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बुधवार, 29 मई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 84

 

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आरम्भिक बातें – 45

बपतिस्मों – 25

पवित्र आत्मा से बपतिस्मा - (3) - पृथक अनुभव? - 2

 

वर्तमान में हम “बपतिस्मों” के बारे में अध्ययन कर रहे हैं, जो इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः आरंभिक बातों में से तीसरी बात है। हम बपतिस्मे से संबंधित एक बहुत उत्सुकता जागृत करने वाले और काफी प्रचार किए जाने वाले विषय - “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” पर वचन से देख रहे हैं। हमने बाइबल में प्रयोग किए गए संबंधित पदों से देखा था कि बाइबल में कहीं पर भी, कभी भी, “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” वाक्यांश का प्रयोग नहीं किया गया है। जब भी, और जहाँ भी प्रयोग हुआ है, “पवित्र आत्मा से बपतिस्मा” वाक्यांश का प्रयोग हुआ है। हमने वचन के उदाहरणों से यह भी देखा था कि “से” और “का” में कितना अन्तर है; और एक छोटे से शब्द के परिवर्तन के द्वारा कैसे सारा अर्थ बदल जाता है। पिछले लेख से हमने इस शब्दों की हेरा-फेरी और गलत शिक्षा के साथ जुड़ी हुई एक और गलत धारणा के बारे में देखना आरंभ किया है, कि तथाकथित “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा”, कुछ लोगों के कहे के अनुसार एक “दूसरा अनुभव” है, अर्थात, पवित्र आत्मा के द्वारा एक भिन्न सामर्थ्य प्रदान करना है। उन लोगों के अनुसार इसकी आवश्यकता लोगों को मसीही सेवकाई के लिए अधिक सामर्थी और प्रभावी करने के लिए होती है। पिछले लेख में हमने देखा है कि इस मन-गढ़न्त शिक्षा का बाइबल से कोई आधार अथवा समर्थन नहीं है। आज हम इस गलत शिक्षा से सम्बन्धित कुछ अन्य बातों पर विचार करेंगे, और फिर आगे चलकर इन गलत शिक्षाओं के दुष्प्रभावों को देखेंगे।


इससे पहले के लेखों में हम देख चुके हैं, कि बाइबल में, प्रेरितों 1:4-5, 8 में यह स्पष्ट लिखा हुआ है, और इसकी पुष्टि प्रेरितों 11:15-16 में भी की गई है कि पवित्र आत्मा पाना और पवित्र आत्मा से बपतिस्मा एक ही बात को कहने के दो भिन्न तरीके हैं। फिर भी पवित्र आत्मा से संबंधित गलत शिक्षाओं को सिखाने और फैलाने वाले, ‘से’ के स्थान पर ‘का’ लगाकर, और इस प्रकार से वाक्यांश के अर्थ को बदलकर, यही सिखाने और दिखाने का प्रयास करते हैं कि न केवल यह एक अलग बात है, वरन यह होना केवल मनुष्य के अपने प्रयासों के द्वारा ही संभव है। फिर अपने इस मन-गढ़ंत आधार पर वे यह प्रचार करते, सिखाते और बल देते हैं कि मसीही सेवकाई में लगे मसीही विश्वासियों को अवश्य ही इस तथाकथित “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” के लिए प्रयास और प्रार्थना करनी चाहिए। यह न केवल विश्वासियों का ध्यान और समय उनकी सेवकाई से हटाकर व्यर्थ बाइबल से बाहर की बात में फंसाना और उन्हें प्रभु के लिए उपयोगी होने से बाधित करना, सेवकाई और प्रभु के लिए उपयोगिता में व्यर्थ का विलंब करवाना है; वरन उनके मनों में यह बात डालना भी है कि वे परमेश्वर को बाध्य कर सकते हैं कि वह उनके लिए उनकी लालसा और इच्छा के अनुसार करें। 


