भ्रामक शिक्षाओं के स्वरूप - प्रभु यीशु के विषय गलत शिक्षाएं (2)
पिछले कुछ लेखों से हम इफिसियों 4:14 में दी गई बातों में से, बालकों के समान अपरिपक्व मसीही विश्वासियों और कलीसियाओं को प्रभावित करने वाले तीसरे दुष्प्रभाव, भ्रामक या गलत उपदेशों के बारे में देखते आ रहे हैं। इन गलत या भ्रामक शिक्षाओं के मुख्य स्वरूपों के बारे में परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा 2 कुरिन्थियों 11:4 में लिखवाया है कि इन भ्रामक शिक्षाओं के, गलत उपदेशों के, मुख्यतः तीन स्वरूप होते हैं, “यदि कोई तुम्हारे पास आकर, किसी दूसरे यीशु को प्रचार करे, जिस का प्रचार हम ने नहीं किया: या कोई और आत्मा तुम्हें मिले; जो पहिले न मिला था; या और कोई सुसमाचार जिसे तुम ने पहिले न माना था, तो तुम्हारा सहना ठीक होता”, जिन्हें शैतान और उसके लोग प्रभु यीशु के झूठे प्रेरित, धर्म के सेवक, और ज्योतिर्मय स्वर्गदूतों का रूप धारण कर के बताते और सिखाते हैं। सच्चाई को पहचानने और शैतान के झूठ से बचने के लिए इन तीनों स्वरूपों के साथ इस पद में एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी दी गई है। इस पद में लिखा है कि शैतान की युक्तियों के तीनों विषयों, प्रभु यीशु मसीह, पवित्र आत्मा, और सुसमाचार के बारे में जो यथार्थ और सत्य है वह वचन में पहले से ही बता दिया गया है। इन तीनों प्रकार की गलत शिक्षाओं में से इस पद में सबसे पहली है कि शैतान और उस के जन, प्रभु यीशु के विषय ऐसी शिक्षाएं देते हैं जो वचन में नहीं दी गई हैं।
पिछले लेख में हमने प्रभु यीशु मसीह के विषय प्रेरितों और प्रभु के शिष्यों के द्वारा आरंभिक कलीसिया में जो बातें प्रचार की गईं, जो नए नियम की प्रेरितों के काम पुस्तक में संकलित हैं, उनमें से कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएं और तथ्य सूचीबद्ध किए थे, जिससे हर भ्रामक शिक्षा को उन शिक्षाओं और तथ्यों से मिलाकर देखा जाए, और जो उस सूची में नहीं है, उस की बारीकी से वचन की अन्य बातों के आधार पर जाँच-पड़ताल की जाए, यह निश्चित करने के लिए कि वह स्वीकार्य करने योग्य है अथवा अस्वीकार करने के योग्य। स्वीकार्य पाए जाने के बाद ही उसे ग्रहण किया जाना चाहिए अन्यथा उसका तिरस्कार कर देना चाहिए। शैतान और उसके लोगों ने प्रभु यीशु मसीह के विषय कई गलत धारणाएं, बातें और शिक्षाएं संसार में फैला रखी हैं। हमने पहले देखा है कि 2 कुरिन्थियों 11:13-15 के अनुसार, ये लोग झूठे प्रेरित और प्रभु के सेवक बन कर इन गलत बातों और शिक्षाओं को फैलाते हैं। इसीलिए उनकी ये गलत बातें सामान्यतः बड़ी धार्मिक, प्रभु और परमेश्वर के प्रति आदरणीय, श्रद्धा-पूर्ण प्रतीत होती हैं। किन्तु उन्हें जाँचने की कसौटी एक ही है - क्या वे शिक्षाएं प्रभु यीशु के विषय पहले से वचन में लिखी गई बातों के अनुसार, उनके अनुरूप हैं, अथवा उन से भिन्न हैं? यदि भिन्न हैं, तो स्वीकार्य कदापि नहीं हैं; उनसे बच कर रहना चाहिए, उन बातों के और उन्हें फैलाने वालों के झांसे में नहीं आना चाहिए। आज हम इन्हीं धार्मिक, आदरणीय श्रद्धा-पूर्ण, किन्तु बिलकुल अनुचित और गलत शिक्षाओं के कुछ उदाहरण देखेंगे।
