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गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 30

 

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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 27

 

    हम बाइबल में से सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं को सीख रहे हैं, और पिछले लेख में हमने देखा था कि वह सुसमाचार जो 1 कुरिन्थियों 15:1-4 में और गलतियों 1:4 में लिखा गया है, वही परिशुद्ध सुसमाचार है, वही पवित्र शास्त्र के अनुसार है, और वही परमेश्वर के द्वारा मानवजाति के उद्धार के लिए दिया गया है। यही वह सुसमाचार है जो सभी समयों, स्थानों, व्यक्तियों, परिस्थितियों आदि में कार्यकारी और प्रभावी है; इसी में लोगों को उनके पापों के लिए कायल करने और उन्हें परिवर्तित करने की सामर्थ्य है। इसे और सामर्थी या प्रभावी बनाने की या किसी भी अन्य कारण से इसमें और कुछ भी जोड़ने की, या इसे किसी भी तरह से सुधारने या बदलने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमने गलतियों 1:4-9 से देखा है कि किसी को भी, वह चाहे स्वर्गदूत हो अथवा प्रभु यीशु का प्रेरित, सुसमाचार में कोई भी बदलाव लाने का कोई अधिकार, कोई अनुमति नहीं है; ऐसा करने को सुसमाचार को बिगाड़ना कहा गया है, और जो यह करते हैं, उन्हें श्रापित कहा गया है। शैतान का निरन्तर यह प्रयास रहता है कि लोगों से अपनी बुद्धि और समझ के द्वारा सुसमाचार में कुछ बदलाव करवाए या उस में और कुछ जोड़े, बहुधा उसे और अधिक आकर्षक, या मनोहर बनाने के लिए, अथवा तात्कालिक परिस्थिति के अनुसार प्रासंगिक करने के लिए; किन्तु जैसा हमने 1 कुरिन्थियों 1:17 से देखा है, इससे  सुसमाचार केवल अप्रभावी ही होता है, न कि किसी भी रीति से उसके प्रभावी होने में कोई बढ़ोतरी होती है। आज हम कुछ शैतानी युक्तियों को देखेंगे जिनके द्वारा सुसमाचार बिगाड़ा जाता है और अप्रभावी किया जाता है।

    एक तो हम पिछले लेख में भी देख ही चुके हैं, और उसका उल्लेख ऊपर भी किया गया है, अर्थात सुसमाचार में मानवीय बुद्धि और समझ की बातें मिलाना (1 कुरिन्थियों 1:17) जिससे कि वह मनोहर और आकर्षक, परिस्थिति के लिए प्रासंगिक बन सके। किन्तु इससे वह साथ ही अप्रभावी भी हो जाता है।

    सुसमाचार को बिगाड़ने के लिए शैतान की एक और युक्ति है कि या तो उसे भले और धार्मिक कार्यों पर आधारित दिखाए, अर्थात भले बनो और भले कार्य करो तथा धार्मिक निर्देशों का पालन करो, और ऐसा कर के स्वयं को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाओ, और फिर उसके पास उससे उद्धार प्राप्त करने के लिए जाओ। इस में अनकही और छुपी हुई हानि की बात यह है कि परमेश्वर का वचन स्पष्ट कहता है कि कोई भी मनुष्य, किसी भी प्रकार के कार्यों के द्वारा, कभी भी परमेश्वर को ग्रहण योग्य होने योग्य भला नहीं हो सकता है (अय्यूब 14:4; 15:14-16; 25:4; यशायाह 64:6); और इसलिए, जो लोग इस विचारधारा के अनुसार चलते हैं वे कभी भी उद्धार पाने के लिए परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं बनने पाएँगे, और अपने पापों में ही मर जाएँगे। ऐसे बिगाड़े जाने का एक अन्य स्वरूप है कि प्रभु यीशु में विश्वास लाने के साथ भले कार्यों और धार्मिक बातों के निर्वाह की अनिवार्यता को भी जोड़ देना। इसका अभिप्राय यह है कि प्रभु यीशु का बलिदान मानवजाति के पापों का निवारण करने के लिए पर्याप्त नहीं है, और इसमें मनुष्य के भले एवं धार्मिक कामों का भी जोड़ा जाना आवश्यक है, तभी उद्धार प्राप्त होने पाएगा। जैसा हमने अभी देखा है, मनुष्य कभी भी किसी भी प्रकार के धार्मिक या भले कार्यों के द्वारा उद्धार पाने के लिए परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं हो सकता है, तो फिर मनुष्य के ये भले और धार्मिक कार्य उद्धार देने के लिए परमेश्वर पुत्र, प्रभु यीशु मसीह के बलिदान में सहायता किस प्रकार से कर सकते हैं? इफिसियों 2:1-9 और तीतुस 3:5 इस धारणा को पूर्णतः नकार देते हैं कि मनुष्य के उद्धार में किसी भी प्रकार के कर्मों की कोई भी भूमिका है; और स्पष्ट कर देते हैं कि उद्धार केवल परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा, कलवरी के क्रूस पर प्रभु यीशु द्वारा पूर्ण किये गए कार्य में विश्वास करने से ही है; उसमें किसी भी प्रकार से मनुष्य द्वारा कुछ भी जोड़ने का कोई स्थान नहीं है।

