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शनिवार, 14 दिसंबर 2024

The Lord Jesus WAS Crucified & Died on the Cross (2) / प्रभु यीशु ही क्रूस पर चढ़ाए और मारे गए (2)

 

पाप और उद्धार को समझना – 22

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पाप का समाधान - उद्धार - 19

प्रभु यीशु ही क्रूस पर चढ़ाए और मारे गए (2)


पिछले लेखों में हमने देखा था कि मनुष्यों के पापों के प्रायश्चित और पाप से उत्पन्न हुई समस्याओं के निवारण के लिए जिस सिद्ध पुरुष की आवश्यकता थी, उसके गुणों में से एक था उसका स्वेच्छा से अपने आप को मनुष्य जाति के पापों के लिए बलिदान होने के लिए दे देना। इस संदर्भ में हमने देखा था कि प्रभु यीशु मसीह ने अपने आप को स्वेच्छा से यह बलिदान होने के लिए अर्पित किया, और उन्हें मारे जाने के लिए क्रूस पर चढ़ा दिया गया। इससे पिछले लेख में हमने देखा था कि शैतान ने प्रभु यीशु की मृत्यु के विषय तुरंत ही अनेकों भ्रम भी फैला दिए जिससे लोगों को लगे कि उनके इस बलिदान की यह गाथा एक काल्पनिक बात है अथवा बढ़ा-चढ़ा कर कही गई बात है, और लोगों का ध्यान उनके इस बलिदान के महत्व एवं महानता से भटक जाए। उनकी मृत्यु से संबंधित भ्रमों को आज इस लेख में हम आगे देखते हैं।

 

    क्रूस की मृत्यु रोमी साम्राज्य के समय में समाज के सबसे निकृष्ट अपराधियों को दी जाती थी, और इसे सबसे अधिक अपमानजनक मृत्यु माना जाता था। क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले अपराधियों को बहुत मारा-पीटा जाता था, कोड़े लगाए जाते थे। उन कोड़ों के सिरों पर नुकीली वस्तुएं लगी होती थीं, जो कोड़े के शरीर पर पड़ने के वेग से खाल के अंदर धंस जाती थीं और जब कोड़े मारने वाला कोड़े को वापस खींचता था तो वे धँसी हुई नुकीली वस्तुएं खाल और माँस को फाड़ते हुए बाहर आती थीं। जब सिपाही यह सब कर चुकते थे, तब उस व्यक्ति को काठ से बना अपना क्रूस, अपनी कोड़ों की मार से चिथड़े हो चुकी पीठ पर लादे हुए क्रूसित होने के स्थान तक जाना पड़ता था, और वहाँ पर उसकी बाहें फैला कर हाथों में से होकर मोटी कीलें क्रूस के काठ में ठोक कर तथा पैरों को एक ऊपर दूसरा रख कर उनमें से भी मोटी कील क्रूस के काठ में ठोक कर उस क्रूस को सार्वजनिक स्थान पर धरती में गाड़कर खड़ा कर दिया जाता था। क्रूस पर चढ़ाए गए अपराधियों के प्राण तुरंत ही नहीं निकलते थे। यह बहुत ही पीड़ादायक मृत्यु होती थी। कोड़ों की मार से उधड़ा हुआ उसका बदन हर सांस के साथ खुरदरे काठ पर रगड़ता रहता था; लटके होने के कारण, शरीर का सारा वज़न कीलों से ठोके हुए हाथों पर आता था, जो हाथों की पीड़ा को असहनीय बना देता था; राहत पाने के लिए यदि अपराधी पैरों का सहारा लेकर उचकने का प्रयास करता तो यही असहनीय पीड़ा फिर पैरों में भी होती, और इस सारी प्रक्रिया में उसका उधड़ा हुआ बदन और भी ज़ोर से क्रूस के काठ पर रगड़ खाता। अर्थात अपराधी कुछ भी करे, वह उसकी पीड़ा को और बढ़ाता ही था, किसी भी रीति से कोई राहत उसे नहीं मिल सकती थी। अंततः थके हुए और लहू बहने से कमज़ोर हो चुके, कीलों से ठुके हुए हाथों के भार टंगे हुए शरीर को सांस लेना भी भारी हो जाता था, और पैरों के सहारे थोड़ा सा उचक कर सांस लेने के प्रयास उसे सांस तो ले लेने देते थे, किन्तु साथ ही उसकी पीड़ा को बहुत बढ़ा भी देते थे। कुछ अपराधियों को इस स्थिति में टंगे हुए, तिल-तिल करके मरने में एक दिन से भी अधिक लग जाता था, और जब तक वो मर नहीं जाते थे, उन्हें क्रूस पर से उतारा नहीं जाता था। प्रभु यीशु ने यह सब जानते हुए भी, इस मृत्यु को स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया जिससे हम मनुष्यों को अनन्त-काल की नरक की पीड़ा से बचने का मार्ग बनाकर सेंत-मेंत प्रदान कर सकें।

