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शनिवार, 23 नवंबर 2024

What Is Sin? / पाप क्या है? - 2

 

पाप और उद्धार को समझना - 2 

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पाप क्या है? - 2

    पिछले लेख में हमने देखा था कि परमेश्वर के वचन, बाइबल, में परमेश्वर ने बताया है कि परमेश्वर की पवित्रता एवं निर्मलता के स्तर के अनुसार पाप मनुष्यों के नियमों या बातों का नहीं, वरन परमेश्वर की व्यवस्था का उल्लंघन है; और हर प्रकार का अधर्म पाप है - वह चाहे किसी भी परिस्थिति के अन्तर्गत अथवा उद्देश्य से क्यों न किया गया हो। साथ ही हमने यह भी देखा था कि परमेश्वर की दृष्टि में केवल शारीरिक कार्य ही पाप नहीं हैं; वरन मन की वे सभी भावनाएं, विचार, दृष्टिकोण, इच्छाएं, आदि, जो परमेश्वर की व्यवस्था के विरुद्ध हैं, उससे असंगत हैं, और जो किसी भी प्रकार के अधर्म के लिए उकसाती या प्रेरित करती हैं, वे भी पाप हैं। चाहे वे बाहरी रीति से व्यक्त न भी की गई हों, या शारीरिक कार्यों के द्वारा कार्यान्वित न भी की गई हों, तो भी, परमेश्वर की दृष्टि में वे उतना ही जघन्य पाप हैं, जितना उनके बाहरी प्रकटीकरण अथवा शारीरिक कार्यों में व्यक्त होने के द्वारा माना जाता। अर्थात, मन में पापमय विचार रखना भी शरीर द्वारा उस पाप को कर देने के समान ही पाप है। परमेश्वर, उस पापमय विचार को मन में स्थान देने को, उस पाप को अपने जीवन में स्थान देने के तुल्य दण्डनीय मानता है, और उसके अनुसार ही व्यक्ति का आँकलन करता है। 

    पाप, पवित्रता, और निर्मलता का यह सर्वोच्च स्तर, संसार भर में अनुपम है। यह मापदण्ड केवल बाइबल में, और केवल बाइबल के परमेश्वर में देखने को मिलता है। संसार के किसी भी अन्य ग्रंथ अथवा मान्यताओं में पवित्रता का, निष्पाप होने का ऐसा उच्च स्तर देखने को नहीं मिलता है। एक बार को इस स्तर को स्वीकार करना, इसका पालन करना बहुत अटपटा लगता है, क्योंकि किसी भी मनुष्य के लिए इसके सामने खड़े रह पाना, इसका निर्वाह कर पाना असम्भव है। इसलिए ऐसा लगता है कि परमेश्वर ने जान-बूझकर मनुष्यों के सामने एक असम्भव बात ला कर रख दी, और मनुष्यों को इन अजेय मानकों के द्वारा ऐसा दोषी ठहरा दिया कि उनके लिए उस के पास कभी कोई समाधान हो ही नहीं सकता है। क्या परमेश्वर ने जान-बूझकर मनुष्य को वास्तव में ऐसी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है जो मनुष्य के लिए असम्भव है?