उन लोगों का कहना है कि “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” विश्वासी के अंदर बसे हुए पवित्र आत्मा को सक्रिय कर देता है। इस से यह अभिप्राय हो जाता है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा, जो पश्चाताप और प्रभु में विश्वास करने के साथ ही विश्वासी को परमेश्वर की ओर से दे दिया गया (इफिसियों 1:13-14), वह आकर विश्वासी के अंदर शांत और निष्क्रिय बैठा हुआ होता है, और तब तक इस स्थिति में रहेगा, जब तक कि विश्वासी उसे जागृत कर के सक्रिय और कार्यकारी न कर दे। अर्थात, परमेश्वर पवित्र आत्मा को नियंत्रित करने वाला वह मनुष्य है, जिसमें पवित्र आत्मा विद्यमान है; और मानो परमेश्वर में कोई स्विच लगा हुआ है जिससे उसे चालू किया जा सकता है। जबकि ऐसी कोई शिक्षा पवित्र आत्मा के बारे में प्रभु यीशु ने, न तो यूहन्ना 14 और 16 अध्यायों में अथवा कहीं और, न ही पत्रियाँ लिखने वाले प्रेरितों और शिष्यों ने किसी अन्य स्थान पर कभी भी, कहीं पर भी दी; न ही बाइबल में किसी भी अन्य स्थान पर ऐसी कोई बात कही गई है। यह केवल शैतान के बहकावे में आकर मनुष्य द्वारा अपनी इच्छा पूरी करवाने के लिए परमेश्वर पर हावी होने का प्रयास करना है। 


यदि यह तर्क कि पवित्र आत्मा मिलता तो सभी विश्वासियों को है, जैसा प्रेरितों 2:3-4 में हुआ भी, किन्तु कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें उनकी सेवकाई के लिए कुछ अधिक सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, इसलिए उन्हें एक और अनुभव, “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” प्राप्त करने की आवश्यकता होती है को स्वीकार कर भी लिया जाए, तो यह भी वचन की किसी भी शिक्षा के साथ मेल नहीं खाता है। परमेश्वर पवित्र आत्मा एक ही है; उसकी सामर्थ्य और कार्य सभी में एक ही हैं; परमेश्वर के लोगों के प्रति उसका व्यवहार, उनकी देखभाल, और उनके प्रति ज़िम्मेदारी एक समान ही है; उसके द्वारा सभी मसीही विश्वासियों को दिए गए सभी वरदान एवं सेवाकाइयां सभी के लाभ ही के लिए हैं (1 कुरिन्थियों 12:4-11), बिना किसी भिन्नता या पक्षपात के। तो फिर कुछ लोगों के लिए आवश्यक और अन्यों के लिए आवश्यक नहीं होने की इस एक अतिरिक्त या भिन्न अनुभव की आवश्यकता की धारणा का क्या आधार है? वह भी तब, जब ऐसी कोई शिक्षा बाइबल में कहीं पर नहीं दी गई है।

    इन गलत शिक्षाओं और धारणाओं के दुष्प्रभाव हम अगले लेख में देखेंगे। हम मसीहियों के लिए यह अनिवार्य है कि हम ऐसी गलत शिक्षाओं के प्रति सचेत रहें, और मनुष्यों की बनाई हुई रीतियों और प्रथाओं का नहीं, परमेश्वर के वचन का पालन करने वाले हों। क्योंकि अन्ततः हमारा न्याय, मनुष्यों के द्वारा बनाई और धर्म-उपदेश करके सिखाई गई, मनुष्यों की बातों के आधार पर नहीं होगा। क्योंकि मनुष्यों द्वारा बनाए गए धर्मोपदेश न केवल व्यर्थ हैं (मत्ती 15:9) किन्तु हटा भी दिए जाएंगे (मत्ती 15:13)। सभी का न्याय प्रभु यीशु के द्वारा (प्रेरितों 17:30-31), उसके वचन की अटल और अपरिवर्तनीय बातों के आधार पर होगा (यूहन्ना 12:48)। इसलिए हमें मनुष्यों को नहीं परमेश्वर को प्रसन्न करने और उसके वचन का पालन करने वाला बनना अनिवार्य है, न कि मनुष्यों को प्रसन्न करने वाला और मनुष्यों के शब्दों और गढ़ी हुई शिक्षाओं का पालन करने वाला।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 45

Baptisms - 25

Baptism With the Holy Spirit - (3); A Second Experience? - 2

 

