व्यवस्था तथा मसीही विश्वास का जीवन जीना – 2
पिछले लेख में हमने देखा था की प्रभु यीशु मसीह ने हमारे लिए व्यवस्था को पूरा कर के उसकी विधियों के लेख को, अर्थात विभिन्न बलिदानों, रीतियों, पर्वों के निर्वाह को हमारे सामने से हटा दिया है। किन्तु साथ ही प्रभु ने उस व्यवस्थापक या शास्त्री से, जिसने व्यवस्था के पालन का प्रश्न उठाया था, ज़ोर देकर उससे व्यवस्था के सही अभिप्राय के निर्वाह के लिए भी कहा, अर्थात परमेश्वर तथा मनुष्यों के साथ एक सही सम्बन्ध में आकर उसका ठीक से निर्वाह करते रहना। इसे समझने के लिए हमने कुलुस्सियों 2:13-17, विशेषकर, पद 14 और 16 से देखा था। इसी प्रकार से अब एक अन्य संबंधित पद, रोमियों 10:4 को भी देखिए, “क्योंकि हर एक विश्वास करने वाले के लिये धामिर्कता के निमित मसीह व्यवस्था का अन्त है।” यहाँ पर भी कोई विरोधाभास नहीं है। जैसा हमने पहले के लेखों में देखा था, व्यवस्था की ये बातें, जिन्हें प्रभु ने पूरा करके हमारे सामने से हटा दिया है, वे हमारे शिक्षक के समान थीं, जिन्होंने हमें पाप, उसकी जवाबदेही, उसके परिणामों, और केवल उद्धारकर्ता पर विश्वास के द्वारा पापों से निवारण की बातों को सिखाकर, परमेश्वर के लोगों को अब्राहम से प्रतिज्ञा किए गए “उसके वंश,” जगत के उद्धारकर्ता प्रभु यीशु मसीह के हाथों में सौंप दिया है। अब उस शिक्षक का कार्य और भूमिका पूरे होकर समाप्त हो गए हैं। इससे आगे जो भी है, वह प्रभु यीशु में और उसके द्वारा ही है, अन्य किसी बात से नहीं। इसीलिए मनुष्य को धर्मी बनाने के लिए, “धामिर्कता के निमित मसीह व्यवस्था का अन्त है”; अर्थात अब इसके आगे व्यवस्था की उन बातों की, जिन्हें मसीह द्वारा पूरा करके हटा दिया गया है, अब कोई भूमिका नहीं रह गई है, उनका अंत हो गया है। अब जो धार्मिकता है, वह मसीह यीशु में विश्वास की धार्मिकता है, “कि यदि तू अपने मुंह से यीशु को प्रभु जानकर अंगीकार करे और अपने मन से विश्वास करे, कि परमेश्वर ने उसे मरे हुओं में से जिलाया, तो तू निश्चय उद्धार पाएगा। क्योंकि धामिर्कता के लिये मन से विश्वास किया जाता है, और उद्धार के लिये मुंह से अंगीकार किया जाता है” (रोमियों 10:9-10)।
किन्तु इन विधियों के लेख को पूरा कर के हटा लिए जाने से, व्यवस्था की, उसकी सही परिभाषा के अनुसार निर्वाह की अनिवार्यता, अर्थात परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप और सम्बन्ध बहाल करने के लिए हर व्यक्ति द्वारा व्यक्तिगत रीति से अपने पापों के लिए पश्चाताप करने, मसीह यीशु से उनके लिए क्षमा माँगने, और अपना जीवन उसे समर्पित कर देने के द्वारा परमेश्वर के साथ अपने संबंधों को ठीक कर लेने की अनिवार्यता समाप्त नहीं हुई है, वरन स्थापित तथा और दृढ़ हो गई है “सो जब हम विश्वास से धर्मी ठहरे, तो अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर के साथ मेल रखें” (“रोमियों 5:1)। परमेश्वर के साथ हुए हमारे इस मेल को विकसित करते जाने के लिए हमें अब किसी “विधियों के लेख” का पालन करने की नहीं, वरन प्रभु यीशु की आज्ञाकारिता और समर्पण में चलते रहने की आवश्यकता है “और वह इस निमित्त सब के लिये मरा, कि जो जीवित हैं, वे आगे को अपने लिये न जीएं परन्तु उसके लिये जो उन के लिये मरा और फिर जी उठा” (2 कुरिन्थियों 5:15)।
इसलिए आज भी मसीही विश्वासियों के लिए “व्यवस्था” का उसकी सही परिभाषा और अर्थ में पालन करने की उतनी ही आवश्यकता है, व्यवस्था की मसीही विश्वास के जीवन में उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका है, जितनी पहले थी। परमेश्वर का वचन, उसकी बातें कभी बदलती या टलती नहीं हैं; न परमेश्वर कभी बदलता है, और न उसका वचन कभी बदलता है “क्योंकि मैं यहोवा बदलता नहीं; इसी कारण, हे याकूब की सन्तान तुम नाश नहीं हुए” (मलाकी 3:6); “हे यहोवा, तेरा वचन, आकाश में सदा तक स्थिर रहता है। तेरी सच्चाई पीढ़ी से पीढ़ी तक बनी रहती है; तू ने पृथ्वी को स्थिर किया, इसलिये वह बनी है” (भजन 119:89-90)।
अगले लेख से हम एक नई शृंखला आरंभ करेंगे। यदि आप मसीही हैं, और अपने आप को किसी भी प्रकार की “व्यवस्था” - वह चाहे परमेश्वर की हो, या आपके धर्म, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की हो - के पालन के द्वारा धर्मी बनाने के, और अपने शरीर के कार्यों के द्वारा अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के प्रयासों में लगे हैं; तो ध्यान देकर समझ लीजिए कि परमेश्वर का वचन स्पष्ट बताता है कि व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, वरन, परमेश्वर के दिए हुए पश्चाताप और समर्पण करने के मार्ग का पालन करने के द्वारा ही आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य बन सकते हैं। अभी समय और अवसर रहते सही मार्ग अपना लें, और व्यर्थ तथा निष्फल मार्ग को छोड़ दें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Law & Living the Christian Faith – 2
