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बुधवार, 26 अप्रैल 2023

परमेश्वर का वचन – बाइबल, और विज्ञान / Word of God – Bible & Science – 10

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बाइबल और जीव-विज्ञान - 3 - क्रमिक विकास


इस शीर्षक के अंतर्गत पिछले दो लेखों में हम देख चुके हैं कि किस प्रकार से सारे संसार भर के ऊंचे पर्वतों की ऊंचाइयों पर पाए जाने वाले जल-जंतुओं के जीवाश्म (fossils) विद्यमान हैं, किन्तु थल के जंतुओं के जीवाश्म वहाँ विद्यमान नहीं हैं। यह तथा कुछ अन्य प्रश्न कि कब और कैसे रासायनिक एवं भौतिक क्रियाओं (chemical and physical reactions) द्वारा बने पदार्थों में “जीवन” आया; जीवन क्या है; और मृत्यु के समय शरीर से ऐसा क्या चला जाता है जिससे शरीर मृत कहा जाता है जबकि उसी मृत शरीर से लिए गए अंग, किसी अन्य में प्रत्यारोपित करके उस दूसरे शरीर के जीवन को बचाया जा सकता है, आदि - क्रमिक विकासवाद (evolution) के मानने वालों के लिए बड़ा और बिना समाधान का सिरदर्द बने हुए हैं, और उनके पास इनका कोई संतोषजनक उत्तर, वास्तव में कोई उत्तर ही नहीं है।


क्रमिक विकासवाद का दावा है कि समय के साथ, जीव-जंतुओं में होनी वाली आकस्मिक क्रियाएं उन्हें धीरे-धीरे विकसित करती चली गईं; कुछ आकस्मिक रीति से बने विशिष्ट रासायनिक पदार्थों के स्वतः ही आकस्मिक रीति से एकत्रित होने से उन्होंने आरंभिक अपक्क (crude) जीवों का रूप लिया, और फिर इसी आकस्मिक, अनियोजित, अनियंत्रित (sudden, unorganised, uncontrolled) क्रियाओं के होते चले जाने से वे अपक्क जीव उन्नत होते चले गए और अन्ततः इस वर्तमान स्वरूप में आ गए जैसे हम आज उन्हें देखते हैं। हम पिछले लेख में देख चुके हैं कि किसी भी उत्पाद के बनाए जाने में प्रयोग की जाने वाली रासायनिक क्रियाओं को कितनी बारीकी और ध्यान से नियोजित, नियंत्रित, और संचालित (plan and control) करना पड़ता है, अन्यथा कभी भी कोई भी दुर्घटना हो सकती है, सारी प्रक्रिया खराब हो सकती है। असमंजस की बात तो यह है कि कितने ही वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी जो जीव-जंतुओं में होने वाली क्रियाओं से बहुत कम जटिल पदार्थों का उत्पादन करने वाली इन क्रियाओं को स्वयं योजनाबद्ध तरीकों से नियंत्रित और संचालित करते हैं, उन्हें यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होता है कि जीव-जंतुओं में होने और उन्हें उन्नत करने वाली ये क्रियाएं स्वतः ही अनियोजित और बिना नियंत्रण अथवा संचालन के संभव होती चली गईं!


