ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

अपरिपक्वता के कारण धोखे में पड़ सकते हैं / Immaturity Renders Prone to Being Deceived


Click Here for the English Translation

सभी शिक्षाओं को जांचें और परखें


हम पिछले लेखों से इफिसियों 4:14 से अपरिपक्व मसीही विश्वासियों और अपरिपक्व कलीसिया के बारे में देखते आ रहे हैं। उनकी इस बालकों समान अपरिपक्वता का कारण उनका परमेश्वर पर पूरा भरोसा न रखना, और अपने पर भरोसा रखते हुए, परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार नहीं वरन अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार निर्णय लेते और कार्य करते रहना है। उनकी यह अपने पर भरोसा रखने की प्रवृत्ति उन्हें परमेश्वर के वचन और संगति से दूर कर देती है, जिससे फिर उन्हें उनकी आत्मिक खुराक या तो कम मिलती है अथवा मिलती ही नहीं है, और वे अपने आत्मिक जीवन में, अपने मसीही जीवन, गवाही, और सेवकाई में दुर्बल एवं अप्रभावी हो जाते हैं। अपनी इस अपरिपक्वता के कारण वे फिर मनुष्यों की ठग विद्या, भ्रम और युक्तियों, और गलत शिक्षाओं वाले उपदेशों का शिकार हो जाते हैं, जिसका प्रमाण उनका अस्थिर और भटकता हुआ मसीही जीवन होता है। हम अपरिपक्वता के पहले दो दुष्प्रभावों, मसीही विश्वासियों के मनुष्यों की ठग विद्या तथा भ्रम और युक्तियों से प्रभावित होने के बारे में देख चुके हैं। आज तीसरे दुष्प्रभाव, गलत उपदेशों से प्रभावित होने के बारे में देखेंगे।

 

आज हमारे हाथों में परमेश्वर का संपूर्ण वचन है, जो सुविधा उन आरंभिक मसीही विश्वासियों के पास नहीं थी। उनके पास, या उन्हें उपलब्ध केवल पुराने नियम की पुस्तकें, और प्रभु यीशु मसीह के शिष्यों तथा प्रेरितों द्वारा दी गई मौखिक शिक्षाएं और लिखी गई पत्रियां ही होती थीं। किन्तु फिर भी ऐसे भी मसीही विश्वासी थे, जैसे कि बेरिया के विश्वासी, जो अपने इन सीमित संसाधनों के बावजूद उन्हें दी जाने वाली शिक्षाओं को उपलब्ध वचन से जाँच परख कर देखते थे, और तब ही उन्हें स्वीकार करते थे। उनके इस खराई में बने रहने के प्रयास के लिए परमेश्वर के वचन में उनकी प्रशंसा की गई है, उन्हें उदाहरण के समान रखा गया है (प्रेरितों 17:11)। परमेश्वर पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित द्वारा लिखवाया है कि “सब बातों को परखो: जो अच्छी है उसे पकड़े रहो” (1 थिस्स्लुनीकियों 5:21)। किसी भी प्रचारक, उपदेशक, या शिक्षक के द्वारा दिए जाने वाले संदेश की खराई और सच्चाई को जाँचना-परखना, और तब ही उसे स्वीकार करना, परमेश्वर के वचन के विरुद्ध नहीं, उसके अनुसार है। जो कलीसिया या मसीही विश्वासी यह करते हैं, इस जाँचने की प्रवृत्ति के लिए जाने जाते हैं, वे गलत शिक्षाओं से भी बचे रहेंगे, और कोई गलत शिक्षाओं का देने वाला उनके मध्य आकर कुछ भी कहने से सावधान रहेगा। यह न केवल प्रत्येक मसीही विश्वासी का व्यक्तिगत दायित्व है, वरन प्रत्येक कलीसिया में वचन की सेवकाई के लिए भी परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा यह जांचने का निर्देश बाइबल में लिखवाया गया है “भविष्यद्वक्ताओं में से दो या तीन बोलें, और शेष लोग उन के वचन को परखें” (1 कुरिन्थियों 14:29)। किन्तु आज वचन के इस निर्देश के विपरीत, हर प्रकार के शिक्षक या उपदेशक को सहज ही ग्रहण कर लेना और उसके प्रचार संदेश की सराहना अथवा प्रशंसा करना एक आम बात हो गई है। उसके प्रचार का विश्लेषण करने और जाँचने वाले लोग और कलीसियाएं कम ही मिलती हैं। इसीलिए भ्रामक और गलत उपदेशों की भरमार हो गई है, और शैतान का काम आसान हो गया है।

 