एक गलत शिक्षा यह है कि प्रभु यीशु मानवीय देह में आया ही नहीं। परमेश्वर इतना पवित्र और परिशुद्ध है कि वह न तो पापमय देह में, और न ही पापी मनुष्यों के साथ वास कर सकता है; उनके समान बनकर रह सकता है। जब कि बाइबल स्पष्ट कहती है कि प्रभु यीशु मसीह परमेश्वर है, जिसे हम पिछले लेख में देख चुके हैं; साथ ही थोमा द्वारा पुनरुत्थान हुए प्रभु को किए गए संबोधन को देखिए, “यह सुन थोमा ने उत्तर दिया, हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्वर!” (यूहन्ना 20:28); और प्रभु ने उसकी इस बात को गलत नहीं कहा, न ही किसी अन्य शिष्य ने इसके बारे में कोई एतराज़ उठाया। यह सभी को स्वीकार्य थी, सत्य थी। साथ ही यूहन्ना 1:1-2, 14 को भी देखिए: “आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था। यही आदि में परमेश्वर के साथ था।”; “और वचन देहधारी हुआ; और अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण हो कर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उस की ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता के एकलौते की महिमा।” स्पष्ट है कि जो वचन परमेश्वर है, आदि से था, वही देहधारी हुआ, और प्रेरित यूहन्ना तथा उसके साथियों ने उसकी महिमा देखी, उसे जाना और पहचाना, जैसा वह 1 यूहन्ना 1:1-3 में भी कहता है। और प्रेरित यूहन्ना द्वारा अपनी पहली पत्री में इसके संबंध में लिखी गई बात पर भी ध्यान कीजिए: “परमेश्वर का आत्मा तुम इसी रीति से पहचान सकते हो, कि जो कोई आत्मा मान लेती है, कि यीशु मसीह शरीर में हो कर आया है वह परमेश्वर की ओर से है। और जो कोई आत्मा यीशु को नहीं मानती, वह परमेश्वर की ओर से नहीं; और वही तो मसीह के विरोधी की आत्मा है; जिस की चर्चा तुम सुन चुके हो, कि वह आने वाला है: और अब भी जगत में है” (1 यूहन्ना 4:2-3)। इसी गलत शिक्षा का एक अन्य स्वरूप है कि प्रभु यीशु परमेश्वर नहीं, वरन एक अति उच्च-कोटि के स्वर्गदूत थे, उन्हें परमेश्वर द्वारा बहुत असाधारण सामर्थ्य प्रदान की गई थी, और अपना कार्य करने के बाद वे परमेश्वर के पास लौट गए, किन्तु लोगों ने उन्हें ही परमेश्वर समझ लिया। उपरोक्त पद इन बातों के गलत होने को दिखा देते हैं।
एक और गलत शिक्षा है कि यीशु एक भला व्यक्ति था, जो लोगों की सहायता करता था, धर्मी था; किन्तु न तो अवतरित परमेश्वर था और न ही उद्धारकर्ता। किन्तु उसके मरने के बाद कुछ लोगों ने उसके विषय ये कहानियाँ बनाकर लोगों में फैला दीं। इसे नकारने के लिए उपरोक्त पदों के साथ परमेश्वर पवित्र आत्मा की प्रेरणा से प्रेरित यूहन्ना द्वारा लिखी गई बात पर ध्यान कीजिए: “मैं ने तुम्हें इसलिये नहीं लिखा, कि तुम सत्य को नहीं जानते, पर इसलिये, कि उसे जानते हो, और इसलिये कि कोई झूठ, सत्य की ओर से नहीं। झूठा कौन है? केवल वह, जो यीशु के मसीह होने का इनकार करता है; और मसीह का विरोधी वही है, जो पिता का और पुत्र का इनकार करता है। जो कोई पुत्र का इनकार करता है उसके पास पिता भी नहीं: जो पुत्र को मान लेता है, उसके पास पिता भी है। जो कुछ तुम ने आरम्भ से सुना है वही तुम में बना रहे: जो तुम ने आरम्भ से सुना है, यदि वह तुम में बना रहे, तो तुम भी पुत्र में, और पिता में बने रहोगे। और जिस की उसने हम से प्रतिज्ञा की वह अनन्त जीवन है। मैं ने ये बातें तुम्हें उन के विषय में लिखी हैं, जो तुम्हें भरमाते हैं।” (1 यूहन्ना 2:21-26)।
