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प्रभु की मेज़ - परमेश्वर द्वारा पाप से व्यवहार (2)
पिछले लेख में हमने देखा था कि परमेश्वर की संतान, नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी के लिए, सच्चे पाप अंगीकार और पश्चाताप का अर्थ है नाम-बनाम विशिष्ट पापों को मान लेना, उनके लिए वास्तविकता में प्रभु के सामने दुखी और पश्चातापी होना, और उनसे दूर हो जाने या उन्हें अपने जीवन से निकाल देने का निर्णय करना। एक औपचारिकता के समान, पुस्तक से या पादरी की पीछे-पीछे अनुष्ठान की विधि के शब्दों को बोलते और दोहराते रहना, वह पाप अंगीकार तथा पश्चाताप नहीं है जिसकी बात 1 कुरिन्थियों 11:28 कर रहा है, और न ही यह वह “प्रभु की देह को पहचानना” है जो पद 29 का अभिप्राय है। इसलिए, इस रीति से प्रभु की मेज़ में भाग लेना, वह भाग लेना नहीं है जो परमेश्वर का वचन करने को कहता है, वरन अनुचित रीति से भाग लेना है। हमने यह भी देखा था कि बाइबल के अनुसार, या तो पाप परमेश्वर के द्वारा क्षमा किया जाएगा, अन्यथा परमेश्वर उसका न्याय करेगा, दण्ड देगा। पाप के साथ व्यवहार करने का और कोई तरीका नहीं है।
परमेश्वर अपनी क्षमा प्रदान करने के लिए न तो किसी मनुष्य की सिफारिश को स्वीकार करता है (यशायाह 1:11-15; यिर्मयाह 7:16; 11:14; 14:11-12; यिर्मयाह 15:1; यहेजकेल 14:14-20), और न ही वह अपने द्वारा आँकलन के लिए मनुष्यों द्वारा बनाए गए तरीकों अथवा मानकों का प्रयोग करता है। व्यक्ति के पापों के क्षमा किए जाने के लिए, उसके द्वारा किया गया पाप अंगीकार और पश्चाताप परमेश्वर के मानकों के अनुसार, परमेश्वर द्वारा दिए गए तरीके से होना चाहिए, और परमेश्वर को, जो प्रत्येक व्यक्ति की भीतरी वास्तविक स्थिति को भली-भांति जानता है, उसके पश्चाताप के लिए आश्वस्त होना चाहिए, केवल तब ही परमेश्वर उसे क्षमा करेगा। इसलिए कोई भी, कभी भी पापों के लिए क्षमा मिलने को हल्के में नहीं ले सकता है, यूं ही उसे मानकर नहीं चल सकता है। विशेषकर वे तो कदापि नहीं जो केवल बाहरी रीति से कुछ क्रिया-कलापों को करते हैं, जबकि जो वे पाप अंगीकार तथा पश्चाताप के बारे में कह और कर रहे हैं उसमें उनका मन खराई से कभी होता ही नहीं है। वे तो बस यही सोच और मान कर चलते हैं कि अब क्योंकि उन्होंने अपनी डिनॉमिनेशन की रीति के अनुसार कुछ शब्द कह दिए हैं, इसलिए अब वे आश्वस्त रह सकते हैं कि परमेश्वर को वह करना ही होगा जो उन्होंने कहा है, उसे उन्हें क्षमा करना ही होगा, क्योंकि उन्होंने उचित अनुष्ठान को पूरा कर लिया है।
परमेश्वर से उसके बच्चों, उसके लोगों को पाप क्षमा मिलने के बारे में एक और बहुत महत्वपूर्ण बात है, जिसके बारे में हमें बहुत गंभीरता से मनन करना चाहिए और हमेशा जिसका ध्यान भी रखना चाहिए। जैसा कि इब्रानियों 12:5-11 में लिखा है, जब, जैसी और जितनी आवश्यकता होती है, एक प्रेमी पिता के समान, परमेश्वर भी अपने जिद्दी बच्चों की ताड़ना करता है; जैसे कि संसार के माता-पिता करते हैं। परमेश्वर द्वारा अपने बच्चों की ताड़ना करना इस बात का प्रमाण है कि परमेश्वर अपने बच्चों