साथ ही क्रमिक विकासवाद का यह भी दावा है कि यह उन्नत होते चले जाने की प्रक्रिया आज भी ज़ारी है, किन्तु क्योंकि यह बहुत धीमी और अप्रत्यक्ष है, इसलिए हमें दिखाई नहीं देती है। “बहुत” समय के बाद मनुष्यों तथा अन्य जीव-जंतुओं में होने वाली यह “उन्नति” दिखाई देगी। चलिए एक बार को, केवल तर्क के लिए, उनके इस स्पष्टीकरण को मान लेते हैं। यह एक साधारण समझ और सामान्य-ज्ञान की बात है कि किसी भी स्वतः ही होने वाली अनियोजित, अनियंत्रित, असंचालित क्रिया द्वारा, तुलनात्मक रीति से, चल रही प्रक्रिया को बाधित करने वाले या उसमें हानि उत्पन्न करने वाले कार्य अधिक, किन्तु लाभ उत्पन्न करने वाले कार्य कम ही मात्रा में होंगे। इसलिए संसार भर में सभी स्थानों पर ऐसे अविकसित और अपक्क जीव-जंतुओं के जीवाश्म बहुतायत से बिखरे हुए होने चाहिएं जिन में ये स्वतः होने वाली आकस्मिक, अनियोजित, अनियंत्रित, असंचालित क्रियाएं कुछ ऐसे परिवर्तन ले आईं जो उन्हें फिर जीवित नहीं रख सके या जिनसे उनकी आयु घट गई और वे बिना और उन्नत हुए शीघ्र ही समाप्त हो गए। यदि क्रमिक विकासवाद का यह सिद्धांत सही है, तो एक से दूसरी प्रजाति की ओर विकसित होते जाने वाले अपूर्ण जंतुओं के जीवाश्म भी बहुतायत से, पूर्ण जंतुओं के जीवाश्मों से अधिक, होने चाहिएँ, क्योंकि धीरे-धीरे एक पूर्णतः विकसित से दूसरी पूर्णतः विकसित प्रजाति में परिवर्तित होने में उन जंतुओं को अनेकों अपूर्ण, अपक्क स्वरूपों से होकर निकालना पड़ेगा। 


     किन्तु, इसके विपरीत, न केवल संसार भर में बहुत कम स्थानों में जीवाश्म पाए जाते हैं, और उन स्थानों पर पाए जाने वाले जीवाश्मों की संख्या भी अधिक नहीं होती है; वरन जो जीवाश्म पाए भी जाते हैं, वे पूर्णतः विकसित और सटीक जीवित रह सकने वाले जंतुओं के होते हैं। आज तक कभी कोई पूर्णतः अविकसित या अपक्क जन्तु का जीवाश्म नहीं मिला है, और न ही एक से दूसरी प्रजाति में परिवर्तित होते जा रहे किसी जन्तु का जीवाश्म मिला है। अपनी इस हताशा और कुंठा को छुपाने के लिए कुछ तथाकथित “वैज्ञानिकों” ने ऐसे अपूर्ण और अपक्क जीवाश्म स्वयं बनाकर संसार के सामने उनकी खोज का दावा करा है, जिनमें बंदरों और मनुष्यों के मध्य की कड़ी माने जाने वाले पिल्टडाउन मैन (Piltdown Man) के मानव निर्मित होने की बात जानी-मानी है (https://en.wikipedia.org/wiki/Piltdown_Man)। ऐसा ही एक प्रसिद्ध जीवाश्म है रेंगने वाले सरीसृप (reptiles) और पक्षियों के मध्य के जीव आर्कियोपटेरिक्स का जीवाश्म, जिसे पहले एक “मध्य-कड़ी” का जीवाश्म माना जाता था, किन्तु अब उसे, तथा अन्य स्थानों पर उसके समान जंतुओं के जीवाश्मों को अपने आप में पूर्णतः विकसित एक प्रकार के थोड़ा सा उड़ पाने वाले डायनोसौर की प्रजाति स्वीकार किया गया है (https://www.nationalgeographic.com/science/article/archaeopteryx-flight-dinosaurs-birds-paleontology-science)। 


