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पाप का समाधान - उद्धार - 8
पिछले दो लेखों में हम दो लोगों के जीवनों के उदाहरण देख चुके हैं जो बहुत धर्मी थे, धार्मिकता का निर्वाह करते थे, परमेश्वर के वचन और आज्ञाओं को जानते थे और उनका पालन करने का दावा करते थे, समाज में उच्च ओहदा रखते थे। किन्तु दोनों ही अपने अंदर जानते थे कि अपने इस धर्म के निर्वाह, वचन की बातों को मानने, लोगों के दृष्टि में धर्मी और आदरणीय होने के बावजूद, वे परमेश्वर के सम्मुख खड़े हो पाने और उसके राज्य में प्रवेश कर पाने के अयोग्य थे। उनके मन और विवेक उन्हें चेतावनी दे रहे थे कि अभी, समय रहते, जब प्रभु का अनुग्रह उन्हें उपलब्ध है, इस स्थिति को ठीक कर लें; और इसी लिए समाधान को ढूँढने के लिए वे प्रभु यीशु मसीह के पास आए थे। उनमें से एक, नीकुदेमुस तो संभवतः आगे चलकर प्रभु यीशु मसीह का विश्वासी बन गया था, उसने अरमतियाह के यूसुफ के साथ मिलकर प्रभु यीशु की देह को क्रूस पर से उतरवाकर दफनाया था (यूहन्ना 19:38-39); किन्तु दूसरा व्यक्ति, जो धनी जवान सरदार था, सांसारिक संपत्ति के मोह से अपने आप को अलग नहीं कर पाया और वापस संसार में लौट गया।
आज हम तीसरे व्यक्ति के जीवन के उदाहरण से देखेंगे कि धर्म का निर्वाह कैसे व्यक्ति को सत्य के प्रति अंधा एवं उनके अनुसार सत्य का पालन नहीं करने वालों के प्रति क्रूर और निर्मम, अमानवीय, बना देता है। किन्तु जब सत्य से व्यक्ति की पहचान हो जाती है, तो जिस वचन की गलत समझ के कारण वह अनुचित व्यवहार करता था, उसकी सही समझ आ जाने से उसका जीवन, दृष्टिकोण, और व्यवहार कैसे अद्भुत रीति से बदल जाता है। यह तीसरा उदाहरण नए नियम के जाने-माने नायक पौलुस प्रेरित का है, जो मसीही विश्वासी होने से पहले शाऊल के नाम से जाना जाता था (प्रेरितों 13:9)। अपनी परवरिश और शिक्षा से पौलुस एक कट्टर फरीसी था; उसने अपने समय के बहुत आदरणीय और उत्तम शिक्षक गमलीएल (प्रेरितों 5:34) से शिक्षा पाई थी (प्रेरितों 22:3)।
इस कट्टर फरीसी, पौलुस का मानना था कि यीशु मसीह तथा मसीही विश्वासी विधर्मी हैं, परमेश्वर और उसकी व्यवस्था का अपमान कर रहे हैं, और उन्हें इसके लिए पकड़ना और दंड दिलवाना चाहिए। इसके लिए वह स्थान-स्थान पर जाकर प्रभु यीशु मसीह के शिष्यों को पकड़ कर लाया करता था, जिससे धर्म के ठेकेदार उन्हें विधर्मी होने के लिए दंडित कर सकें (प्रेरितों 7:60; 8:2-3; 26:12)। उसके दृष्टिकोण और विचारों को उसके ही शब्दों में देखते हैं: “मैं ने भी समझा था कि यीशु नासरी के नाम के विरोध में मुझे बहुत कुछ करना चाहिए। और मैं ने यरूशलेम में ऐसा ही किया; और महायाजकों से अधिकार पाकर बहुत से पवित्र लोगों को बन्दीगृह में डाला, और जब वे मार डाले जाते थे, तो मैं भी उन के विरोध में अपनी सम्मति देता था। और हर आराधनालय में मैं उन्हें ताड़ना दिला दिलाकर यीशु की निन्दा करवाता था, यहां तक कि क्रोध के मारे ऐसा पागल हो गया, कि बाहर के नगरों में भी जा कर उन्हें सताता था” (प्रेरितों 26:9-11)।
उसे मिली उसके धर्म की शिक्षा और धार्मिकता के निर्वाह तथा व्यवहार के आधार पर, पौलुस की समझ उसे प्रेरित करती थी कि:
उसे यीशु नासरी के विरुद्ध बहुत कुछ करना चाहिए;
उसे पवित्र लोगों को बंदीगृह में डालना चाहिए;
वह उन लोगों के मसीही विश्वास के लिए मार डाले जाने में सहमत रहे;
हर आराधनालय में वह उनकी ताड़ना करता और उनसे जबरन यीशु की निन्दा करवाए;
बाहर के नगरों में भी जाकर मसीही विश्वासियों को सताए;
उनके विरुद्ध क्रोध के मारे वह पागल सा हो गया था।