की चिंता करता है, उनके जीवन और व्यवहार को लेकर चिंतित है, और अपनी संतान को संसार के साथ समझौते की स्थिति में बने नहीं रहने देगा, वरन उस पापमय स्थित से जिस में उस बच्चे ने अपने आप को डाल लिया है, उसे निकालने के लिए जो कुछ भी आवश्यक है वह करेगा। इब्रानियों की पत्री का लेखक इस बात पर बल देने के लिए, पद 8 में बहुत कठोर भाषा का प्रयोग भी करता है - उनके ढिठाई के पापमय व्यवहार के लिए जिनकी ताड़ना नहीं हुई उन्हें वह “व्यभिचार की संतान”, अर्थात वे जो वास्तव में परमेश्वर की संतान नहीं हैं, कहता है। इसलिए परमेश्वर की जिद्दी, ढीठ, और पाप के साथ समझौता करने में लगी रहने वाले बच्चों के लिए, उन्हें मोड़कर वापस ठीक मार्ग पर लाने के लिए परमेश्वर की ताड़ना उनके प्रति परमेश्वर के प्रेम और चिंता का प्रमाण तो है ही, साथ ही इस बात का भी प्रमाण है कि वह व्यक्ति परमेश्वर की संतान भी है। दूसरी ओर, जो लोग अपने पापमय, सांसारिक, समझौते के बिगड़े हुए जीवन में ढिठाई से बने रहते हैं, चलते रहते हैं, किन्तु उन्हें परमेश्वर की ताड़ना का सामना नहीं करना पड़ता है, उन्हें बहुत गंभीरता से इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि ऐसा होना, उनके “व्यभिचार की संतान”, अर्थात वे जो वास्तव में परमेश्वर की संतान नहीं हैं, होने का प्रमाण भी है; परमेश्वर ने उन्हें अपनी संतान, अपने लोग स्वीकार ही नहीं किया है।
यद्यपि यह एक बहुत कटु और चौंका देने वाली बात है, किन्तु बाइबल से समर्थन के बिना नहीं है। परमेश्वर के वचन में अन्य भी उदाहरण हैं, जो दिखाते हैं कि बहुत से लोगों ने यह मान लिया है कि वे परमेश्वर के लोग हैं, किन्तु परमेश्वर ने कभी भी उन्हें अपने लोग होने के लिए न तो जाना और न ही कभी स्वीकार किया, वे चाहे जो भी कहते या करते रहें। मत्ती 7:21-23 इस बात का एक उदाहरण है; इन पदों में जिन लोगों के बारे में कहा गया है वे अपने आप को परमेश्वर के लोग मानते थे, उनका मानना था कि वे परमेश्वर के लिए कार्य कर रहे हैं, किन्तु अंत में जाकर प्रभु उनसे कह देता है कि वे कुकर्म करने वाले हैं और प्रभु ने उन्हें कभी नहीं जाना। इसी प्रकार से, प्रभु यीशु द्वारा दिए गए दस कुँवारियों के दृष्टांत में (मत्ती 25:1-12), वे पाँच मूर्ख कुँवारियां समझती थीं कि वे प्रभु के साथ की हैं, किन्तु 25:12 में प्रभु उनसे कह देता है कि “मैं तुम से सच कहता हूं, मैं तुम्हें नहीं जानता।” हम लूका 13:23-30 में भी देखते हैं कि प्रभु यीशु ने लोगों को पूर्व-धारणा रखते हुए यह मान कर चलते रहने के प्रति सचेत किया कि वे प्रभु के लोग हैं। प्रभु ने उनसे कहा कि अंत के दिन बहुत से होंगे जो यह कहेंगे के वे प्रभु के साथ चलते-फिरते थे, रहते थे, इसलिए वे भी प्रभु के लोग हैं, परंतु प्रभु उन्हें कभी भी जानने के उनके दावे से इनकार कर देगा। परमेश्वर का वचन यह भी दिखाता है कि इस सिक्के का दूसरा पहलू भी है, परमेश्वर पहले से ही जानता है कि उसके लोग कौन हैं (यूहन्ना 10:27; 2 तिमुथियुस 2:19), और किसी को भी सिवाए परमेश्वर और उसके वचन की आज्ञाकारिता में चलते रहने के अतिरिक्त और कुछ भी विशेष करने की आवश्यकता नहीं है। उनका यही करना भर ही संसार के सामने प्रमाणित कर देगा कि वे परमेश्वर के लोग हैं (यूहन्ना 14:21, 23; 1 यूहन्ना 2:3-6)। यूहन्ना और तिमुथियुस से लिए गए ये पद हमें वास्तव में परमेश्वर के लोग होने की पहचान करने के गुणों को दिखाते हैं।