आरंभिक कलीसिया के समय में गलत शिक्षाओं वाले ये प्रचारक, अपने साथ इस प्रकार की उनकी सराहना और प्रशंसा की पत्रियां लिए फिरते थे, जिससे उन्हें कलीसियाओं में प्रवेश पाना और प्रचार करना सहज हो जाए। प्रेरित पौलुस ने इस बात के संदर्भ में, कुरिन्थुस की मण्डली के लोगों से पूछा, “क्या हम फिर अपनी बड़ाई करने लगे? या हमें कितनों के समान सिफारिश की पत्रियां तुम्हारे पास लानी या तुम से लेनी हैं?” (2 कुरिन्थियों 3:1)। और अपने आप को इस कुप्रथा से दूर रखते हुए, उसने इन गलत उपदेश वालों की पहचान करने का एक चिह्न भी दिया - सच्चे मसीही प्रचारक का प्रचार और उसका प्रभाव, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से, केवल बाहरी या शारीरिक नहीं होता है, वरन हृदय या मन में होता है, और सभी लोगों के सामने बदले हुए हृदय में दिखाई देता है (2 कुरिन्थियों 3:2-3)। पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस ने तीमुथियुस को इस बात के लिए भी सचेत किया “क्योंकि ऐसा समय आएगा, कि लोग खरा उपदेश न सह सकेंगे पर कानों की खुजली के कारण अपनी अभिलाषाओं के अनुसार अपने लिये बहुतेरे उपदेशक बटोर लेंगे। और अपने कान सत्य से फेरकर कथा-कहानियों पर लगाएंगे। पर तू सब बातों में सावधान रह, दुख उठा, सुसमाचार प्रचार का काम कर और अपनी सेवा को पूरा कर” (2 तीमुथियुस 4:3-5), अर्थात, लोग स्वयं ही अपने लिए गलत उपदेशक बटोर लेंगे और हृदय तक उतर कर काटने वाले वचन की खरी शिक्षाओं पर नहीं, परंतु कानों की खुजली मिटाने वाली इधर-उधर की बातों, मन-गढ़ंत किस्से-कहानियों पर मन लगाएंगे। परन्तु तीमुथियुस को इन बातों से सावधान रहते हुए, सुसमाचार प्रचार की अपनी सेवकाई को पूरा करना था, चाहे उसके लिए दुख ही क्यों न उठाने पड़ें।

 

अगले लेख में हम इन गलत शिक्षाओं के मुख्य स्वरूपों को देखेंगे। किन्तु यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो अपने विषय यह सुनिश्चित कर लीजिए कि: 

  • क्या आप हर उपदेश को ऐसे ही ग्रहण कर लेते हैं, अथवा उसे वचन से जाँच-परख कर ही स्वीकार करते हैं? 

  • क्या आपको वचन की खरी शिक्षाएं, जो दोधारी तलवार के समान अंदर तक काटती हैं और भीतरी स्थिति की वास्तविकता को प्रकट करती हैं (इब्रानियों 4:12), पसंद हैं; या फिर आप सुनने में अच्छी लगने वाली इधर-उधर की बातों, मन-गढ़ंत किस्से-कहानियों से, जिनसे जीवन में कोई वास्तविक अथवा स्थाई परिवर्तन नहीं आता है, संतुष्ट और प्रसन्न होते हैं?

  • क्या आपके हृदय में, मन में आए परिवर्तन को लोग देखने और पहचानने पाते हैं; आपको संसार के लोगों से भिन्न, ऐसा व्यक्ति जो अपने जीवन से प्रभु यीशु को महिमा देता है समझने पाते हैं; या आपके किसी भी दावे के विपरीत, आपके जीवन में उन्हें संसार के अन्य लोगों से कोई भिन्नता दिखाई नहीं देती है?

    अपने आप को जाँच-परख कर, जो भी आवश्यक सुधार हैं, उन्हें अभी समय रहते कर लीजिए, और अपने अनन्त जीवन तथा आशीषों को सुरक्षित कर लीजिए। लापरवाही या अनुचित विलंब कहीं बहुत भारी न पड़ जाए।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • यिर्मयाह 32-33 

  • इब्रानियों1

**********************************************************************

English Translation


Examine and Verify all Teachings


In the previous articles we have been considering regarding the immature Christian Believers, and the immature Church, from Ephesians 4:14. Their child-like immaturity is because of their not fully trusting God; rather, trusting themselves and doing things, not under God’s guidance and obedience, but according to their own wisdom and understanding. Their tendency to trust themselves distances them from God’s Word and fellowship, which either curtails or deprives them of spiritual nourishment, or curtailing it, which in turn makes them weak and ineffective in their spiritual lives, Christian witness, and the Lord’s work. Because of their immaturity, they become prone to falling prey to deceptions and trickeries, cunning and craftiness, false doctrines and wrong teachings, brought to them by satanic agents to beguile and mislead them; their having fallen prey is evidenced by their being carried away by the winds of false doctrines and wrong teachings that come their way. We have already considered two harmful effects of spiritual immaturity - being carried away by the deceptions and trickeries, and being prone to the cunningness and craftiness of the devil. Today we will look into the third harmful effect, being adversely affected by deceptive teachings.