      आज लोग “विज्ञान” के नाम पर ऐसी असंभव और काल्पनिक बातों को तो सहज स्वीकार करने को तैयार हैं किन्तु हजारों वर्ष पूर्व लिखी गई परमेश्वर के वचन बाइबल की बात, “फिर परमेश्वर ने कहा, पृथ्वी से एक एक जाति के जीवित प्राणी, अर्थात घरेलू पशु, और रेंगने वाले जन्तु, और पृथ्वी के वन-पशु, जाति जाति के अनुसार उत्पन्न हों; और वैसा ही हो गया” (उत्पत्ति 1:24) को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं; यद्यपि वे प्रत्यक्ष अपने सामने देखते हैं कि हर एक जाति अपनी ही जाति के जीव-जंतुओं को उत्पन्न करती है। उस जाति के अन्तर्गत स्वरूप की भिन्नताएँ हो सकती हैं, किन्तु मुख्य जाति नहीं बदलती है। संसार भर में अनेकों स्वरूपों के कुत्ते, बिल्ली, घोड़े, बंदर आदि हैं; कोई भी जन उन्हें देखकर पहचान लेता है कि वे किस जाति के हैं, चाहे उनका स्वरूप कैसा भी हो। उनमें से उत्पन्न होने वाली अगली पीढ़ी भी अपनी ही जाति के अनुसार ही रहती है, बदलती नहीं है; एक से दूसरी जाति उत्पन्न नहीं होती है। मनुष्य ने कृत्रिम तरीकों से जातियों को मिश्रित करके नई जातियों को बनाने के प्रयास किए हैं, किन्तु सभी असफल रहे हैं। मूल जाति कभी नहीं बदलती है। परमेश्वर के नियम स्थापित, अपरिवर्तनीय और अकाट्य हैं। प्रमाण प्रत्यक्ष हैं, सर्व-विदित हैं, सहज स्वीकार्य हैं; किन्तु मनुष्य का दंभ उसे अपने ऊपर परमेश्वर की सार्वभौमिकता को स्वीकार नहीं करने देता है। 


      विज्ञान आज भी यह निर्णीत नहीं करने पाया है पहले मुर्गी आई या अंडा? किन्तु बाइबल के पहले ही अध्याय में, जो सृष्टि की रचना का संक्षिप्त इतिहास है, परमेश्वर ने बता दिया है कि पहले जीव-जन्तु बनाए गए, और फिर उन्हें अपनी जाति के अनुसार अगली पीढ़ी उत्पन्न करने की आशीष, क्षमता, और गुण दिया गया “फिर परमेश्वर ने कहा, जल जीवित प्राणियों से बहुत ही भर जाए, और पक्षी पृथ्वी के ऊपर आकाश के अन्तर में उड़ें। इसलिये परमेश्वर ने जाति जाति के बड़े बड़े जल-जन्तुओं की, और उन सब जीवित प्राणियों की भी सृष्टि की जो चलते फिरते हैं जिन से जल बहुत ही भर गया और एक एक जाति के उड़ने वाले पक्षियों की भी सृष्टि की: और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है। और परमेश्वर ने यह कह के उनको आशीष दी, कि फूलो-फलो, और समुद्र के जल में भर जाओ, और पक्षी पृथ्वी पर बढ़ें” (उत्पत्ति 1:20-22)। किन्तु फिर भी मनुष्य इस सीधी-सच्ची बात को स्वीकार करने के स्थान पर अपनी समझ का सहारा लेकर उलझन में फंसा पड़ा है, लेकिन परमेश्वर और उसके वचन बाइबल की सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। 