    यदि बाइबल में दिए गए पाप के आरम्भ को देखें, उसकी पृष्ठभूमि का अध्ययन करें, तो यह स्पष्ट होता है कि इन मानकों को स्थापित करने के द्वारा परमेश्वर ने मनुष्य को फँसाया नहीं है, वरन उसे पाप से निकल पाने का मार्ग समझने के लिए तैयार किया है, मनुष्य को उसके प्रति परमेश्वर के असीम, अवर्णनीय प्रेम की ओर मुड़ने और समर्पित होने के लिए मार्ग दिया है। बाइबल के अनुसार, मनुष्य द्वारा किया गया पहला पाप क्या था; और कैसे हुआ? यह वृतान्त हमको बाइबल की पहली पुस्तक, उत्पत्ति, के पहले तीन अध्यायों में मिलता है, और पाठक यदि इन अध्यायों को स्वयं पढ़ लें, तो उनके लिए बात को समझना और सहज हो जाएगा। संक्षेप में, परमेश्वर ने छः दिन में सृष्टि की रचना पूरी करने के बाद उसका अवलोकन करके उसे “बहुत ही अच्छा” कहा (उत्पत्ति 1:31)। परमेश्वर की इस बहुत ही अच्छी रचना में मनुष्य भी सम्मिलित था, जिसे परमेश्वर ने शेष सृष्टि के समान अपने शब्द के बोलने के द्वारा नहीं, वरन अपने हाथों से रचा, और उसमें अपनी श्वास डालकर उसे जीवित प्राणी बनाया (उत्पत्ति 1:27; 2:7)। सृष्टि और मनुष्य की उत्पत्ति के समय पृथ्वी पर कोई पाप नहीं था। मनुष्य सृष्टि से ही नर और नारी, जिन्हें आदम और हव्वा नाम दिया गया, रूप में था; परमेश्वर ने उसके लिए उस “बहुत ही अच्छी” पृथ्वी पर, एक वाटिका भी लगाई, जहाँ पर परमेश्वर आदम और हव्वा से संगति करने के लिए आता था; और उन्हें उस वाटिका की देखभाल की ज़िम्मेदारी भी दी। उस वाटिका में परमेश्वर ने दो विशेष वृक्ष भी लगाए; एक था “जीवन का वृक्ष,” और दूसरा था “भले और बुरे के ज्ञान का वृक्ष” (उत्पत्ति 2:9)। परमेश्वर ने मनुष्य को वाटिका के सभी फलों को खाने की खुली छूट दी, किन्तु “भले और बुरे के ज्ञान का वृक्ष” के फल को खाने से मना किया (उत्पत्ति 2:16-17), और सचेत किया कि जिस दिन उसने उस फल को खाया, वह मृत्यु की अधीनता में आ जाएगा।

    उत्पत्ति 3 अध्याय में हम देखते हैं कि शैतान ने मनुष्य को अपने जाल में फँसाने, और उसे पाप में गिराने, परमेश्वर से पृथक कर देने के लिए सर्प का रूप लिया, और हव्वा के मन में परमेश्वर के विरुद्ध शंका उत्पन्न की; उसके मन में आदम और हव्वा के प्रति परमेश्वर के प्रेम के विषय सन्देह उत्पन्न किया; उसके मन में परमेश्वर की आज्ञाकारिता के अनुसार नहीं, वरन अपनी ही दृष्टि, बुद्धि, और समझ के अनुसार जागृत होने वाली भावनाओं और विचारों को कार्यान्वित करने को उकसाया। हव्वा शैतान के इस प्रलोभन में आ गई, उसने परमेश्वर द्वारा उन्हें दी गई व्यवस्था का पालन नहीं किया; वरन वह किया जो उसका मन उसे कहने लग गया था; और उसने “भले और बुरे के ज्ञान का वृक्ष” के फल को लेकर स्वयं भी खा लिया, और आदम को भी खिला दिया (उत्पत्ति 3:6-7)। उनकी यह परमेश्वर की व्यवस्था के प्रति अनाज्ञाकारिता ही संसार का प्रथम पाप थी। पाप उस फल में नहीं था; पाप उस फल के प्रति परमेश्वर के निर्देशों का पालन न करने से था। ध्यान कीजिए, शैतान ने उन्हें पाप करने के लिए बाध्य नहीं किया, किसी बात द्वारा उन्हें डरा या धमका कर उनसे पाप नहीं करवाया; वरन उनके मनों में परमेश्वर के नियम, उसकी व्यवस्था के प्रति सन्देह उत्पन्न किया; उन्हें परमेश्वर की योजनाओं और बातों के विरुद्ध उकसा कर उनके मनों में परमेश्वर के कहे के विपरीत विचार उत्पन्न किए, और फिर अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों के द्वारा उन्हें उनके मन के विचारों, मनों की बात, उनके मनों में जागृत लालच और अभिलाषा को कार्यान्वित करने के लिए आगे बढ़ा दिया। आदम और हव्वा के द्वारा अपने मन की सुनने के कारण पाप ने पृथ्वी में और सृष्टि में प्रवेश किया (रोमियों 8:19-22), और उसके दुष्परिणाम हम आज तक झेल रहे हैं। 