    Presently, we are studying about “Baptisms,” the third of the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2. We have been by looking at a very "in demand" and widely preached topic related to baptism - "the baptism of the Holy Spirit." We have seen from the related verses from the Bible that the phrase "baptism of the Holy Spirit" has never ever been used in the Bible. Whenever, and wherever it is used, the phrase "baptism with the Holy Spirit" has been used. We also saw from the examples of Scripture the difference between "with" and "of"; and how a change of a small word changes the whole meaning. Since the previous article we have taken up a misconception associated with this wrong teaching and misuse of words, that the so called "baptism of the Holy Spirit" is allegedly a “second experience”, i.e., a supposedly “another empowering” by the Holy Spirit. This is supposed to be necessary to make people more effective and useful for Christian Ministry. In the last article we have seen that this contrived teaching has no support, no basis from the Bible. Today we will look at some more points related to this wrong teaching; and subsequently we will look at the harmful effects of these wrong teachings.

    In earlier articles, we have seen clearly written in the Bible in Acts 1:4-5, 8 and then affirmed in Acts 11:15-16, that receiving the Holy Spirit and being baptized with the Holy Spirit are two different ways of saying the same thing. Yet those who teach and spread these wrong teachings related to the Holy Spirit, they not only try to teach and show that this "baptism of the Holy Spirit" is a different thing altogether, but also that it is accomplished only through man's own efforts. They do this by substituting the word ‘with' written in this phrase in the Bible with another word 'of', and thereby change the meaning and implication of the phrase. They then teach, preach, and emphasize that all Christians engaged in the ministry must strive and pray for receiving this contrived "baptism of the Holy Spirit." This not only diverts the Believer’s attention and time from their ministry, but also engages them in vain, unBiblical efforts. Thereby, instead of being involved in their Holy Spirit assigned ministry and service for the Lord, by causing them to be involved in unnecessary and unfruitful efforts related to receiving a non-existent thing, they are distracted away from being useful for the Lord. Moreover, it also puts the idea in their minds that they can compel God to do for them according to their own desire and will.

    They say that the “baptism of the Holy Spirit” is the activation of the indwelling Holy Spirit within the Christian Believer. This implies that God's Holy Spirit, which was given by God to the believer at the time of his salvation (Ephesians 1:13-14) by repentance and coming to faith in the Lord, comes and sits quietly and passively inside the believer, and then remains in this dormant non-functional state until the Believer awakens it and makes it active and functional. That is, the Believer in whom the Holy Spirit resides, he has the ability to activate the Holy Spirit, through his efforts; as if God has a switch on Him through which man can turn Him on. Whereas no such teaching implying the “activating” the Holy Spirit by the Lord’s disciples was ever given, at anytime, anywhere in God’s Word. Neither by the Lord Jesus in John chapters 14 and 16 or anywhere else, nor by the apostles and disciples who wrote the epistles; nor is such a thing said anywhere else in the Bible. It is simply man's attempt to dominate God under the guise of spirituality through Satan’s deviousness.

    If the argument that though the Holy Spirit is received by all the Believers, as happened in Acts 2:3-4, but there are some who need some more power for their ministry, so they need a second, or another experience of the Holy Spirit is accepted; i.e., they need the “baptism of the Holy Spirit”, even then this argument too does not go along with any teaching of the Word of God. There is one Holy Spirit; His power and work are one; His behavior, care, and responsibility toward all of God's people is the same; all His gifts and ministry given to the Believers are for the benefit of all (1 Corinthians 12:4-11), without any differentiation or partiality. What then is the basis for this wrong teaching of the requirement of an additional or different experience by some, but not by the others? That too when no such teaching is given anywhere in the Bible.

    We will see the harmful effects of these misconceptions and beliefs in the next article. It is essential for us to be wary of such wrong teachings, and to carefully follow only the Word of God, not the customs and traditions created by men. Because in the end, we will neither be judged by any man, nor on the basis of any man-made doctrines and teachings, all of which not only are vain (Matthew 15:9) but will also be taken away (Matthew 15:13). But every one of us will be judged by the Lord Jesus (Acts 17:30-31), and only on the basis of His unalterable and firmly established Word (John 12:48). Therefore, it is necessary for us to be pleasing to God, and be obedient to His Word, instead of striving to please men and obeying their word and contrived teachings.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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