पौलुस के धर्म, और धर्म के उसके ज्ञान तथा धार्मिकता ने उसका यह अमानवीय व्यवहार करवाने वाला हाल बना दिया था। किन्तु जब ऐसे ही एक अभियान पर दमिश्क जाते समय प्रभु यीशु मसीह से, उनके महिमित स्वरूप में, उसका साक्षात्कार हुआ, तो उसका जीवन, समझ, दृष्टिकोण, और व्यवहार सभी बदल गए (प्रेरितों 9:2-6; 26:13-15)। उस पहले साक्षात्कार में ही पौलुस ने यीशु को “प्रभु” मान लिया “उसने पूछा; हे प्रभु, तू कौन है? उसने कहा; मैं यीशु हूं; जिसे तू सताता है” (प्रेरितों 9:5)। प्रभु यीशु ने उसके समर्पण को स्वीकार किया और उद्धार के सुसमाचार के प्रचार की सेवकाई सौंपी, परंतु साथ ही यह भी बता दिया कि इस सेवकाई के निर्वाह में उसे बहुत दुख उठाने होंगे “परन्तु प्रभु ने उस से कहा, कि तू चला जा; क्योंकि यह, तो अन्यजातियों और राजाओं, और इस्राएलियों के सामने मेरा नाम प्रगट करने के लिये मेरा चुना हुआ पात्र है। और मैं उसे बताऊंगा, कि मेरे नाम के लिये उसे कैसा कैसा दुख उठाना पड़ेगा” (प्रेरितों 9:15-16); साथ ही यह आश्वासन भी दिया कि उन सभी कठिन और दुखदाई परिस्थितियों में प्रभु उसकी रक्षा करेगा, उसके साथ रहेगा “और मैं तुझे तेरे लोगों से और अन्यजातियों से बचाता रहूंगा, जिन के पास मैं अब तुझे इसलिये भेजता हूं। कि तू उन की आंखें खोले, कि वे अंधकार से ज्योति की ओर, और शैतान के अधिकार से परमेश्वर की ओर फिरें; कि पापों की क्षमा, और उन लोगों के साथ जो मुझ पर विश्वास करने से पवित्र किए गए हैं, मीरास पाएं” (प्रेरितों 26:17-18)। और तुरंत ही पौलुस इस सेवकाई में लग गया “और वह तुरन्त आराधनालयों में यीशु का प्रचार करने लगा, कि वह परमेश्वर का पुत्र है” (प्रेरितों 9:20)।
जिस धर्मशास्त्र की अपनी समझ के अनुसार वह प्रभु यीशु और उसके शिष्यों का घोर विरोध करता था, प्रभु से उसी धर्मशास्त्र की सही समझ प्राप्त करने के बाद वह उसी धर्मशास्त्र में से यीशु के मसीह होने को प्रमाणित करने लगा “परन्तु शाऊल और भी सामर्थी होता गया, और इस बात का प्रमाण दे देकर कि मसीह यही है, दमिश्क के रहने वाले यहूदियों का मुंह बन्द करता रहा” (प्रेरितों 9:22); “जब सीलास और तीमुथियुस मकिदुनिया से आए, तो पौलुस वचन सुनाने की धुन में लगकर यहूदियों को गवाही देता था कि यीशु ही मसीह है” (प्रेरितों 18:5); “और पौलुस अपनी रीति के अनुसार उन के पास गया, और तीन सबत के दिन पवित्र शास्त्रों से उन के साथ विवाद किया। और उन का अर्थ खोल खोल कर समझाता था, कि मसीह को दुख उठाना, और मरे हुओं में से जी उठना, अवश्य था; और यही यीशु जिस की मैं तुम्हें कथा सुनाता हूं, मसीह है” (प्रेरितों 17:2-3)।
अपने जीवन, तथा परमेश्वर के वचन के प्रति अपने दृष्टिकोण के इस अद्भुत परिवर्तन के विषय पौलुस ने फिलिप्पी की मसीही मंडली को लिखा, कि व्यवस्था की जिन बातों को वह पहले अति महत्वपूर्ण समझता था, अब मसीह यीशु द्वारा मानव जाति के उद्धार और मनुष्यों को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के लिए प्रभु यीशु द्वारा किए गए कार्य की सही पहचान हो जाने के बाद, वह अपनी उन पिछली धारणाओं के गलत एवं व्यर्थ होने को समझ गया, वचन और व्यवस्था के प्रति उसका दृष्टिकोण सुधर कर ठीक हो गया, और अब वह केवल मसीह यीशु के ज्ञान में बढ़ने की चाह रखने लगा, व्यवस्था से धर्मी माने जाने की नहीं (फिलिप्पियों 3:4-14)।
शाऊल/पौलुस के धर्म, शिक्षा, और उसकी अपनी समझ ने उसे उसी परमेश्वर और उस परमेश्वर के शिष्यों का बैरी और नाश करने वाला बना दिया, जिसकी वह सेवा करना चाहता था, और सोचता था कि मसीहियों को सताने के द्वारा वह उसकी सेवा कर रहा है। इस बात के विषय उसने अपने हृदय की व्यथा और खेद कुरिन्थुस तथा अपने सहकर्मी तिमुथियुस को लिखी हुई पत्रियों में व्यक्त व्यक्त की है, “और सब के बाद मुझ को भी दिखाई दिया, जो मानो अधूरे दिनों का जन्मा हूं। क्योंकि मैं प्रेरितों में सब से छोटा हूं, वरन प्रेरित कहलाने के योग्य भी नहीं, क्योंकि मैं ने परमेश्वर की कलीसिया को सताया