 

    प्रभु यीशु को दोपहर में क्रूस पर चढ़ाया गया, और उन्होंने लगभग तीन घंटे क्रूस पर टंगे रहने के बाद अपने प्राण त्याग दिए (मत्ती 27:45-50)। क्योंकि यहूदियों की व्यवस्था के अनुसार मृत्यु-दण्ड भुगतने वाले अपराधी की लाश को सूर्यास्त से पहले दफनाया जाता था (व्यवस्थाविवरण 21:22-23), और क्योंकि प्रभु यीशु के क्रूस पर चढ़ाए जाने से अगला दिन सबत का दिन था जिसमें यहूदी कोई भी कार्य नहीं करते थे, इसलिए प्रभु यीशु की देह को उसी संध्या, सूर्यास्त से पहले दफनाया जाना आवश्यक था। क्रूसित अपराधी की मृत्यु को कुछ शीघ्र कर देने के लिए रोमियों ने एक और पीड़ादायक विधि अपना रखी थी - वे अपराधी की टांगें तोड़ देते थे - पीड़ा भी होती थी, और अपराधी अब सांस लेने के लिए पैरों का बिल्कुल भी सहारा नहीं ले सकता था, शरीर पूर्णतः हाथों में ठुकी हुई कीलों के सहारे लटक जाता था, जो पीड़ा को बढ़ाता था, सांस लेने के लिए छाती को ठीक से फूलने नहीं देता था, जिससे सांस ठीक से नहीं आने पाती थी और व्यक्ति घुटन के अनुभव और तड़पने के साथ कुछ शीघ्र मर जाता था। यही करने सिपाही प्रभु यीशु के पास भी आए, परंतु उसे मरा हुआ पाकर उसकी टांगें तो नहीं तोड़ीं, किन्तु उसकी मृत्यु निश्चित कर लेने के लिए उसकी छाती में भाला मारा, “और इसलिये कि वह तैयारी का दिन था, यहूदियों ने पिलातुस से बिनती की कि उन की टांगे तोड़ दी जाएं और वे उतारे जाएं ताकि सबत के दिन वे क्रूसों पर न रहें, क्योंकि वह सबत का दिन बड़ा दिन था। सो सिपाहियों ने आकर पहिले की टांगें तोड़ीं तब दूसरे की भी, जो उसके साथ क्रूसों पर चढ़ाए गए थे। परन्तु जब यीशु के पास आकर देखा कि वह मर चुका है, तो उस की टांगें न तोड़ीं। परन्तु सिपाहियों में से एक ने बरछे से उसका पंजर बेधा और उस में से तुरन्त लहू और पानी निकला। जिसने यह देखा, उसी ने गवाही दी है, और उस की गवाही सच्ची है; और वह जानता है, कि सच कहता है कि तुम भी विश्वास करो। ये बातें इसलिये हुईं कि पवित्र शास्त्र की यह बात पूरी हो कि उस की कोई हड्डी तोड़ी न जाएगी। फिर एक और स्थान पर यह लिखा है, कि जिसे उन्होंने बेधा है, उस पर दृष्टि करेंगे” (यूहन्ना 19:31-37)।