In the previous article we had seen that the Lord Jesus has fulfilled and put away for us the requirements of the Law, i.e., the observance and fulfilling various sacrifices, feasts, festivals etc. We had also seen that the Lord had also categorically asked the Scribe who had raised the question of observing the Law, that he should continue to observe the meaning, or, the purpose of the Law, i.e., to come into and live in a right relationship with God and man. To understand this, we had seen from Colossians 2:13-17, specifically, verses 14 and 16. Similarly, now consider another related verse, Romans 10:4, "For Christ is the end of the law for righteousness to everyone who believes." Even here, there is no contradiction. As we have seen in the previous articles, these things of the Law, which the Lord has accomplished and removed from us, were like our teacher, who taught us about sin, our accountability for sin, its consequences, and deliverance from sin through faith in the Savior alone and has handed over God's people to the promised “seed of Abraham,” Lord Jesus Christ, the promised Savior of the world. Now the work and role of that teacher has been completed. Whatever is beyond this is in and through the Lord Jesus, nothing else. That is why in order to make man righteous, "Christ is the end of the law for righteousness"; That is, now those things of the Law, which have been done away with by Christ, no longer have any role, they have come to an end. The righteousness that exists now is the righteousness of faith in Christ Jesus, "that if you confess with your mouth the Lord Jesus and believe in your heart that God has raised Him from the dead, you will be saved. For with the heart one believes unto righteousness, and with the mouth confession is made unto salvation” (Romans 10:9-10).
But the completion and taking away of these requirements of the Law, has not taken away the necessity of observing the Law by every person, in its correct definition and understanding; i.e., to be reconciled with God and be restored in fellowship with Him, every person has to personally repent of their sins, ask the Lord Jesus to forgive sins, and surrender his life to the Lord Jesus, and then continually live in that relationship; this application of the Law has been even more firmly established and confirmed “Therefore, having been justified by faith, we have peace with God through our Lord Jesus Christ” (Romans 5:1). In order to continually maintain and develop this peace and reconciliation with God, we no longer need to follow any "requirements of the Law" but to walk in obedience and submission to the Lord Jesus "and He died for all, that those who live should live no longer for themselves, but for Him who died for them and rose again" (2 Corinthians 5:15).
That's why there is just as much need for Christians today to follow the "Law" in its true definition and meaning, and it has an as important role in the life of Christian faith as it had earlier. The Word of God, His words never alter or change; God never changes, and his Word never changes “For I am the Lord, I do not change; Therefore, you are not consumed, O sons of Jacob" (Malachi 3:6); “Forever, O Lord, Your word is settled in heaven. Your faithfulness endures to all generations; You established the earth, and it abides" (Psalm 119:89-90).
From the next article we will start a new series. If you are a Christian, and consider yourself righteous and acceptable to God by observance of any kind of “law”—whether of God, or of your religion, creed, community, or denomination—and by the actions of your flesh; then, pay heed and understand that God's Word clearly states that you can become righteous and acceptable to God, not by keeping the requirements of the Law, but by following God's path of repentance and submission. Now, while you have the time and opportunity, take the right step, and leave the useless and fruitless path that you may have been walking upon till now.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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