग 4000 वर्ष पुरानी अय्यूब की पुस्तक में यह बात परमेश्वर ने अय्यूब को बता रखी थी "क्या तू कभी समुद्र के सोतों तक पहुंचा है, या गहिरे सागर की थाह में कभी चला फिरा है?" (अय्यूब 38:16); उस समय पर जब अय्यूब या किसी अन्य के लिए सागर की अंधियारी गहराइयों में जाकर कुछ देख पाना कदापि संभव नहीं था।
इसी प्रकार से इन गहरे सागरों की गहराइयों की खोज करने की क्षमता विकसित होने के बाद ही वैज्ञानिक यह भी जानने पाए के सागर तल में विशाल पर्वत तथा गहरे खाइयाँ भी हैं। किन्तु लगभग 750 ईस्वी पूर्व, अर्थात आज से लगभग 2750 वर्ष पहले लिखी गई योना नबी की पुस्तक में सागर के अंदर के पर्वत और उन पहाड़ों की 'जड़', उनकी भूमि के अंदर 'गड़हे', अर्थात सागर तल की खाइयों का उल्लेख है "मैं जल से यहां तक घिरा हुआ था कि मेरे प्राण निकले जाते थे; गहरा सागर मेरे चारों ओर था, और मेरे सिर में सिवार लिपटा हुआ था। मैं पहाड़ों की जड़ तक पहुंच गया था; मैं सदा के लिये भूमि में बन्द हो गया था; तौभी हे मेरे परमेश्वर यहोवा, तू ने मेरे प्राणों को गड़हे में से उठाया है" (योना 2:5-6)।
इस अद्भुत और विलक्षण पृथ्वी को अद्भुत और विलक्षण योजनाबद्ध रीति से रच कर, उस पर रहने के लिए आपकी भी रचना करने वाला, प्रेमी परमेश्वर है। उसे आपकी लालसा है, आप चाहे जैसे भी हों – भले-बुरे, अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित, किसी भी जाति, समाज, रंग, देश, धर्म के मानने वाले या न मानने वाले, या परमेश्वर को न भी मानने वाले क्यों न हों, फिर भी उसे आप से प्रेम है, आपके जीवन की कोई भी बात या बुराई उसकी क्षमा की सीमा से बाहर नहीं है। चाहे आप अपने आप को कितना भी क्षमा के अयोग्य क्यों न समझते हों, वह तब भी आप से प्रेम करता है, आपको अपने साथ लेना चाहता है - यदि आप आने को तैयार हैं तो!। आपको केवल स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों को मानते हुए, उससे क्षमा माँगनी है, और अपना जीवन उसे समर्पित करना है। स्वेच्छा और सच्चे मन से की गई एक छोटी प्रार्थना, "हे प्रभु यीशु मेरे पाप क्षमा कर, और मुझे अपनी शरण में लेकर अपनी आज्ञाकारी संतान बना, मुझे मेरे पापों से मुक्त करके अपने लिए उपयोगी जन बना" आपको अभी से लेकर अनन्तकाल के लिए परमेश्वर की संतान होकर उसके साथ स्वर्ग में निवास करने का आदर प्रदान कर देगी। क्या आप यह निर्णय करेंगे?
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Bible and the Earth
After looking at things related to the universe, astronomy, and space from the Bible, let's look at some of the scientific things written in the Bible about the earth; things which God had written in his Word even before science knew about them. Simultaneously, we will also see that the popular misconceptions about the Bible regarding the earth are actually baseless and false; The Bible doesn't say anything like it has been accused of.
Life on earth did not develop spontaneously or accidentally. God created the earth in a very planned way. Earth's interior construction, its surface activities and workings, and the atmospheric, sky, and space conditions and the effects of all these things on Earth and life on earth have been very precisely designed and stabilized, so that life, especially human life, is possible on this earth. The structure of the Earth and its distance from the Sun, and the inclination of its axis are suitable for sustaining life. If the distance from the Sun increases a little bit, the earth will become very cold, and the water will freeze, making life impossible. If the Earth's distance becomes closer to the Sun a little bit, then the heat will increase greatly and the water will evaporate, and again life will not be possible. The region at this appropriate distance from the Sun is called the "Goldilocks Zone" or the "Habitable Zone" (Goldilocks Zone). The details of Earth's structure, composition, and various characteristics that render it capable of sustaining life, things which scientists have recently begun to understand, are quite voluminous (Earth). The tilt of the Earth's axis produces the weather patterns on the Earth, which provides support, means and a suitable environment for the diversity of flora and fauna and for life. Similarly, the inner composition of the Earth, the workings on the surface of the Earth, the atmosphere around it, its magnetic field around it, the stability and protection it gets by the gravitational force of the Moon and other planets, etc. are very precise and appropriate for sustaining and nurturing life; any small variations in any of these factors will render the earth incapable of permitting life. Because these things are not found on any other planet, therefore there is no life on any other planet.