    एक अन्य बहुत आम देखे जाने वाला बिगाड़ वह है जिसका आरम्भिक कलीसिया को सामना करना पड़ा था और जिसके साथ काफी संघर्ष भी हुआ था कि उद्धार पाने के लिए अन्य-जातियों से आए हुए लोगों को खतना करवाना और व्यवस्था का पालन करना आवश्यक है (प्रेरितों 15:1, 5); किन्तु इस बात पर बहुत विचार और वाद-विवाद के बाद यरूशलेम में कलीसिया के अगुवों ने यह स्पष्ट कर दिया कि ऐसी कोई आज्ञा कहीं पर भी नहीं दी गई है, और ऐसा करने की कोई आवश्यकता भी नहीं है (प्रेरितों 15:24)। यह भी एक और तरीका है, इस बात को कहने का कि प्रभु यीशु का बलिदान अपर्याप्त है और पापों से निवारण के लिए उसमें कुछ और जोड़े जाने की आवश्यकता है – जो यहाँ पर ख़तना और व्यवस्था का पालन थे। प्रेरितों 15:7-10 में दिए गए पतरस के प्रत्युत्तर ने यरूशलेम की सभा के लिए समस्या का समाधान स्थापित कर दिया; पतरस ने कहा कि जब व्यवस्था और ख़तना अभी तक किसी को भी धर्मी नहीं बना सके थे, तो फिर उनके द्वारा प्रभु के बलिदान में सहायता कैसे हो सकती है? पौलुस ने भी गलतियों 5:1-6 में व्यवस्था के पालन तथा ख़तना करने की अनिवार्यता का विरोध किया, और बताया कि प्रभु यीशु ने व्यवस्था को पूरा करने के द्वारा उसे क्रूस पर ठोक दिया है और मसीही विश्वासियों के लिए अलग हटा दिया है, और उनके लिए ख़तना बन गया है (कुलुस्सियों 2:11-14)। आज हमारे समय में सुसमाचार में यह बिगाड़ सामान्यतः दी जाने वाली इस शिक्षा के द्वारा किया जाता है कि कलीसिया या डिनॉमिनेशन की धार्मिक रीतियों, परम्पराओं, और आज्ञाओं का पालन करना उद्धार के लिए अनिवार्य है। इसके पीछे का तर्क वही है जो उस समय “मूसा की व्यवस्था” के लिए दिया जाता था, और आज उसी तर्क को “कलीसिया या डिनॉमिनेशन की व्यवस्था” के पालन के लिए दिया जाता है। यह एक प्रकार की गलत शिक्षा और झूठा सिद्धान्त है जो “कर्मों द्वारा उद्धार” पर आधारित है, जिसके मिथ्या होने को हम ऊपर देख चुके हैं।

    अगले लेख में हम सुसमाचार में किये जाने वाले कुछ और बिगाड़ों, अर्थात सुसमाचार में डाले जाने वाले बदलावों और परिवर्तनों  को देखेंगे, जिन्हें बिना जाँचे-समझे-बूझे यूँ ही बातों को मान लेने वाले लोगों को सिखा दिया जाता है, उन पर थोप दिया जाता है; किन्तु वे बातें बाइबल के अनुसार सही नहीं हैं, व्यर्थ हैं, और उन्हें अस्वीकार कर के उनका तिरस्कार कर देना चाहिए।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