    इसीलिए, परमेश्वर ने अपने वचन में लिखवाया है कि पाप परमेश्वर की व्यवस्था का उल्लंघन है; और परमेश्वर मन में आने वाले पापमय विचारों को भी शरीर में किए गए पाप के समान ही जघन्य और दण्डनीय मानता है। वास्तविकता यही है कि शरीर में किया गया हर पाप पहले हमारे मन, ध्यान, भावनाओं, और विचारों में जन्म लेता तथा निवास करता है; एक लालसा, एक अभिलाषा बनकर हमारे अन्दर घर किए रहता है, पलता रहता है, हमें अन्दर ही अन्दर उसे कार्यान्वित करने के लिए तैयार करता रहता है। और फिर उपयुक्त समय तथा अवसर मिलने पर हम उस पाप को अपने शरीर द्वारा कार्यान्वित कर देते हैं; पाप तो हम में उस पापमय विचार के साथ ही आ गया था, बस प्रकट समय और अवसर के अनुसार कुछ समय पश्चात हुआ। यदि मन में पापमय बातों को जन्म ही नहीं लेने दिया जाए, या उत्पन्न होते ही उन्हें तुरन्त मिटा दिया जाए, तो शरीर भी पाप का व्यवहार नहीं करेगा। इसीलिए प्रभु यीशु हमारे मनों को बदलता है; प्रभु यीशु मसीह को उद्धारकर्ता स्वीकार करने वाले व्यक्ति के अन्दर, उसकी सहायता और मार्गदर्शन के लिए, परमेश्वर पवित्र आत्मा आकर निवास करने लगता है।

वास्तविकता यही है कि मन ही शरीर को नियंत्रित करता है; न कि शरीर मन को। शरीर के कार्यों और प्रयासों के द्वारा मन को स्थाई रीति से नियंत्रित तथा परिवर्तित कर पाना असंभव है। प्रभु यीशु मसीह जब व्यक्ति के मन को बदलता है, तो साथ ही शरीर के कार्य और व्यवहार भी उस बदले हुए मन को प्रतिबिंबित करने लग जाते हैं। यदि आपने आज तक प्रभु यीशु मसीह को आपका मन परिवर्तित करने की अनुमति नहीं दी है, तो आप अभी, इसी समय स्वेच्छा, और सच्चे तथा समर्पित मन से की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु, मैं मान लेता हूँ कि मैंने मन, ध्यान, भावनाओं, विचार, और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किया है। मैं स्वीकार करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर उनके दण्ड को मेरे स्थान पर सह लिया, मेरे पापों की पूरी कीमत क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा चुका दी है। कृपया मेरे पाप क्षमा करें, मेरे मन को बदलें, मुझे अपना आज्ञाकारी शिष्य बनाएं, और अपने साथ बना कर रखें” के द्वारा कर सकते हैं, पापों के दुष्परिणामों से मुक्त होकर अनन्त आशीष के स्वर्गीय जीवन में प्रवेश कर सकते हैं। 

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Understanding Sin and Salvation - 2 

English Translation

What Is Sin? - 2

In the previous article we saw that in God's Word, the Bible, God stated that according to God's standard of holiness and purity, sin is a violation of God's law; and not of the laws or things of man. And every unrighteousness is sin - no matter what the circumstances in which it was committed, or the purpose behind doing it. We also saw that in the eyes of God, sin is not only the physical acts or committed deeds; but all those feelings, thoughts, attitudes, desires, etc. of the mind, which are against the law of God, inconsistent with it, and which incite or inspire any kind of iniquity, are also sins. Even if they are not manifestly committed, i.e., have not yet been carried out physically, they still are as heinous sins in the eyes of God as they would be by their outward manifestation or being done through bodily actions. That is, having sinful thoughts in the mind is as much a sin as committing those sins by the body. God considers giving sinful thoughts a place in the mind to be just as punishable as giving place to that sin in one's life, and judges the person accordingly.


This highest level of sin, holiness, and purity is unmatched in the world. This standard is found only in the Bible, and only in the God of the Bible. In no other scriptures or beliefs of the world, is such a high level of holiness, of being sinless, ever seen. At a first glance, accepting this standard, and adhering to it to live by it, seems very awkward, because it is practically impossible for any human being to stand before it, and to live by it. So, it appears that God has deliberately placed impossible standards before men, and then judged men to be guilty by these unattainable standards, knowing that no man could ever have an answer for them. Has God deliberately placed man into an impossible position, into something actually beyond the capabilities of man?