एक और गलत शिक्षा है कि प्रभु यीशु मसीह अपने लड़कपन में भारत आए थे, यहाँ पर शिक्षाएं प्राप्त कीं, और फिर वापस जाकर उन्हीं शिक्षाओं के आधार पर प्रचार किया, ख्याति पाई। यह इस आधार पर कहा जाता है क्योंकि लगभग बारह वर्ष की आयु (लूका 2:42) से लेकर तीस वर्ष की आयु में उनकी सेवकाई के आरंभ होने के समय (लूका 3:23) तक का कोई विस्तृत वृतांत बाइबल में नहीं पाया जाता है। किन्तु वचन से इससे संबंधित कुछ बातें देखिए:
लूका 2:51 देखिए: “तब वह उन के साथ गया, और नासरत में आया, और उन के वश में रहा; और उस की माता ने ये सब बातें अपने मन में रखीं।” अर्थात प्रभु यीशु अपने परिवार के साथ ही था, कहीं नहीं गया था।
उसके उपदेश और कार्यों को देखकर लोगों ने अचंभा किया और कहा, “सबत के दिन वह आराधनालय में उपदेश करने लगा; और बहुत लोग सुनकर चकित हुए और कहने लगे, इस को ये बातें कहां से आ गईं? और यह कौन सा ज्ञान है जो उसको दिया गया है? और कैसे सामर्थ्य के काम इसके हाथों से प्रगट होते हैं?” (मरकुस 6:2)। यदि प्रभु यीशु भारत या किसी अन्य स्थान से कुछ सीख कर आए होते तो लोगों में यह असमंजस नहीं होता।
उनकी सेवकाई का आरंभ उनके इस प्रचार से हुआ: “उस समय से यीशु प्रचार करना और यह कहना आरम्भ किया, कि मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है” (मत्ती 4:17)। और उनके जीवन तथा कार्यों को संक्षिप्त करके एक ही पद में इस प्रकार लिखा गया है, “कि परमेश्वर ने किस रीति से यीशु नासरी को पवित्र आत्मा और सामर्थ्य से अभिषेक किया: वह भलाई करता, और सब को जो शैतान के सताए हुए थे, अच्छा करता फिरा; क्योंकि परमेश्वर उसके साथ था” (प्रेरितों 10:38)। प्रभु की ये शिक्षाएं, उनका जीवन, उनका कार्य, उनकी सभी बातें, भारत क्या संसार के अन्य किसी भी स्थान की किसी भी शिक्षा या सभ्यता के बातों से मेल नहीं खाता है। यदि उन्होंने कहीं जा कर शिक्षा पाई थी, तो वह शिक्षा उनके जीवन और प्रचार में दिखनी तो चाहिए। किन्तु ऐसा है ही नहीं।
अधिकांश गलत शिक्षाएं प्रभु यीशु मसीह के मृतकों में से पुनरुत्थान से संबंधित हैं, उसे नकारने और बिगाड़ने के प्रयास हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि प्रभु यीशु मसीह का पुनरुत्थान ही मसीही विश्वास का आधार है – यदि मसीही विश्वास में से पुनरुत्थान को हटा दें, या उसे झूठा प्रमाणित कर दें, तो फिर मसीही जीवन और शिक्षाएँ किसी भी अन्य धर्म की शिक्षाओं से भिन्न नहीं रह जाती हैं। 