     बाइबल में हजारों वर्ष पहले लिखे गए सृष्टि के इसी इतिहास में परमेश्वर ने यह भी बता दिया कि उसने मनुष्य की रचना मिट्टी से की “और यहोवा परमेश्वर ने आदम को भूमि की मिट्टी से रचा और उसके नथनों में जीवन का श्वास फूंक दिया; और आदम जीवता प्राणी बन गया” (उत्पत्ति 2:7), तथा यह भी निर्धारित कर दिया कि मनुष्य परिश्रम की रोटी खाएगा तथा मृत्यु के बाद वापस मिट्टी में मिल जाएगा “और अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा, और अन्त में मिट्टी में मिल जाएगा; क्योंकि तू उसी में से निकाला गया है, तू मिट्टी तो है और मिट्टी ही में फिर मिल जाएगा” (उत्पत्ति 3:19)। आज विज्ञान भी यह जानता और मानता है कि मनुष्य के शरीर की रचना करने वाले मूल तत्व (elements) सभी मिट्टी में ही पाए जाते हैं; और यह सभी का सामान्य प्रत्यक्ष अनुभव है कि मृत्यु के बाद, यदि उसके शव को स्वतः ही समाप्त होने दिया अजाए तो शरीर गल कर मिट्टी ही बन जाता है; किन्तु फिर भी मनुष्य को परमेश्वर के वचन बाइबल की बातों पर विश्वास करना कठिन होता है। 


      परमेश्वर और उसके वचन के प्रति इस अविश्वास का मूल कारण है मनुष्य के स्वभाव और व्यवहार में बसा हुआ पाप - परमेश्वर और उसकी आज्ञाओं के प्रति विद्रोह और अनाज्ञाकारिता की भावना। पाप वह नहीं है जिसे हम सामान्यतः पाप समझते हैं, जैसे झूठ बोलना, चोरी करना, धोखा देना, व्यभिचार, कुदृष्टि, लालच, हत्या, आदि - ये और ऐसे सभी कार्य तो पाप के फल, उसके परिणाम हैं, जो प्रवृत्ति, समय, मनसा, और अवसर के अनुसार प्रकट होते रहते हैं। इन बातों को दबाने और हटाने के प्रयास करना झाड़ियों के पत्तों और डालियों के छँटाई करने किन्तु जड़ को वहीं छोड़ देने के समान है; उस जड़ में से फिर से उपयुक्त समय और परिस्थितियों में से वही झाड़ी फिर से बाहर आ जाएगी और फिर से वही दुष्कर्म करवाएगी।


      किन्तु प्रभु यीशु पर लाया गया विश्वास, उसे स्वेच्छा और सच्चे मन से समर्पित किया गया जीवन, प्रभु को उस व्यक्ति के जीवन से इस पाप की झाड़ी की जड़ उखाड़ने की अनुमति दे देता है, और फिर प्रभु उस व्यक्ति के जीवन में से पाप करने की प्रवृत्ति को नाश करके, उस को अंश-अंश करके अपने स्वरूप में बदलने लग जाता है, उसके जीवन को अपनी अनन्तकालीन आशीषों से परिपूर्ण करने लग जाता है। यह एक जीवन भर चलती रहने वाली प्रक्रिया है, किन्तु प्रभु को समर्पित जन पाप को पाप मानने लगता है, उसके लिए बहाने नहीं बनाता है, और न ही किसी और को दोषी ठहराता है, वरन पाप होने पर उसे प्रभु के सामने मान लेता है, प्रभु से उसकी क्षमा भी माँग लेता है, उस पाप में बना नहीं रहता है।


     क्या आप आज, अभी, स्वेच्छा और सच्चे मन से एक छोटी प्रार्थना “हे प्रभु यीशु मैं आप पर तथा मेरे पापों की कीमत चुकाने के लिए क्रूस पर आपके द्वारा दिए गए बलिदान पर विश्वास करता हूँ। कृपया मेरे पाप क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और अपना आज्ञाकारी, समर्पित जन बनाएं” करने के द्वारा प्रभु को अपने जीवन में से पाप की जड़ को उखाड़ने और उसके स्वरूप में ढालने की अनुमति देंगे; उसकी आशीषों के पात्र बनना स्वीकार करेंगे?


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Bible and BioSciences - 3 - Evolution


In the last two articles under this title, we have seen how there are fossils of water animals found on the heights of high mountainous regions, all over the world, but fossils of land animals living in the plains are not found there. This and some other questions e.g., when and how "life" came into the substances made by chemical and physical reactions; what is life; and what goes away from the body at the time of death, so that the body is said to be dead; whereas the organs taken from the same dead body, when transplanted into a living body can save the life of that other body and remain alive themselves, etc. remain a big and unresolved mystery and cause for headache for the believers in evolution. And they have no satisfactory answer, in fact, no answer at all for these and similar other questions.