If we look at the origin of sin in the Bible, and study its background, it is clear that by setting these standards, God has not trapped man, but prepared him to understand the way out of sin. God has given man the way to turn and surrender to His infinite, indescribable love for Him, and be delivered from his sin. What, according to the Bible, was the first sin committed by man; and how did it happen? We find this account in the first three chapters of the first book of the Bible, Genesis, and readers will find it easier to understand if they read these chapters for themselves. In short, God, having completed the creation of the universe in six days, saw it and called it "very good" (Genesis 1:31). Man too, whom, unlike the rest of creation, God had created not by speaking His word, but with His own hands and by breathing His breath into him had made him into a living creature (Genesis 1:27; 2:7), was included in this very good creation of God.  At the time of creation of the universe and of man, there was no sin on earth. Human beings were created as male and female, and were named Adam and Eve. God even planted a garden for them on the "very good" earth, and God used to come there to fellowship with Adam and Eve. God also gave them the responsibility of taking care of that garden. God also planted two special trees in that garden; One was the "tree of life," and the other was the "tree of the knowledge of good and evil" (Genesis 2:9). God gave man a free hand to eat all the fruits of the Garden, but forbade the fruit of "the tree of the knowledge of good and evil" (Genesis 2:16–17), and warned that the day he eats its fruit, he will come under the dominion of death.


In Genesis 3 we see that Satan took the form of a serpent to ensnare man and make him fall into sin, separate him from God. Satan made doubts arise against God in Eve's mind; raised doubts in her mind about God's love for Adam and Eve; incited her to live and do according to the feelings and thoughts that arose in her heart and mind, instead of being obedient to God, to act according to her own sight, intelligence, and understanding. Eve succumbed to this temptation of Satan, disobeyed the instruction given to her by God; did what came in her heart; and ate the fruit of the "tree of the knowledge of good and evil," herself, and gave it to Adam as well (Genesis 3:6-7). Their disobedience of God's instructions was the first sin of the world. The sin was not in that fruit; the sin was in their not following God's instructions about that fruit. Notice, Satan didn't force them to sin, he didn't make them sin by intimidating or threatening them; but did so by raising doubts in their hearts about the law of God, about His instructions to them. By first inciting them against the plans and things of God, by creating in their heart thoughts contrary to the thoughts of God, and then by means of his smooth talk, prodding them to act according to the thoughts of their heart and minds, according to the greed and desire that he awakened in their hearts and mind. Because Adam and Eve listened to their hearts and mind, instead of God; therefore, sin entered the earth and into the creation (Romans 8:19–22), and we are suffering the consequences to this day.


Therefore, God has written in His Word that sin is a violation of God's law. And therefore  God considers harboring sinful thoughts in the mind to be just as heinous and punishable, as sins actually committed in the flesh. The reality is that every sin committed in the body first takes birth and continues to reside in our mind, attitudes, feelings, and thoughts; and there it keeps on growing within us as a longing, a desire; it keeps on preparing us from within to fulfill it. And then whenever there is an opportune time, an appropriate opportunity, we end up executing that sin through our body. Sin had come to live in us with that sinful thought, it only manifested itself after some time, according to the circumstances and occasion. If sinful thoughts are not allowed to find place in the mind, or if they are immediately eradicated as soon as they sprout, then the body will also not have the desire to commit sin. That is why the Lord Jesus changes not our externals, but our hearts where sin takes roots. In the heart of the person who accepts the Lord Jesus Christ as Savior, God's Holy Spirit comes and dwells to help and guide him against letting sin find a place in his heart.


The evident reality is that it is the mind that controls the body; and not that the body controls the mind. Therefore, it is impossible to control and change the mind in a permanent way, through the acts and efforts of the body. When the Lord Jesus Christ changes the mind of a person, the actions and behavior of the body also start to reflect the changed mind. If you have not yet allowed the Lord Jesus Christ to change your mind, you can now, right now, willingly, and with a sincere and submitted heart, say a short prayer, “Lord Jesus, I confess that I have, disobeyed you in attitudes, feelings, thoughts, and behavior, and have sinned. I believe and accept that you took my sins on yourself and suffered their punishment in my place, paying the full price for my sins through your sacrifice on the cross. Please forgive my sins, change my heart and mind, make me your obedient disciple, and keep me with you.” Repentance from sins and submission to the Lord Jesus will immediately set you free from the consequences of sins and give you entry to a heavenly life of eternal blessing as a child of God.



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