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गुरुवार, 30 जून 2022

मसीही विश्वास एवं शिष्यता / Christian Faith and Discipleship – 12


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मसीही विश्वासी के गुण - पश्चाताप

    पिछले लेखों में हमने परमेश्वर के वचन बाइबल की प्रेरितों के काम पुस्तक, जो प्रथम चर्च या मण्डली के आरंभ तथा गतिविधियों का संक्षिप्त इतिहास है, में से उस मण्डली के लोगों, अर्थात मसीही  विश्वासियों से संबंधित सात बातों को देखा, जिनमें से चार में वे “लौलीन” रहते थे, और पाँचवीं, बपतिस्मा लेना, प्रत्येक मसीही विश्वासी की ज़िम्मेदारी थी। साथ ही हमने यह भी देखा कि जो मसीही विश्वासियों के लिए “लौलीन” रहने वाली बातें है, उन्हें तथा बपतिस्मा लेने को मसीही या ईसाई धर्म का पालन करने वालों ने एक रीति या रस्म बना लिया है, और उन्हें उस गणित के समीकरण के समान देखते, सिखाते, और निभाते हैं, कि मसीही विश्वासी इन बातों का पालन करते हैं इसलिए इन बातों का पालन करने वाले भी स्वतः ही मसीही विश्वासी होंगे। इन धर्म-कर्म-रस्म का पालन करने में भरोसा रखने वालों ने उन बातों के निर्वाह के संबंध में अपने ही नियम और विधियाँ, जिनका बाइबल में कोई उल्लेख नहीं है, स्थापित कर के, इन बातों के निर्वाह करने को धर्म के निर्वाह के लिए एक अपेक्षित तथा वांछनीय औपचारिकता बना दिया है। किन्तु जैसे प्रभु यीशु मसीह ने अपने समय के धर्म के अगुवों से, उनके द्वारा मनुष्यों की बनाई हुई विधियों को परमेश्वर की बातें कहकर सिखाने को व्यर्थ उपासना करना कहा था, और चिताया था कि सब व्यर्थ बातें हटा दी जाएँगी (मत्ती 15:9, 13-14), वैसे ही आज भी प्रभु की यही बात वर्तमान में भी मनुष्यों के गढ़े हुए विधि-विधानों पर उतनी ही लागू है, उनके विषय उतनी ही सत्य है जितनी तब थी।


हमने यह भी देखा था कि सच्चे मसीही विश्वासियों के इन सात गुणों के बारे में लोगों को बताए जाने का आरंभ, यरूशलेम में धार्मिक पर्व मनाने के लिए एकत्रित हुए “भक्त यहूदियों” के मध्य में पतरस तथा प्रभु यीशु के शिष्यों द्वारा किए गए सुसमाचार प्रचार को सुनने के बाद, उन भक्त यहूदियों द्वारा उठाए गए एक प्रश्न से हुआ था, “तब सुनने वालों के हृदय छिद गए, और वे पतरस और शेष प्रेरितों से पूछने लगे, कि हे भाइयो, हम क्या करें?” (प्रेरितों 2:37)। उनके इस प्रश्न के उत्तर में पतरस द्वारा दिए गए उत्तर में हम इन सात बातों को देखते हैं। हम सात में से उन पाँच बातों को देख चुके हैं, जिन्हें मसीही विश्वास के स्थान पर मसीही या ईसाई धर्म का पालन करने वाले औपचारिकता के रूप में निभाते रहते हैं, और समझते हैं कि ऐसा करने से वे भी मसीही विश्वासियों के समान उद्धार या नया जन्म पाए हुए हो गए हैं; जो परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार एक बिल्कुल गलत धारणा है। आज हम शेष दो बातों, पश्चाताप करना और सांसारिकता से पृथक होने में से पहली बात, पश्चाताप करना, के बारे में कुछ विस्तार से देखेंगे।

 

मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अंग्रेजी अनुवाद ‘Repent’ और हिन्दी अनुवाद ‘मन फिराओ’ किया गया है, उसका शब्दार्थ है “बिलकुल भिन्न सोच या विचारधारा रखना”। अर्थात किसी बात के लिए पश्चाताप करने का अर्थ है, उस बात के लिए अपनी सोच या विचारधारा को पूर्णतः बदल देना, और उसे परमेश्वर की सोच और विचारधारा के अनुरूप ले आना, जिससे वह परमेश्वर की सोच और विचारधारा से संगत हो जाए, परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाए। पश्चाताप करना कोई औपचारिकता पूरी करना अथवा किसी धार्मिक रीति का निर्वाह करना नहीं है; यह पूरे मन से उस बात के प्रति अपनी समझ और व्यवहार को पूर्णतः परिवर्तित कर लेना है, अपनी भूतपूर्व सोच और विचारधारा से बिलकुल बदल कर, एक नई सोच और विचारधारा को स्वीकार करना और पालन करना है। संसार भर से आए हुए ये भक्त यहूदी यरूशलेम में इसलिए एकत्रित थे कि वे अपने धर्म और धार्मिक अनुष्ठानों के निर्वाह के द्वारा परमेश्वर की दृष्टि में भी धर्मी ठहरें और परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाएं। किन्तु पवित्र शास्त्र में दी गई जिस व्यवस्था और बातों के आधार पर वे ऐसी धारणा रखे हुए थे, जब उसी पवित्र शास्त्र में से पतरस ने परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई और सामर्थ्य से उनके मध्य में परमेश्वर को स्वीकार्य होने की वास्तविकता को रखा, तो उनकी आँखें खुल गईं। पतरस की बात सुनकर उनके हृदय छिद गए, उन्हें बोध हुआ कि उनकी यह धर्म-कर्म-रस्म की धार्मिकता उनके किसी काम की नहीं है, उसे निभाने के बाद भी वे परमेश्वर को वैसे ही अस्वीकार्य हैं, जैसे पहले थे। और तब, जब उन्हें परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी एवं स्वीकार्य होने के लिए और कुछ नहीं सूझ पड़ा, तो उन्होंने पतरस तथा शेष प्रेरितों से ही पूछा “हे भाइयों हम क्या करें?”


पतरस के उत्तर की सर्वप्रथम बात थी, ‘मन फिराओ’; अर्थात धार्मिकता के प्रति अपनी वर्तमान विचारधारा और व्यवहार से निकाल कर, अपने-अपने पापों की क्षमा, उद्धार, तथा परमेश्वर को स्वीकार्य धार्मिकता की समझ एवं निर्वाह के लिए प्रभु यीशु मसीह द्वारा किए गए कार्य को स्वीकार करो; अपने जीवन में उसका पालन करो। पतरस द्वारा दिए गए इस उत्तर में निहित है कि मसीही विश्वास और परमेश्वर को स्वीकार्य धार्मिकता के जीवन का आरंभ प्रत्येक व्यक्ति द्वारा व्यक्तिगत रीति से अपने जीवन में विद्यमान पापों का अंगीकार करने, फिर उनके लिए प्रभु यीशु मसीह से क्षमा माँगने के द्वारा होता है। यह करने के पश्चात, जिन बातों से उसके जीवन में पाप को प्रवेश और पैठ मिलती है उनसे संबंधित अपने विचारों और व्यवहारों के मार्ग को दृढ़ निश्चय के साथ पूर्णतः छोड़ देना है। साथ ही, प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चल निकलने तथा हर परिस्थिति का सामना करते हुए चलते ही रहने के लिए कटिबद्ध हो जाना है।

  

आज के मसीही या ईसाई समाज में ऐसी कितनी ही बातों, रीति-रिवाजों, त्यौहारों, आदि को मानने और मनाने पर जोर दिया जाता है, जिनका उल्लेख भी बाइबल में नहीं है, और जिनके लिए प्रभु यीशु अथवा पवित्र आत्मा ने कभी कोई शिक्षा नहीं दी है। फिर भी उन्हें बहुत उत्साह और लग्न से माना और मनाया जाता है; यहाँ तक कि यदि कोई उन बातों को न माने या मनाए, अथवा उनके मानने और मनाने के बारे में कोई प्रश्न उठाए, तो उसे विधर्मी समझा जाता है, उसके मसीही होने पर संदेह किया जाता है। किन्तु पश्चाताप और मन फिराव जैसे महत्वपूर्ण विषय को, जो बाइबल के अनुसार मसीही विश्वास में प्रवेश का, उद्धार एवं पापों की क्षमा प्राप्त करने के लिए व्यक्ति द्वारा उठाया जाने वाला पहला कदम है, उसके बारे में न बताया या सिखाया जाता है, और न ही इसके महत्व के बारे में शिक्षा दी जाती है। अगले लेख में हम इस बात के परम-महत्व को समझने के लिए परमेश्वर के वचन बाइबल में से पश्चाताप या मन फिराव से संबंधित कुछ पदों को देखेंगे।

  

यदि आप ने अभी तक अपने पापों से पश्चाताप नहीं किया है, अपना जीवन स्वेच्छा और सच्चे मन प्रभु यीशु को समर्पित नहीं किया है, तो आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • अय्यूब 17-19 