था” (1 कुरिन्थियों 15:8-9); “यह बात सच और हर प्रकार से मानने के योग्य है, कि मसीह यीशु पापियों का उद्धार करने के लिये जगत में आया, जिन में सब से बड़ा मैं हूं” (1 तीमुथियुस 1:15)। किन्तु प्रभु यीशु मसीह पर लाए विश्वास ने उसे धर्मशास्त्र की सही समझ दी, उसकी सेवा को सही उद्देश्य और दिशा दी, उसे हर परिस्थिति में प्रभु परमेश्वर का साथ और सहायता को प्रदान किया। उसकी मसीही सेवकाई का जीवन बहुत कठिन और दुखों से भरा हुआ था; किन्तु अपने जीवन के अंत के समय उसके पास अभूतपूर्व शांति थी, उसे एक आश्वासन था, जो उसने सभी मसीही विश्वासियों के लिए भी व्यक्त किया “क्योंकि अब मैं अर्घ के समान उंडेला जाता हूं, और मेरे कूच का समय आ पहुंचा है। मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूं मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है, जिसे प्रभु, जो धर्मी, और न्यायी है, मुझे उस दिन देगा और मुझे ही नहीं, वरन उन सब को भी, जो उसके प्रगट होने को प्रिय जानते हैं” (2 तीमुथियुस 4:6-8)।
पौलुस के जीवन में जो काम उसकी परवरिश एवं परमेश्वर के वचन के बारे में तथा धर्म के निर्वाह के लिए उसे मनुष्यों से मिली शिक्षा नहीं कर सकी; इन बातों पर आधारित उसकी समझ के अनुसार किए गए उसके “धर्म के काम” नहीं कर सके, वह प्रभु यीशु मसीह के प्रति सच्चे समर्पित विश्वास ने एक पल में करवा दिया; उसका जीवन, व्यवहार, और दृष्टिकोण बिल्कुल बदल दिया। पौलुस के धर्म ने उसे अनजाने में ही पागलों के समान मनुष्यों और परमेश्वर का विरोधी, उनका सताने वाला, प्रभु परमेश्वर का निरादर करने वाला बना दिया था। मसीही विश्वास ने उसे दुख उठा कर भी धीरज, सहनशीलता, और प्रेम के साथ मनुष्यों की भलाई और प्रभु परमेश्वर की सेवकाई करने वाला बना दिया, परमेश्वर के वचन के ऐसी गहरी, सच्ची, और ठोस समझ प्रदान की जो उसे और कहीं से नहीं मिल सकती थी। पौलुस में होकर परमेश्वर के वचन की वह व्याख्या हमें उपलब्ध हुई है, जो आज दो हज़ार साल बाद भी लोगों के दर्शनों को खोल रही है, उनके जीवन बदल रही है, और संसार के अंत तथा न्याय के लिए मसीही विश्वासियों को तैयार कर रही है।
अपने जीवन का आँकलन करके देखिए। कहीं आप भी धर्म और धार्मिकता के नाम पर मनुष्यों के बैरी, उन्हें सताने वाले, और परमेश्वर की निन्दा का कारण तो नहीं बन रहे हैं? प्रभु यीशु मसीह के सच्ची पहचान में आइए, उसे अपना प्रभु स्वीकार कीजिए, आपके जीवन का दृष्टिकोण और व्यवहार ही बदल जाएगा; परमेश्वर के वचन के प्रति आपकी समझ खुल जाएगी, नई हो जाएगी; आप परमेश्वर की निन्दा के नहीं, प्रशंसा के कारण, उसके गवाह बन जाएंगे। स्वेच्छा से, सच्चे पश्चाताप और समर्पण के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं पापी हूँ और आपकी अनाज्ञाकारिता करता रहता हूँ। मैं स्वीकार करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर, मेरे बदले में उनके दण्ड को कलवरी के क्रूस पर सहा, और मेरे लिए अपने आप को बलिदान किया। आप मेरे लिए मारे गए, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए तीसरे दिन जी उठे। कृपया मुझ पर दया करके मेरे पापों को क्षमा कर दीजिए, मुझे अपनी शरण में ले लीजिए, अपना आज्ञाकारी शिष्य बनाकर, अपने साथ कर लीजिए।” सच्चे मन से की गई पश्चाताप और समर्पण की एक प्रार्थना आपके जीवन को अभी से लेकर अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय जीवन बना देगी, स्वर्गीय आशीषों का वारिस कर देगी।
एक साल में बाइबल:
- 2 इतिहास 25-27
- यूहन्ना 9:1-23
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The Solution for Sin - Salvation - 8