1 कुरिन्थियों 15 – पूरा अध्याय इसी विषय – पुनरुत्थान के महत्व, पर है, और पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस लिखता है कि यदि पुनरुत्थान नहीं है, यदि मसीह का पुनरुत्थान नहीं हुआ, तो मसीही विश्वास से संबंधित सभी प्रचार और शिक्षा व्यर्थ है (1 कुरिन्थियों 15:12-18)। इसीलिए, जैसा 1 कुरिन्थियों 15:12 में पूछे गए प्रश्न से प्रकट है, कलीसिया के आरंभ के साथ ही प्रभु यीशु के पुनरुत्थान की वास्तविकता पर हमले होने, उसका इनकार करने के प्रयास आरंभ हो गए थे। पुनरुत्थान को झुठलाने के शैतान के ये प्रयास दिखाते हैं कि यह तथ्य उसके तथा उसके राज्य के लिए कितना खतरनाक है। पुनरुत्थान से संबंधित सामान्यतः देखी और कही जाने वाली ये गलत शिक्षाएं हैं:
पुनरुत्थान को झूठा ठहराने का पहला प्रयास तो पुनरुत्थान के दिन ही किया गया था – मत्ती 28:11-15 – लोगों में यह बात फैला दी गई कि प्रभु जी नहीं उठा, वरन उसकी लोथ उसके चेलों ने चुरा ली – किन्तु कोई भी, कभी भी, उन भयभीत और प्रभु को छोड़ कर भागे हुए, अपनी जान बचाकर छुपे हुए शिष्यों के पास से उस लोथ को निकलवाकर उनके प्रभु के पुनरुत्थान के प्रचार को झूठ प्रमाणित नहीं कर सका।
प्रभु की लोथ चुराने से संबंधित कुछ अन्य कहानियाँ यह भी हैं:
अरिमथिया के यूसुफ ने, जिसने निकुदेमुस के साथ मिलाकर प्रभु यीशु को दफनाया था (यूहन्ना 19:38-42), उसी ने प्रभु को किसी और स्थान पर ले जाकर दफना दिया, क्योंकि उस दिन सबत आरंभ होने वाला था, इसलिए उसे यह कार्य शीघ्रता से करना पड़ा था। इसीलिए जहाँ यीशु को पहले दफनाया गया, वह कब्र खाली पाई गई। किन्तु, यूसुफ क्योंकि एक गुप्त शिष्य था, इसलिए उसके द्वारा बिना अन्य शिष्यों को इसके विषय बताए, किसी और स्थान पर ले जाकर दफनाना उचित नहीं लगता है; और ऐसा करने से क्या लाभ होने वाला था? और फिर यदि वे जानते थे कि यीशु जी नहीं उठा है तो फिर शिष्यों में इतनी हिम्मत कैसे आ गई कि वे हर सताव और दुःख सहते हुए भी प्रभु के पुनरुत्थान और सुसमाचार का प्रचार करने से रोके नहीं जा सके?
रोमियों ने लोथ ले जाकर कहीं और दफना दी – पिलातुस यरूशलेम में शान्ति रखना चाहता था – ऐसा करने से तो अशांति फैलने की संभावना अधिक थी।
यहूदियों ने ही लोथ निकालकर कही और दफना दी – तो फिर जब शिष्य उसके पुनरुत्थान का प्रचार करने लगे, तो उन्होंने वह लोथ निकालकर क्यों नहीं दिखाई?
एक कहानी यह भी कही जाती है कि प्रभु यीशु मसीह को क्रूस पर नहीं चढ़ाया गया, वरन उसके स्थान पर उसके जैसा दिखने वाला कोई व्यक्ति चढ़ा दिया गया। किन्तु ध्यान कीजिए कि जिसे यहूदियों ने पूरे लश्कर के साथ जाकर पकड़ा; सारी रात से एक से दूसरी कचहरी में घसीटते रहे, मारते-पीटते रहे, फिर उसे दिन चढ़े छोड़ क्यों दिया गया? रोमी अधिकारी पिलातूस ने भी यीशु को जाँचा, पहचाना, उसे छोड़ने के भरसक प्रयास किए, अन्ततः फिर कोड़े लगाने के लिए अपने सैनिकों को सौंप दिया। तो प्रभु उनके हाथों से कैसे बच निकला? और जिस व्यक्ति को उसके स्थान पर क्रूस पर चढ़ाया गया, वह व्यक्ति अकारण ही क्यों चुपचाप क्रूस पर चढ़ गया, और सब कुछ चुपचाप क्यों सहता रहा? और फिर क्रूस पर से कहे गए सात वचनों के साथ कैसे इस बात का तालमेल बैठा सकते हैं – प्रभु द्वारा अपने सताने वालों को क्षमा करने, यूहन्ना को अपनी माता को सौंपने, साथ टंगे हुए डाकू को क्षमा और स्वर्ग का आश्वासन देने, वचन में लिखी उसके विषय की भविष्यवाणियों पर ध्यान करके उन्हें पूरा करने, परमेश्वर को पिता कहने, आदि बातें कोई साधारण मनुष्य कैसे पूरा कर सकता था? साथ ही यीशु की माता मरियम वहाँ थी, सब देख रही थी, वह कैसे धोखा कहा सकती थी? प्रभु यीशु ने उसे यूहन्ना के हाथों में सौंपा था, यही क्रूस पर यीशु ही के होने की पुष्टि करता है (यूहन्ना 19:25-27)।