Evolution claims that intermittently, over time, the spontaneously appearing things in animals gradually improved and evolved them. They claim that certain chemical substances formed accidentally, came together spontaneously resulting in the formation of initial crude organisms; and then through these spontaneously occurring, unorganized, uncontrolled and unregulated actions, these crude living beings progressed and eventually came into the present form as we see them today. We have seen in the previous article how closely and carefully the chemical reactions used in the making of any product have to be planned, controlled, and regulated, otherwise accidents and damages can happen at any time; and the whole process could get messed up. It is an irony that so many scientists and intellectuals, who well know that unless these activities are made to occur in a planned, systematic, and controlled manner, substances much less complex than the basic building blocks of all living things, can never be formed. But they have no hesitation in accepting and believing that spontaneous, unplanned, uncontrolled, unregulated activities gave rise to the highly complex basic building blocks of all living beings and also got the organisms to form, grow, improve and become even more complex!


Evolution also claims that this process of gradual progress continues even today, but because it is very slow and indirect, we do not see it. After a "long period of time,” this "progress" in humans and other animals will become visible. Just for argument’s sake, let's accept this explanation for once. It is a matter of common knowledge and common sense that relatively speaking, the chances of the consequences arising from any spontaneously occurring unplanned, uncontrolled, unregulated action, are far more for obstructing or harming an ongoing process than their being beneficial in any way to the process. Therefore, it is logical to assume that the fossils of such undeveloped and under-evolved animals, should be abundantly present and scattered all over the world, and at most, if not all places, in which these spontaneously occurring, unplanned, uncontrolled, unregulated processes brought some changes, but those changes could not help them stay alive, or decreased their lifespan, therefore they soon succumbed to these spontaneously happening changes, soon after the changes happened, without being able to evolve any further. If this theory of evolution is correct, then fossils of intermediate and imperfect animals that could only partially evolve from one fully developed species to another fully developed species, from one kind of living being to another, should also be plentiful, far more in numbers and variety than fossils of complete and fully formed and functional animals; because those living beings would have had to have to pass through many imperfect, under-developed forms in order to be fully transformed into a new kind of living being.


But, on the contrary, not only are fossils found in very few places around the world, and the number of fossils found in those places is also not high. Also, the fossils that are found are always of animals that could live as a fully developed animal, very well adapted and suited to its environment of that time. To date, no fossil of an undeveloped or under-evolved animal has ever been found, nor has the fossil of any “intermediate” animal that is in the process of changing from one species to another have ever been found. To hide their frustration on this count, some so-called "scientists" have claimed making discoveries of such “intermediate” forms in front of the world by “cooking up” such fossils of “intermediate” or under-evolved animals. An example of this “cooking up” is the Piltdown Man, considered to be the link between monkeys and humans. This is now well known and documented to be not an actual but a man-made “fossil” (https://en.wikipedia.org/wiki/Piltdown_Man). Another such well-known and much touted about fossil is the fossil of Archaeopteryx, an animal said to be an “intermediate” between reptiles and birds. It was formerly considered a "missing-link" fossil, but now it, and fossils of similar animals found some in other places, have been accepted not as “intermediate” but fully developed type of a small flying dinosaur that could fly a little bit  (https://www.nationalgeographic.com/science/article/archaeopteryx-flight-dinosaurs-birds-paleontology-science).