In the Bible, from the books of the prophet Isaiah (whose ministry was in about 700 AD, i.e. about 2700 years ago) and the prophet Jeremiah (the period of whose ministry was in about 600 AD, or about 2600 years ago), we have some verses that reveal that the earth was purposely created by God to be inhabited by man “For thus says the Lord, Who created the heavens, Who is God, Who formed the earth and made it, Who has established it, Who did not create it in vain, Who formed it to be inhabited: “I am the Lord, and there is no other”.” (Isaiah 45:18); and "'I have made the earth, the man and the beast that are on the ground, by My great power and by My outstretched arm, and have given it to whom it seemed proper to Me." (Jeremiah 27:5). Some other Bible verses regarding God's making the earth for human habitation, precisely establishing it and equipping it for this purpose, and 'stretching' the heavens over it for this are: Isaiah 45:12; Jeremiah 10:12; 32:17; 51:15. Bear in mind that all of this was written when there was no science, no astronomy, and no telescopes, instruments and computers like today, by which these complex things could have been seen, recognized, analyzed and assessed. But God had them written in his Word the Bible, about 2700-2600 years ago, making it clear that he had specially created the earth for human habitation; And also established it for this purpose.
Some other Biblical things related to the earth, worth pondering over are:
Whereas the mythology of other religions and cultures states that the earth is carried by an animal or some man, the book of Job in the Bible, which was written about 2000 BC, i.e., about 4000 years from today, clearly states that the earth hangs loosely in the void of space: "He stretches out the north over empty space; He hangs the earth on nothing." (Job 26:7).
While the prevailing belief, and also the belief of science formerly, was that the earth is flat, the book of the prophet Isaiah in the Bible (written about 2700 years ago) wrote that the earth is spherical "It is He who sits above the circle of the earth, And its inhabitants are like grasshoppers, Who stretches out the heavens like a curtain, And spreads them out like a tent to dwell in." (Isaiah 40:22).
In the biographies of Lord Jesus Christ, written about 2000 years ago, there is an indication that the earth rotates on its axis. The Lord Jesus Christ said in reference to a specific event and time of the last days, "I tell you, in that night there will be two men in one bed: the one will be taken and the other will be left. Two women will be grinding together: the one will be taken and the other left. Two men will be in the field: the one will be taken and the other left."” (Luke 17:34-36) It is only possible to refer to the events occurring simultaneously at different places on the earth as night, morning (mill grinding), and day-afternoon (field work), i.e., in different time zones, only by a spherical and rotating earth.
Science discovered in the 1970s, when submarines capable of withstanding the pressure of the depths of the ocean and cameras that took pictures by lighting up the deep darkness of the ocean floor, that there are also springs of water in the deep ocean floor, from which the water comes out and mixes with the water of the oceans. Rain and rivers on the surface of the earth are not the only source of water of the oceans. But in the book of Job, at a time when it was never possible for Job or anyone else to go into the dark depths of the ocean to see anything, about 4000 years ago from today, God had said this thing to Job, "Have you entered the springs of the sea? Or have you walked in search of the depths?" (Job 38:16).
Similarly, only after developing the ability to explore the depths of these deep seas, scientists were also able to know that there are huge mountains and deep trenches in the ocean floor. But in the book of the prophet Jonah, written about 750 AD, i.e. about 2750 years ago, there is a mention of the mountains inside the ocean and the 'root' of those mountains, the 'pits' inside their land, that is, the trenches of the ocean floor. “The waters surrounded me, even to my soul; The deep closed around me; Weeds were wrapped around my head. I went down to the moorings of the mountains; The earth with its bars closed behind me forever; Yet You have brought up my life from the pit, O Lord, my God." (Jonah 2:5-6).
Having created this wonderful and astounding earth in a wonderful, intricately and precisely planned manner, the Creator, the loving God, has also created and put you on earth to live on it. He desires you, however you may be – good or bad, rich-poor, educated-uneducated, you may be from any caste, society, of any color, or country; you may be a believer or non-believer in God - no matter what, yet He loves you, nothing in your life, nothing, howsoever base or bad it may be in your own eyes or in the eyes of the world, absolutely nothing is beyond the limits of His forgiveness for you. No matter how unforgivable you feel, he still loves you, wants to take you with him - if you're ready to come! All you have to do is to voluntarily and sincerely confess your sins, ask Him for forgiveness, and surrender your life to Him. A short prayer of true heartfelt repentance, said voluntarily and sincerely, "Lord Jesus forgive my sins, take me under your shelter and make me your obedient child, free me from my sins and make me a useful man" will make you a child of God, a member of God’s family, from now to eternity; and as a child of God, will give you the honor of living in heaven with Him. Will you make this decision and take this step for your own benefit?
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