कुछ अन्य कहते हैं कि प्रभु मरा नहीं था, केवल बेहोश हुआ था, फिर कब्र में ठण्डे में विश्राम करने के बाद वह होश में आया, और कब्र में से बाहर आ गया। विचार कीजिए, जिस बेरहमी से प्रभु को क्रूस पर चढ़ाने से पहले उसे मारा-पीटा गया था, फिर हाथों-पैरों में कील ठोंके गए, छाती में भाला मारा गया (यूहन्ना 19:34), और सैनिकों ने पुष्टि की, कि वह मर गया है, इसलिए उसकी टांगें नहीं तोड़ीं (यूहन्ना 19:32-33) – इन सभी प्रमाणों के होते हुए, यह कैसे मान लिया जाए कि यीशु मरा नहीं था, केवल बेहोश हुआ था? प्रकट है कि यह कहानी पूर्णतः निराधार है। और फिर तीन दिन कब्र में लहूलुहान और बिना भोजन या पानी के पड़े रहने के बाद किस मनुष्य के शरीर में यह शक्ति बचेगी कि वह 50 सेर मसालों के लेप और लपेटे हुए कपड़े (यूहन्ना 19:39-40) को खोल कर, अपने कीलों से छेदे हुए हाथों और पैरों तथा बेधी हुई छाती के साथ कब्र के मुँह पर लुढ़काए गए भारी पत्थर को हटा कर बाहर आ जाए, पहरेदारों को भी भगा दे, और चलकर वहाँ से चला जाए।
एक अन्य कहानी है कि शिष्यों ने अपनी मनःस्थिति के कारण, प्रभु की आत्मा को देखा था न कि उसके जी उठे शरीर को। प्रभु ने स्वयं ही इस धारणा का खण्डन प्रदान किया – लूका 24:38-43; और थोमा को भी आमंत्रित किया कि वह अपनी रखी गई शर्त के अनुसार उसके घावों को छू कर देख ले (यूहन्ना 20:26-27)। और प्रभु चालीस दिन तक अलग-अलग लोगों को अलग-अलग स्थानों पर दिखाई देता रहा, उनके साथ बात करता रहा; एक साथ पाँच सौ से अधिक शिष्यों को भी दिखाई दिया (1 कुरिन्थियों 15:5-8) – क्या सभी एक ही भ्रम के शिकार थे; और इस भ्रम के कारण अपनी जान पर भी खेलकर प्रचार करने से नहीं रुके? क्या एक भ्रम के लिए वे शिष्य अपने उस अनुभव के बाद उसके लिए दुःख उठाने और मारे जाने को भी तैयार हो गए। जिसने प्रभु का अनुभव कर लिया है, वह उससे पलट नहीं सकता है।
प्रभु यीशु के विषय इन गलत शिक्षाओं के अतिरिक्त भी अन्य गलत शिक्षाएं और बातें होंगी। पाठकों से निवेदन है कि कृपया उन्हें अपने comments/टिप्पणी के रूप में भेजें, उनके बारे में बताएं जिससे उनके गलत होने की बातों और आधार को सामने लाया जा सके।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो कृपया ध्यान कर लीजिए कि कहीं आप प्रभु यीशु से संबंधित किसी गलत शिक्षा द्वारा भरमा तो नहीं दिए गए हैं? वचन के आधा पर गलत शिक्षाओं को ताड़ लेना, और सही शिक्षा में बने रहना हम सभी मसीही विश्वासियों के लिए अनिवार्य है। हमें अभी समय और अवसर रहते अपने आप को जाँचने और सुधारने के कार्य को कर लेना है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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