Today, we have the privilege of having the complete Word of God in our hands; a privilege not available to the initial Christian Believers. They had only the books of the Old Testament, and the verbal teachings given to them by the Apostles and the disciples of the Lord Jesus, and some of them also had letters written to them for their benefit. These limitations did not deter or hinder some Christian Believers, like those in Berea, who despite their these very limited resources, still made it a point to examine and verify the teachings given to them from whatever resources were available to them, and accept them only if what was taught to them was in accordance with the Word of God available to them. Because of their effort to remain established in the truth of God’s Word, they have been commended, and have been mentioned as an example to be emulated in the Bible (Acts 17:11). God the Holy Spirit, through the Apostle Paul, also had it written that “Test all things; hold fast what is good” (1 Thessalonians 5:21). It is not against, rather it is in accordance with the teachings of God’s Word to first examine and verify the truth of any message or sermon given by any preacher, evangelist, and teacher, whoever he may be; and accept the message or sermon only if it is found to be in line with God’s Word. Those Believers and Churches that practice this; those who are known for doing this, will remain safe from wrong teachings, and every preacher of wrong teachings will be wary of coming amongst them and preaching anything outside of God’s Word. Doing this necessarily, is not only the responsibility of every Christian Believer, but the Holy Spirit has had it written down as an instruction for the members of the Church to do this for every preaching and teaching given in the Church, “Let two or three prophets speak, and let the others judge” (1 Corinthians 14:29). But today, contrary to this instruction, it has become a common practice to accept every preacher and teacher, and then praise and appreciate everything that he says. It is a rare Church or a Christian Believer who actually practices this instruction to examine and verify the messages and sermons given to them. Because of this, Christendom and the world are filled with all sorts of wrong doctrines, false teachings, and unBiblical messages given in the name of the Lord, and Satan’s work of deceiving people has become so much more convenient for him.


In the early days, when the Christian Believers and Churches were still nascent, these satanic apostles, false preachers, and teachers used to roam around carrying with them letters of commendation and appreciation from gullible people and churches where they had preached, so that they could conveniently find entry into other churches and amongst other Believers, on the basis of those letters. Paul, in the context of this prevalent practice, asked the Corinthian Believers, “Do we begin again to commend ourselves? Or do we need, as some others, epistles of commendation to you or letters of commendation from you?” (2 Corinthians 3:1). Then while distancing himself from this malpractice, he gave a way to recognize these false preachers - the preaching and teaching of a truly Christian preacher, and the effect of his preaching and teaching, through the power of the Holy Spirit, is not just external and physical; but it is internal, affecting the heart and mind, and is practically evidenced before all, by a changed heart (2 Corinthians 3:2-3). Under the guidance of the Holy Spirit, Paul also cautioned Timothy about this “For the time will come when they will not endure sound doctrine, but according to their own desires, because they have itching ears, they will heap up for themselves teachers; and they will turn their ears away from the truth, and be turned aside to fables. But you be watchful in all things, endure afflictions, do the work of an evangelist, fulfill your ministry” (2 Timothy 4:3-5). In other words, the people will gather false preachers and teachers for themselves, those who will preach and teach not the sincere and honest teachings of God’s Word, but fables and man-made doctrines; not the truth that cuts to the heart, but things that are pleasing to the ears. But Timothy was to be watchful about these things and carry on in his ministry with the purpose of fulfilling it, even if it meant enduring hardships.


In the next article, we will look at some more things about this subject. But if you are a Christian Believer, then ascertain about yourself:

  • Do you accept and receive every message and sermon as it comes; or do you check it out from God’s Word before accepting it?

  • Do you like to hear the sincere, honest teachings of God’s Word that cut to the heart like a double-edged sword and expose the actual state of the heart (Hebrews 4:12)? Or, is it that you like to hear fables and man-made doctrines, things that are pleasing to the ears, but do not bring any lasting or true change in life?

  • Do people see and recognize the inner transformation happening within you, and see you as a person different from the people of the world, as one who glorifies the Lord Jesus with his life? Or, do they see no difference between you and any other person of the world?


Examine yourself, and correct whatever needs to be corrected, while you have the time and opportunity, and secure your eternal future and your blessings. Any carelessness, or procrastination about doing this now, can turn out to be very costly and irreversible.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Jeremiah 32-33 

  • Hebrews 1



1 टिप्पणी:

  1. Wakai hame jhoothe masiho k saman sirf chamatkar ko namaskar nhi karna h varan parmeshawar ke vachan k anusar usaka susamachar or apani gawahiyo ko logo ko bta kar parbhu ki Mahima karana h dhanyawad aap k margdarshan ke liye

    जवाब देंहटाएं