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मसीही विश्वास - गणित का समीकरण नहीं है
पिछले दो लेखों का सम्मिलित निष्कर्ष था कि परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने का अर्थ है यह ग्रहण करना और अपने जीवन में कार्यान्वित करना कि केवल और केवल प्रभु यीशु मसीह ही मुझे मेरे पापों से छुड़ा सकता है, सुरक्षित कर सकता है; और जब मैं इस बात को ग्रहण करके अपने आप को उसे समर्पित कर दूँगा, उसका जन बना जाऊँगा, तब ही प्रभु यीशु को मुझे मेरे पापों से छुड़ा कर उनके दुष्प्रभावों से सुरक्षित कर देने की अनुमति और स्वतंत्रता प्राप्त होगी और वह यह करने पाएगा। आज से हम इसी निष्कर्ष को थोड़ा सा और विस्तरित करके देखेंगे और समझेंगे।
सामान्यतः ईसाई धर्म का पालन करने वालों में, मसीही विश्वास और उससे आए जीवन में परिवर्तनों को गणित के एक समीकरण के समान देखा, समझा, और माना जाना देखने को मिलता है। गणित का यह साधारण समीकरण है: यदि “अ”, “ब” के बराबर है, तो फिर सदा ही “ब” भी “अ” के बराबर ही होगा (If “A” = “B”; then “B” will always = “A”)। इस समीकरण की धारणा के अंतर्गत, लोग ईसाई धर्म को मानने वाले मसीही विश्वास के जीवन और उस विश्वास से आए परिवर्तनों को एक साथ ले कर, इन दोनों बातों को परस्पर अदल-बदल हो सकने वाली समझ और मान लेते हैं, उदाहरण के लिए मसीही विश्वासी प्रभु-भोज में सम्मिलित होते हैं, इसलिए वे सभी जो प्रभु-भोज में सम्मिलित होते हैं, वो मसीही विश्वासी हैं; या, मसीही विश्वासी प्रार्थना और बाइबल का अध्ययन करते हैं, इसलिए वे सभी जो प्रार्थना करते और बाइबल पढ़ते हैं मसीही विश्वासी हैं। ईसाई धर्म का पालन करने वालों में समीकरण समान देखने की यह गलत धारणा सामान्यतः चार बातों में समझी जाती है, जिन्हें हम आज से देखना आरंभ करेंगे।
समीकरण समान देखी जाने वाली पहली धारणा है भला व्यक्ति और भलाई का जीवन जीने वाला ईसाई व्यक्ति स्वतः ही प्रभु यीशु का जन है, उसे स्वीकार्य है। कोई भी व्यक्ति जब पापों से पश्चाताप करता है, उनसे मुँह मोड़कर, मसीह यीशु की आज्ञाकारिता में जीवन जीना आरंभ करता है, तो उसके जीवन से उसकी बुरी बातें, बुरे व्यवहार, बुरी आदतें भी हटने लग जाते हैं, और वह भली बातों, भले व्यवहार, भली आदतों आदि वाला व्यक्ति बनना आरंभ हो जाता है, इस परिवर्तन में अग्रसर होता रहता है, और कुछ समय में उसका यह परिवर्तित जीवन सभी को स्पष्ट दिखाई देने लगता है, “सो यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि है: पुरानी बातें बीत गई हैं; देखो, वे सब नई हो गईं” (2 कुरिन्थियों 5:17)। कहने का अर्थ है, मसीही विश्वासी बन जाने पर हर एक व्यक्ति का जीवन एक भला तथा भलाई का जीवन हो जाता है। अब जीवन में आए इस परिवर्तन को ही, मसीही विश्वास के स्थान पर ईसाई धर्म का पालन करने वाले लोगों ने उपरोक्त गणित के समीकरण के समान लिया और समझा है। इन लोगों का विचार होता है, क्योंकि मसीही विश्वासी का जीवन भला और भलाई का जीवन होता है, इसलिए मसीह यीशु का नाम लेते हुए, हर भला तथा औरों की भलाई करने का जीवन जीने वाला व्यक्ति भी मसीही विश्वासी के समान उद्धार पाया हुआ ही है।