    प्रभु यीशु की मृत्यु निश्चित हो जाने के बाद, प्रभु के दो अनुयायियों ने उनकी देह को पिलातुस से माँग लिया और सूर्य ढलने से पहले शीघ्रता से देह को पचास सेर सुगंध-द्रव्यों - गंधरस और एलवा में कफन में लपेटकर पास ही की एक कब्र में रख दिया “इन बातों के बाद अरमतियाह के यूसुफ ने, जो यीशु का चेला था, (परन्तु यहूदियों के डर से इस बात को छिपाए रखता था), पिलातुस से बिनती की, कि मैं यीशु की लोथ को ले जाऊं, और पिलातुस ने उस की बिनती सुनी, और वह आकर उस की लोथ ले गया। निकुदेमुस भी जो पहिले यीशु के पास रात को गया था पचास सेर के लगभग मिला हुआ गन्‍धरस और एलवा ले आया। तब उन्होंने यीशु की लोथ को लिया और यहूदियों के गाड़ने की रीति के अनुसार उसे सुगन्ध द्रव्य के साथ कफन में लपेटा। उस स्थान पर जहां यीशु क्रूस पर चढ़ाया गया था, एक बारी थी; और उस बारी में एक नई कब्र थी; जिस में कभी कोई न रखा गया था। सो यहूदियों की तैयारी के दिन के कारण, उन्होंने यीशु को उसी में रखा, क्योंकि वह कब्र निकट थी” (यूहन्ना 19:38-42); “अरिमतिया का रहने वाला यूसुफ आया, जो प्रतिष्ठित मंत्री और आप भी परमेश्वर के राज्य की बाट जोहता था; वह हियाव कर के पिलातुस के पास गया और यीशु की लोथ मांगी। पिलातुस ने आश्चर्य किया, कि वह इतना शीघ्र मर गया; और सूबेदार को बुलाकर पूछा, कि क्या उसको मरे हुए देर हुई? सो जब सूबेदार के द्वारा हाल जान लिया, तो लोथ यूसुफ को दिला दी। तब उसने एक पतली चादर मोल ली, और लोथ को उतारकर उस चादर में लपेटा, और एक कब्र में जो चट्टान में खोदी गई थी रखा, और कब्र के द्वार पर एक पत्थर लुढ़का दिया” (मरकुस 15:43-46)।

 

    किन्तु यहूदी धर्म-गुरुओं को आशंका थी कि प्रभु के शिष्य आकर उसकी देह को उठा ले जाएंगे और कह देंगे कि वह जी उठा है, इसलिए उन्होंने कब्र के मुंह पर एक भारी पत्थर लुढ़का दिया और कब्र को मोहर-बंद करके, वहाँ पहरा बैठा दिया “दूसरे दिन जो तैयारी के दिन के बाद का दिन था, महायाजकों और फरीसियों ने पिलातुस के पास इकट्ठे हो कर कहा। हे महाराज, हमें स्मरण है, कि उस भरमाने वाले ने अपने जीते जी कहा था, कि मैं तीन दिन के बाद जी उठूंगा। सो आज्ञा दे कि तीसरे दिन तक कब्र की रखवाली की जाए, ऐसा न हो कि उसके चेले आकर उसे चुरा ले जाएं, और लोगों से कहने लगें, कि वह मरे हुओं में से जी उठा है: तब पिछला धोखा पहिले से भी बुरा होगा। पिलातुस ने उन से कहा, तुम्हारे पास पहरूए तो हैं जाओ, अपनी समझ के अनुसार रखवाली करो। सो वे पहरूओं को साथ ले कर गए, और पत्थर पर मुहर लगाकर कब्र की रखवाली की” (मत्ती 27:62-66)।