इस समझ और पहचान के द्वारा हम जान सकते हैं कि क्यों ऐसे बहुत से लोग जो अपने आप को ईसाई या मसीही विश्वासी कहते हैं, किन्तु संसार के साथ समझौते का जीवन जीते हैं, प्रभु की मेज़ में अनुचित रीति से भाग लेते हैं, किन्तु कभी प्रभु द्वारा उनकी ताड़ना नहीं होती है, वे अपने जीवन और व्यवहार में ऐसे चलते रहते हैं मानो उन्होंने कभी कुछ गलत किया ही नहीं है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अपने ईसाई या मसीही होने के सभी दावों के बावजूद, परमेश्वर की दृष्टि में वे उसके बच्चे, उसके लोग हैं ही नहीं! चाहे वे अपने आप को मसीही विश्वासी कहें, बहुत भक्ति और धर्म-निर्वाह का जीवन व्यतीत करें, अपनी तथा संसार की दृष्टि में बहुत “धर्मी” हों, किन्तु परमेश्वर की दृष्टि में और उसके आँकलन के अनुसार, वे उसकी संतान या उसके लोग नहीं हैं; इसलिए वह उनके साथ अपने बच्चों के समान व्यवहार नहीं करता है, उनके गलत व्यवहार के लिए उनकी ताड़ना नहीं करता है। वह उनसे अंत में न्याय के समय व्यवहार करेगा, जैसे कि वह संसार के सभी अविश्वासियों के साथ करेगा। तब तक वो जो चाहे करते रहें, लेकिन उनका अपने आप को “मसीही” कहना उन्हें वैसे “मसीही” नहीं बनाता है, जैसा परमेश्वर चाहता है कि उसके लोग हों। परमेश्वर की संतान, उसके लोग होने के लिए, उनमें वे गुण होने चाहिएं जो हमने ऊपर यूहन्ना और तिमुथियुस से लिए गए वचन के हवालों में देखे हैं। अगले लेख में हम 1 कुरिन्थियों 11:31-32 से अपने आप को जाँचने तथा परमेश्वर द्वारा जाँचे जाने के बारे में देखेंगे।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
उत्पत्ति 39-40
मत्ती 11
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The Lord’s Table - God’s Dealing With Sin (2)
In the previous article we had seen that for a child of God, a Born-Again Christian Believer, true confession and repentance means confessing specific sins by name, genuinely being sorry for them before the Lord, and resolving to get away from them or cast them out of one’s life. The perfunctory, liturgical reading from a book or repeating after the Pastor of words to this effect is not the self-examination, confession, and repentance that 1 Corinthians 11:28 is talking about, nor is it the “discerning the Lord's body” that verse 29 means. Hence, participation in the Lord’s Table in this manner is not the one that God’s Word is talking about, and is an unworthy participation. We had also seen that Biblically speaking, sin can either be forgiven by God, or be judged and punished by God. There is no other way for dealing with sin.