Today people are ready to accept such impossible and imaginary things, as proven and certain facts, in the name of "science" that time and again has been shown to be fallible, contrived, and changing. But they are not willing to accept the infallible, incontrovertible, ever truthful, and never changing Word of God the Bible, where thousands of years ago God had it written, "Then God said, "Let the earth bring forth the living creature according to its kind: cattle and creeping thing and beast of the earth, each according to its kind"; and it was so” (Genesis 1:24); Although they see before themselves that each species always produces its own species. Within that species there may be variations of form, but the main species does not change. There are many types of dogs, cats, horses, monkeys etc. all over the world; Anyone looking at them recognizes which species they belong to, regardless of their appearance. Their every generation born from them also looks and lives according to their own parental species, never changes. One species does not ever arise from another; there is no “intermediate” or “partially-evolved” species of any living being anywhere on earth. Man has tried to create new species by mixing species by artificial means, but all have been unsuccessful. The original species never changes. God's laws are established, immutable, and irrefutable. The evidence is evident, open, simple and straightforward to accept. But man's conceit does not allow him to accept the sovereignty of God over himself.


Even today, science has not been able to decide whether the chicken came first or the egg? But in the very first chapter of the Bible, which is a brief history of the creation of the universe, God states that first creatures were created, and then they were given the blessing, ability, and quality to produce the next generation according to their race. “Then God said, ‘Let the waters abound with an abundance of living creatures, and let birds fly above the earth across the face of the firmament of the heavens.’ So God created great sea creatures and every living thing that moves, with which the waters abounded, according to their kind, and every winged bird according to its kind. And God saw that it was good. And God blessed them, saying, ‘Be fruitful and multiply, and fill the waters in the seas, and let birds multiply on the earth’” (Genesis 1:20-22). But still man remains confused because he believes in resorting to his own conjectures and understanding, instead of accepting this straightforward thing, from God and his Word, since he is not ready to accept the truth of the Bible.


In this same history of creation written thousands of years earlier in the Bible, God also told that He created man from dust “And the Lord God formed man of the dust of the ground, and breathed into his nostrils the breath of life; and man became a living being" (Genesis 2:7), and God had also stipulated that man would eat the bread of labor and after death would return to the dust “In the sweat of your face you shall eat bread Till you return to the ground, For out of it you were taken; For dust you are, And to dust you shall return” (Genesis 3:19). Today, science also knows and accepts that all the basic elements that make up the human body are found in the soil; And it is everyone’s common evident experience that after death, if the dead body is allowed to decompose on its own, then the body turns into dust. But still man finds it difficult to believe that which is written God's Word, the Bible.


The root cause of this disbelief in God and His Word is the sin inherent in man's nature and behavior – a tendency of rebellion and disobedience to God and His commands. Sin is not what we usually think of as sin, such as lying, stealing, deceiving, adultery, evil-sightedness, greed, murder, etc. - these and all such acts are the fruits or results of sin, which manifest in a person’s life, depending on his tendency, time, desires, and opportunity available. Trying to suppress and trim these things by any means, is like pruning the leaves and branches of the bush but leaving the root intact. From that root, at the appropriate time and in favorable circumstances, the same thorny bush of sin will grow out again and will again lead to the same misdeeds.


But the faith brought in the Lord Jesus, a life submitted to Him willingly and sincerely, allows the Lord to take away the roots of this bush of sin from that person's life, i.e., gives the Lord the opportunity to take away the tendency to sin from that person's life. After taking away this tendency, the Lord starts changing him bit by bit in into His own likeness, starts filling his life with His eternal blessings. This is a life-long process, but a person committed to the Lord now begins to consider sin as a sin, and does not make excuses for it, nor justifies it or blames anyone else, but confesses it to the Lord when he commits sin and realizes it. He asks the Lord for his forgiveness for that sin and does not persist in that sin.


Can I urge you now to please, willingly and sincerely say a short heartfelt prayer “Lord Jesus, I believe in you and your sacrifice on the cross to pay the price for my sins. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your obedient, committed follower” which will permit the Lord to pull out the root of sin from your life, and to begin to change you into His image. Are you willing to accept being a recipient of His blessings?


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