    किसी भी रीति से प्रभु यीशु के क्रूस पर मारे जाने, और दफनाए जाने से संबंधित तथ्य इस मिथ्या धारणा को कोई समर्थन प्रदान नहीं करते हैं कि वे क्रूस पर मरे नहीं थे। थोड़ा रुक कर, उनके स्वेच्छा से यह सब सहना स्वीकार कर लेने और उनकी क्रूर, वीभत्स, अवर्णनीय, अत्यंत पीड़ादायक मृत्यु के बारे में विचार कीजिए। उन्होंने यह सब मेरे और आपके लिए, संसार के सभी मनुष्यों के लिए, हम मनुष्यों की पापी दशा को जानते हुए भी सह लिया, जिससे हम मृत्योपरांत परलोक की अनन्त पीड़ा में न जाएं, वरन उनके साथ स्वर्ग की आशीषों और सुख-शांति में संभागी हों। प्रभु यीशु मेरे और आपकी अंदर-बाहर की वास्तविक दशा को, हमारे द्वारा दिन-प्रतिदिन मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में किए जा रहे सभी पापों और बुराइयों को अच्छे से जानता है, फिर भी हमसे प्रेम करता है, हमें क्षमा करना चाहता है। और यह अनन्तकालीन स्वर्गीय सुख वह हमें सेंत-मेंत दे रहा है, हमसे केवल यह अनुमति चाहता है कि हम उसे हमारे जीवनों में विद्यमान पापों के दुष्परिणामों को दूर करके, उसे हमारे मन और जीवन को स्वच्छ एवं निर्मल कर लेने दें। उसे हम से हमारी कोई भी शारीरिक या सांसारिक बात नहीं चाहिए, उसे केवल हमारा मन चाहिए, जिसे वह पवित्र और शुद्ध करना चाहता है।


       शैतान की किसी बात में न आएं, किसी गलतफहमी में न पड़ें, अभी समय और अवसर के रहते स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप कर लें, अपना जीवन उसे समर्पित कर के, उसके शिष्य बन जाएं। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।

 

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 Understanding Sin and Salvation – 22

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 19

The Lord Jesus WAS Crucified & Died on the Cross (2)


We have seen in the previous articles that the perfect man required to atone for the sins of mankind and provide the solution to the problem of sin, should have some characteristics. One of these characteristics was that he would voluntarily and willingly sacrifice himself for the sins of mankind. We saw in this context that the Lord Jesus Christ offered Himself to be sacrificed on the cross voluntarily, and willingly. We also saw in the previous article that Satan immediately spread lies and deceptions about His death, so that people would not believe in the sacrifice of the Lord Jesus, instead would take it either as an imaginary story, or as an exaggerated account, and would not ponder over the significance of the Lord’s sacrifice. We will look into some deceptions spread amongst people regarding the death of the Lord Jesus.


    In the days of the Roman empire, the death of the cross was awarded to the worst of criminals, and was considered the most humiliating of all death penalties. The criminals were severely beaten and scourged before being crucified. To scourge them, to the whips sharp objects were tied, and by the force of the whiplash, these sharp objects would get embedded into the skin and flesh of the criminal, and when the soldier scourging the criminal would pull back the whip for the next strike, those sharp objects would tear out the skin and flesh. After they had finished scourging the condemned criminal, he would then be made to bear his wooden cross on his back torn up and raw from the scourging, and walk to the place of crucifixion. There his hands and feet would be spread out on the cross, and nailed with thick nails to the cross, and the cross was made to stand erect in a public place. The crucified criminal did not die immediately. This was a very painful and long-drawn means of inflicting death. With the raw back of the person rubbing against the rough wood of the cross, with every breath, each breath was an agony. Because of the body hanging by the nailed hands, the body weight came onto the hands causing excruciating pain there; and if the man tried to brace himself up by taking the weight of the body onto the feet, the nail in the feet would cause similarly excruciating pain to occur in the feet; all the while his raw, bleeding back would be rubbing against the wood of the cross. So, whatever the crucified criminal did, it would only aggravate his pain, not relieve it. Eventually, exhausted by all this, he would not even be able to take full breaths and he would gradually die over a long period of time, at times, it would take more than a day to die, and they would be taken off the cross only after their death. The Lord Jesus, knowing all this, still willingly suffered this painful death, so that we could be provided with the way to escape the eternal torment of hell.