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English Translation


Teachings Related to the Gospel – 27

 

    We are learning teachings related to the gospel from the Bible, and in the last article we have seen that the gospel, as stated in 1 Corinthians 15:1-4 and Galatians 1:4, is the pure gospel, is according to the Scriptures, and is the gospel given by God for salvation of all of mankind. This gospel is effective and applicable across all times, places, persons, circumstances etc., having the power to convict people of their sins and change them. There is no need to supplement it in any way, and nor for any alteration or modification in it, for any reason. We have seen from Galatians 1:4-9 any alteration or modification of the gospel by anyone, be it an angel or an Apostle of the Lord Jesus, is forbidden, has been called perverting it, and those who modify it have been called accursed. Satan relentlessly tries to have people modify or supplement the gospel by using their wisdom and understanding, often to make it sound more attractive and appealing, or more relevant to the situation at hand; but as we have seen from 1 Corinthians 1:17 in the last article, this only renders the gospel ineffective, instead of increasing its effectiveness in any way. Today we will look at some of the satanic ploys through which the gospel is ‘perverted’ and rendered ineffective.

    One, we have already seen in the last article and has been mentioned above, i.e., adding thoughts of human wisdom and understanding to the gospel (1 Corinthians 1:17) to make it sound more attractive and appealing, or more relevant to the situation at hand. But by doing this, it also simultaneously becomes ineffective.

    Another satanic ploy to pervert the gospel is to either base it upon good and religious works, i.e., to be good and do good, and follow religious instructions, and thereby make oneself acceptable to the Lord, and then approach Him for being saved. The unspoken, hidden pitfall here is that God’s Word clearly says that man, through his works of any kind, can never be good enough to become acceptable to God (Job 14:4; 15:14-16; 25:4; Isaiah 64:6); and therefore, those go by this line of thought will never be able to become acceptable to God for being considered for salvation, and will die in their sins. A variant of this perversion is adding the necessity of doing good or religious works along with coming to faith in the Lord Jesus. This implies that the sacrifice of the Lord Jesus was insufficient to atone for the sins of mankind, and it has to be supplemented by good and religious works done by man, for salvation to be achieved. As we have just seen, since man can never be good enough through any works of any kind to be acceptable to God for being saved, how then can any of man’s works supplement the sacrifice of the God the Son, the Lord Jesus for the salvation of man? Ephesians 2:1-9 and Titus 3:5 absolutely negate the role of any kind of works in the salvation of man; stating that salvation is purely and only by the grace of God, through faith in the accomplished work of the Lord on the Cross of Calvary, without any kind of human supplementations added to the Lord’s work.

    Another very common perversion, which the initial Church had to face and struggle against was the teaching that the gentiles had to be circumcised and obey the Law also, to be saved (Acts 15:1, 5); but the Elders in Jerusalem, after debating the matter, made it clear that this was not commanded, and there was no need to do this (Acts 15:24). This is another way of saying that the Lord’s sacrifice by itself is insufficient atonement, and has to be supplemented by something more – here circumcision and obeying the Law. Peter’s response in Acts 15:7-10, settled the matter for the Council in Jerusalem; he said that since the Law and circumcision could never make anyone righteous till now, so how can they be a necessary supplement to complete the atoning work of the Lord? Paul too argued against the necessity of keeping the Law and circumcision in Galatians 5:1-6; and stated that the Lord Jesus by fulfilling the Law, has nailed it to the Cross and has taken it out of the way for the Christian Believers, and He has become their circumcision (Colossians 2:11-14). This perversion is seen in our times in the form of the commonly held teaching of the necessity of fulfilling religious creeds, rites and rituals of the church or denomination for salvation. The basic argument remains the same, only, what was the “Law of Moses” for the Jews then, has been replaced by the “Law of the church or of the denomination” now. This is another form of the false teaching and wrong doctrine of “salvation by works,” and we have seen its fallacy above.

    In the next article we will consider a few more perversions, i.e., alterations and modifications of the gospel, that are commonly seen and imposed upon the gullible people, but those things are unBiblical, vain, and must be rejected and discarded.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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