God neither accepts any man’s recommendations for granting His forgiveness (Isaiah 1:11-15; Jeremiah 7:16; 11:14; 14:11-12; Jeremiah 15:1; Ezekiel 14:14-20), nor does He accept or go by any man-made methods and criteria for His evaluation and judgment. To have one’s sins forgiven, the person’s confession and repentance has to be according to God’s standards, in the God given manner, and God, who knows the actual inner state of every person, has to be convinced about the repentance being factual, only then will He forgive. So, no one can ever take his forgiveness from God for granted, least of all those who simply go through the motions externally while their hearts are nowhere in anything they say or do about confession and repentance, and think that by uttering a few words as a denominational tradition, they can assume and rest assured that God is now obliged to do as they have asked Him to do, He has to forgive them, because they have fulfilled the appropriate ritual.
There is another very important aspect of forgiveness that we need to seriously ponder over and always remain aware of, when thinking about God’s forgiveness for His children. As it says in Hebrews 12:5-11, as and when it is required, and to the degree necessary, God also chastens His wayward children, as a loving Father; just the same as earthly fathers do. This chastening by God is a proof that God cares for His child, is concerned about the child’s life and behavior, will not let His child continue in a state of compromise with the world, and will do whatever is necessary to bring His child out of the sinful state he might have got himself into. The author of Hebrews emphasizes this by using very strong language in verse 8 - calling those who have not been chastened for their recalcitrant behavior as “illegitimate”, i.e., not actually the children of God. So, God’s chastening for a wayward, stubborn and compromising child of God, to turn him around is an expression of God’s love and care for His child, as well as a proof of that person being a child of God. On the other hand, those who continue in their worldly, wayward, compromising, sinful behavior, without facing God’s chastening and corrections, should seriously take note that this is also a proof that they are “illegitimate”, i.e., God does not consider or know them as His children!
Though this is a very strong and shocking statement, but it is not without Biblical support. There are other instances in God’s Word that show that many people have assumed themselves to be God’s people, but God had never known or accepted them as His people, whatever they may have said or done. Matthew 7:21-23 is one such example; the people mentioned here thought they were God’s people, working for God, but at the end the Lord calls them those who practice lawlessness and declares that He never knew them. Similarly, in the parable of the Ten Virgins (Matthew 25:1-12), the five foolish virgins thought they were part of the Lord’s party, but in 25:12, the Lord tells them, ‘I do not know you.’ Again, in Luke 13:23-30, the Lord Jesus warned against being presumptive and clearly told that eventually there will be many who will claim that they too were God’s people and moved around with Him, but the Lord will refuse to accept their claim and deny ever knowing them. God’s Word also says that on the flip side, God already knows those who are His people (John 10:27; 2 Timothy 2:19), no one has to do anything other than live a life of obedience to God and His Word, abide in Him, and that by itself will show to the world that they are God’s people (John 14:21, 23; 1 John 2:3-6); these verse from John and Timothy also give us the criteria to know and recognize who actually are God’s people.
Through this insight we can understand why many people who live a life of compromise with the world, partake of the Lord’s Table unworthily, are never chastened or judged by the Lord, and they continue in their life and behavior as if they were doing nothing wrong. It is because in God’s eyes, despite all their claims to the contrary, they are not His children! Though they call themselves “Christians”, though they may be very pious and religious, very “righteous” in their own eyes as well as the eyes of the world, but in God’s eyes and in God’s evaluation, they are not His children, so He does not deal with them as His children, does not chasten them for their wrong behavior. He will deal with them at judgment time, as He will deal with every other unbeliever of the world; till then they can do what they want, but their claiming to be “Christians” does not make them the “Christians” God wants people to be. To be God’s people, they have to have the characteristics we saw above from the references taken from John and Timothy. In the next article we will look into 1 Corinthians 11:31-32, about judgment, self as well as God’s.
If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Genesis 39-40
Matthew 11
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