    The Lord Jesus was crucified in the afternoon, and after about three hours on the cross, He gave up His spirit (Matthew 27:45-50). Because, according to the Law of the Jews, the dead body had to be buried before sunset (Deuteronomy 21:22-23); and the next day was the sabbath day, in which no Jew would do any work, therefore, it was necessary to bury the body of the Lord the same evening before sunset. To hasten the death of the crucified person, the Romans had devised another agonizing method - they would break the legs of the crucified person. This would not only aggravate the pain, but would now also make it impossible for the person to brace himself by his nailed feet. The chest of the person, hanging by the nailed hands, would be stretched by the body weight, and not allow the person to breathe adequately, and the person would soon succumb to this pain and choking sensation. The soldiers had come to do this to the Lord, but when they saw that He had already died, they did not do this, but to ascertain His death, they pierced His chest, “Therefore, because it was the Preparation Day, that the bodies should not remain on the cross on the Sabbath (for that Sabbath was a high day), the Jews asked Pilate that their legs might be broken, and that they might be taken away. Then the soldiers came and broke the legs of the first and of the other who was crucified with Him. But when they came to Jesus and saw that He was already dead, they did not break His legs. But one of the soldiers pierced His side with a spear, and immediately blood and water came out. And he who has seen has testified, and his testimony is true; and he knows that he is telling the truth, so that you may believe. For these things were done that the Scripture should be fulfilled, "Not one of His bones shall be broken." And again another Scripture says, "They shall look on Him whom they pierced."” (John 19:31-37).


    After it was confirmed that the Lord had died, two of His followers asked for His body from Pilate, and before sunset quickly wrapped it in a cloth with about a hundred pounds of mixture of myrrh and aloes and put His body in a nearby tomb “After this, Joseph of Arimathea, being a disciple of Jesus, but secretly, for fear of the Jews, asked Pilate that he might take away the body of Jesus; and Pilate gave him permission. So he came and took the body of Jesus. And Nicodemus, who at first came to Jesus by night, also came, bringing a mixture of myrrh and aloes, about a hundred pounds. Then they took the body of Jesus, and bound it in strips of linen with the spices, as the custom of the Jews is to bury. Now in the place where He was crucified there was a garden, and in the garden a new tomb in which no one had yet been laid. So there they laid Jesus, because of the Jews' Preparation Day, for the tomb was nearby” (John 19:38-42); “Joseph of Arimathea, a prominent council member, who was himself waiting for the kingdom of God, coming and taking courage, went in to Pilate and asked for the body of Jesus. Pilate marveled that He was already dead; and summoning the centurion, he asked him if He had been dead for some time. So when he found out from the centurion, he granted the body to Joseph. Then he bought fine linen, took Him down, and wrapped Him in the linen. And he laid Him in a tomb which had been hewn out of the rock, and rolled a stone against the door of the tomb” (Mark 15:43-46).


    But the religious leaders were worried that the Lord’s disciples will come and steal away His body, and claim that He has risen from the dead, so they not only rolled a heavy stone on mouth of the grave, but also had it sealed, and put guards to secure the grave, “On the next day, which followed the Day of Preparation, the chief priests and Pharisees gathered together to Pilate, saying, "Sir, we remember, while He was still alive, how that deceiver said, 'After three days I will rise.' Therefore, command that the tomb be made secure until the third day, lest His disciples come by night and steal Him away, and say to the people, 'He has risen from the dead.' So the last deception will be worse than the first." Pilate said to them, "You have a guard; go your way, make it as secure as you know how." So they went and made the tomb secure, sealing the stone and setting the guard” (Matthew 27:62-66).


    Whichever way you look at it, there is just no support for this concocted story that the Lord did not die on the cross, but walked away from the grave. Please pause for a while, and ponder about His willingly and voluntarily accepting to suffer all of this; think of the cruel, horrific, indescribable painful death He suffered on the cross. He suffered it all for you and me, for the entire mankind, knowing fully well about our sinful condition, yet He did it, so that we could be saved from the eternal torment of hell, and instead enjoy His blessings, peace, and bliss in heaven with Him for eternity. The Lord Jesus knows our factual condition very well, He knows us inside-out, even better than we know ourselves. He very well knows all the thoughts we harbor and deeds that we do, daily; He knows all our sinfulness in all its gory details; and yet He still loves us, still wants to forgive us. He wants to give us this eternal pleasure and happiness, without our having to pay Him anything for it. All He wants from us is the permission, that we will let Him cleanse us, to let Him remove the sins and their effects from our lives, and make our hearts and minds pure and clean. He does not need any of our physical or worldly things; He only wants to have access to our hearts and minds, to make them pure and holy.


    If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


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