किन्तु यह बाइबल की दी बातों के आधार पर सत्य, तथा बाइबल की शिक्षा नहीं है। पहला आधार है बाइबल की यह बहुत स्पष्ट शिक्षा कि पापों की क्षमा, उद्धार, नया जन्म केवल पश्चाताप और प्रभु पर लाए गए विश्वास से है, मनुष्यों के कर्मों से बिल्कुल भी नहीं है: “जब हम अपराधों के कारण मरे हुए थे, तो हमें मसीह के साथ जिलाया; (अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है)” (इफिसियों 2:5); “क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन परमेश्वर का दान है। और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे” (इफिसियों 2:8, 9); “तो उसने हमारा उद्धार किया: और यह धर्म के कामों के कारण नहीं, जो हम ने आप किए, पर अपनी दया के अनुसार, नए जन्म के स्नान, और पवित्र आत्मा के हमें नया बनाने के द्वारा हुआ” (तीतुस 3:5)। और दूसरा आधार यह कि मसीह यीशु के नाम में यदि कोई अपनी मरज़ी, अपनी इच्छानुसार कुछ करे - वह चाहे कितना भी अद्भुत आश्चर्यकर्म या विलक्षण प्रचार ही क्यों न हो, किन्तु यदि प्रभु परमेश्वर की ओर से, प्रभु की आज्ञाकारिता में नहीं किया गया है, तो न केवल वह प्रभु को अस्वीकार्य है, वरन प्रभु ऐसे कार्यों को “कुकर्म” कहता है, और उन्हें करने वालों को अपने से दूर कर देता है “जो मुझ से, हे प्रभु, हे प्रभु कहता है, उन में से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है। उस दिन बहुतेरे मुझ से कहेंगे; हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यवाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत अचम्भे के काम नहीं किए? तब मैं उन से खुलकर कह दूंगा कि मैं ने तुम को कभी नहीं जाना, हे कुकर्म करने वालों, मेरे पास से चले जाओ” (मत्ती 7:21-23)।
जो बात यहाँ पर ईसाई धर्म के पालन के उदाहरण द्वारा चित्रित की गई है, वही ठीक ऐसे ही, अन्य प्रत्येक धर्म के पालन के साथ भी लागू है। क्योंकि मसीही विश्वास लोगों को भला और भलाई करने वाला बना देता है, इसलिए इससे यह निष्कर्ष कदापि नहीं निकाला जा सकता है कि हर भला और भलाई करने वाला व्यक्ति उस गणित के समीकरण के समान, मसीही विश्वासी भी मान लिया जाएगा, और प्रभु को स्वीकार्य हो जाएगा, उद्धार या नया जन्म पाया और पापों की क्षमा पाया हुआ मान लिया जाएगा। ऐसी धारणा रखना, शैतान द्वारा फैलाया गया एक भ्रम है, धोखा है जिसमें किसी को भी नहीं पड़ना चाहिए। ईसाई धर्म का पालन करने वालों को भी अपने पापों से पश्चाताप करने और यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता प्रभु स्वीकार करने की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी किसी भी अन्य जन को है। यह सभी के लिए परमेश्वर की आज्ञा है, “इसलिये परमेश्वर अज्ञानता के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है। क्योंकि उसने एक दिन ठहराया है, जिस में वह उस मनुष्य के द्वारा धर्म से जगत का न्याय करेगा, जिसे उसने ठहराया है और उसे मरे हुओं में से जिलाकर, यह बात सब पर प्रमाणित कर दी है” (प्रेरितों 17:30-31)।
यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
एस्तेर 9-10
प्रेरितों 7:1-21
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Christian Faith is Not a Mathematical Equation
The collective conclusion of the previous two articles was that according to the Bible, The Word of God, to believe in the Lord Jesus means to accept and apply in one’s life the fact that only and only the Lord Jesus Christ can set a person free from sins, make him safe and secure; when a person accepts this and submits to the Lord Jesus, becomes “His people” it is then that the Lord Jesus is given the freedom in the person’s life to deliver him from sins and their harmful effects and make him safe and secure. Today we will consider this conclusion in some more detail to understand it better.