  • प्रेरितों 10:1-23

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English Translation

 The Characteristics of a Christian Believer - Repentance


In the previous articles we had seen seven characteristics of a Christian Believer from the Book of Acts, the historical account of the activities of the first Church of the Bible. Of these seven, we saw from Acts 2:42 that four were things in which the saved, or Born-Again initial Christian Believers, continued steadfastly, and a fifth, taking “Baptism” was the Lord’s commandment for every Born-Again Believer. We also saw that the things in which the Christian Believers continued steadfastly, have been turned into a formality, a ritual by the followers and adherents of the Christian religion, and have been taken, taught, and used like a mathematical equation, i.e., since Christian Believers do these things, therefore those who do these things will be considered as Christian Believers. The followers of this concept of having righteousness through religion-works-rituals, have created and added their own rules and ceremonies to these things, which have no support or affirmation from God’s Word. They have turned these five essential characteristics of a Christian Believer into religious formalities, expected and desirable in “Christians'' instead of retaining them in their initial form of commandments of the Lord to be observed steadfastly, as was being done by the early Christian Believers. But just as the Lord Jesus, during His time of Ministry on earth, had said to the then religious leaders about their teaching and enforcing such man-made rules, regulations and rituals being a “vain worship”, which would be removed by God (Matthew 15:9, 13-14) similarly, what the Lord had said at that time, is equally true and applicable to the current man-made rules, regulations, and traditions rampant today in Christendom.


We had also seen that the teaching about these seven characteristics of a Christian Believer began in Jerusalem, in the first preaching to the “devout Jews” by Peter and the disciples of Christ, in response to a question raised by those devout Jews who heard Peter’s sermon “Now when they heard [this], they were pricked in their heart, and said unto Peter and to the rest of the apostles, Men [and] brethren, what shall we do?” (Acts 2:37). Peter responded to this question by asking them to do seven things, of which five we have already seen; and the followers of the Christian religion fulfill as a formality, as a ritual and think that by doing this they too like the saved, Born-Again Christian Believers have become saved and acceptable to God, which is an unBiblical and a patently false notion on their part. We will now start considering the remaining two characteristics, i.e., Repentance and Separation from the world, in some detail from today.


The word used in the original Greek language, and translated as ‘Repent’ literally means “to come into a totally different point-of-view or understanding” about something. That is to say that to repent from sins literally means to completely turn away from one’s own thinking and understanding and to bring it around to God’s way and behavior towards sin.. This replacement of one’s own views, attitudes, behaviors etc. about things with God’s views, attitudes and behavior about them has to be done so to be acceptable to God, and then one has to continually live according to this new thinking and understanding. This makes it evident that ‘repentance from sins’ is not fulfilling a formality or a ritual; rather, it is voluntarily taking a decision with a fully committed and submitted heart for Lord Jesus to turn away from own or man-made and taught ways and commandments, to learn and live according to the Lord’s ways and commandments. Take note, the first people to hear this from Peter and the disciples, on that day were devout Jews who had come from all over the world to fulfill the requirements and ceremonies of their religion, to become righteous and acceptable to God. They had learnt and followed their concepts of righteousness and being acceptable to God from the teachings given in the Law and other parts of their Holy Scriptures. But when Peter, under the guidance of the Holy Spirit, placed before them the truth about being righteous and acceptable to God, it was a stark revelation for them. On hearing what Peter had to say, they were pricked to their hearts, they realized and understood that their righteousness based upon religion-works-rituals is vain, they are still as unacceptable to God after fulfilling all of those things, as they were before fulfilling them. Therefore, when they could not figure out any other way to be righteous and acceptable before God, they asked Peter and the other disciples “... Men [and] brethren, what shall we do?” 


In answer to their question, under the guidance of the Holy Spirit, the first thing that Peter asked them to do was to ‘repent’; i.e., completely and radically change their present attitude and thinking about being righteous, and believe in and accept the work done on the Cross of Calvary by the Lord Jesus for the forgiveness of sins, salvation, and becoming acceptable to God, and then to continue on this way lifelong. Implied in this answer given by Peter is the fact that Christian faith and righteousness acceptable to God in a person’s life begin only when he acknowledges the presence of sins in his life, asks for the Lord Jesus to forgive him for them and unconditionally surrenders his life to the Lord. After this, then the person has to turn away from all the things that provided an entry of sin into his heart and make him provide a place for sin to reside within him; he has to resolutely and diligently move away from all behavior, company, and things that can lead him back into a life of sin. Instead, as a disciple of the Lord Jesus he now has to walk on the way shown by the Lord, live according to His guidance; even though he will have to face difficult circumstances and many problems from the world in doing so, but he has to strive nevertheless.


In the present Christendom emphasis is laid upon accepting and fulfilling or observing many things that are not even given in the Bible, things about which neither the Lord Jesus nor the Holy Spirit ever gave any teaching of instructions. But still people fulfill and observe them with great enthusiasm and fervor; so much so that if anyone raises any questions about their observance, or if someone does not fulfill or observe them then he is considered a blasphemer, his being a Christian is questioned and doubted. But these Biblical, God instructed, very important things like repentance, change of heart, forgiveness of sins, obedience to God’s Word and not to man-made rules, regulations, and rituals etc., which form the very basis of being saved and made acceptable to God are, the very first step for actually being a Christian Believer, are usually never taught or even mentioned to the people, or are not explained and emphasized to them.


In the next article, to understand the paramount importance and absolute necessity of repentance and asking for forgiveness of sins, we will look at some verses about this from the Bible. If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Job 17-19 

  • Acts 10:1-23



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