Generally, amongst those who follow the Christian religion, a tendency, a misunderstanding is seen regarding the Christian faith and the changes coming to faith in Christ Jesus brings in a person’s life; this tendency is to treat the effects of coming into Christian faith as a mathematical equation. A basic mathematical equation is that if “A” = “B” then “B” will always be = “A”. A commonly accepted notion, according to the understanding of this equation is, especially amongst those who profess to follow the Christian religion, that the presence of attitudes and behavior similar to the effects of coming to Christian faith, can be assumed to be the same as being in the Christian faith, e.g. a Christian Believer participates in the Lord’s Table, therefore those who participate in the Lord’s Table are Christian Believers; or a Christian Believer prays and studies the Bible, therefore all of those who pray and study the Bible are Christian Believers, etc. This tendency to treat the things of Christian faith as a mathematical equation is commonly seen in relation to four things; and we will start considering them from today.
The first thing commonly taken as a mathematical equation is that a good person, one living a life of goodness, automatically is one of “His people”, is acceptable to God. Any person when he repents of sins, turning away from them starts to live a life of obedience to the Lord Jesus, then things like practicing wrong things, bad behavior, bad habits, etc. keep getting removed from his life, and he tends to do the right things, good behavior, develops good habits etc., and he continues to grow and mature in these things, this change becomes very evident in his life, “Therefore, if anyone is in Christ, he is a new creation; old things have passed away; behold, all things have become new” (2 Corinthians 5:17). That is to say that everyone who becomes a Christian Believer, in his life this change for the better of being good and being good, i.e., living a life of goodness becomes an evident feature. This change that has come in life after coming into faith in Christ Jesus has been seen and used by the followers of the Christian religion like the aforementioned mathematical equation. Their concept and understanding is that since the life of a Christian Believer is life of being good and doing good, therefore every person who in the name of the Lord Jesus does good and lives good is a saved or Born-Again Christian Believer.
But this is neither true, nor the teaching of God’s Word, as can be seen from two facts from the Bible. First is that the Bible is very clear and unambiguous that forgiveness of sins, salvation, and being Born-Again, is only through repentance for sins and coming into faith in the Lord Jesus, not by any works done by men: “even when we were dead in trespasses, made us alive together with Christ (by grace you have been saved)” (Ephesians 2:5); “For by grace you have been saved through faith, and that not of yourselves; it is the gift of God, not of works, lest anyone should boast” (Ephesians 2:8, 9); “not by works of righteousness which we have done, but according to His mercy He saved us, through the washing of regeneration and renewing of the Holy Spirit” (Titus 3:5). And, the second is that if anybody does anything in the name of Christ Jesus, in his own will, according to his own choice and decision, if it is not from the Lord God, not done in obedience to the Lord, then not only is it not acceptable to the Lord, but the Lord actually calls all such works as “lawlessness”, and puts away all those who do so - no matter how good the preaching, how astounding the miraculous work, done by people in the name of the Lord, but in their own will “"Not everyone who says to Me, 'Lord, Lord,' shall enter the kingdom of heaven, but he who does the will of My Father in heaven. Many will say to Me in that day, 'Lord, Lord, have we not prophesied in Your name, cast out demons in Your name, and done many wonders in Your name?' And then I will declare to them, 'I never knew you; depart from Me, you who practice lawlessness!” (Matthew 7:21-23).
That which has been illustrated here through the Christian religion, the same holds true for every other religion as well, in just the same manner. Because the Christian faith converts a person into being good and doing good, therefore it cannot be concluded that every person who is good and does good, like the mathematical equation, will be seen and accepted as a Christian Believer, will be accepted by the Lord as one who has received the forgiveness of sins, has been saved, is Born-Again. Having this notion and believing in this thinking is falling for Satan’s deception; and one should beware of it, not believe in it. Even those practicing the Christian religion need to repent of their sins and accept the Lord Jesus as their saviour, personally and individually, like people practicing any other religion. This is God’s command for everyone, “Truly, these times of ignorance God overlooked, but now commands all men everywhere to repent, because He has appointed a day on which He will judge the world in righteousness by the Man whom He has ordained. He has given assurance of this to all by raising Him from the dead” (Acts 17:30-31).
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Esther 9-10
Acts 7:1-21
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