In the previous two articles we have seen from the lives of two people who were very religious, practiced righteousness through religious works, knew God’s Word and His Commandments and claimed to follow them, and they also had a high status in the society. But both of them knew within themselves that despite their diligently observing their religion, obeying the Commandments, being righteous and honorable in the sight of people they actually were not worthy of standing before God or of entering into his Kingdom. Their hearts and conscience were warning them that now while they have the opportunity, and the Lord's Grace is available to them, they should rectify their situation; so, they had come to the Lord Jesus to seek the solution to their problem. One of them, i.e., Nicodemus probably later on had become a disciple of the Lord Jesus Christ, and he along with Joseph of Arimathea, had asked for and taken the body of the Lord from the cross and buried Him (John 19:38-39). The second person, the rich young ruler, could not detach himself from the things of the world and his worldly possessions and had returned back into the world.
Today we will look through the example of the third person, how religion can not only make a person blind towards the truth, but can also make him cruel, merciless and inhuman towards those who do not follow his concept of the truth. But once a person actually comes to know the truth, then the inappropriate behavior he exhibited because of his wrong understanding of the truth, and his life, are all so wonderfully, absolutely transformed. This third example is of Paul, the well-known character of the New Testament, who before his becoming a Christian Believer was known as Saul (Acts 13:9). In his upbringing and education, Paul had been trained under the highly respected and renowned teacher of his time, Gamliel (Acts 5:34; 22:3); and was a very fanatical Pharisee.
This fanatical Pharisee, Paul believed that Jesus Christ and Christian Believers are heretics, who are insulting God and His Law, and therefore they deserve to be taken into custody and punished. To have this done he used to go from place to place, catch and fetch the disciples of the Lord Jesus Christ, so that the religious leaders can punish them for being heretics (Acts 7:60; 8:2-3; 26:12). Let us look at his point-of-view and his concepts, from his own words: “Indeed, I myself thought I must do many things contrary to the name of Jesus of Nazareth. This I also did in Jerusalem, and many of the saints I shut up in prison, having received authority from the chief priests; and when they were put to death, I cast my vote against them. And I punished them often in every synagogue and compelled them to blaspheme; and being exceedingly enraged against them, I persecuted them even to foreign cities” (Acts 26:9-11).
From his above statement we see that on the basis of the religious education he had received, his understanding of being religious and righteous compelled him to:
Do as much as and whatever he could against Jesus of Nazareth;
He should have the saints imprisoned;
He was consenting and willing to have them killed for their Christian Faith;
He should punish them in every synagogue, and compel them to blaspheme against Jesus;
Persecute the Christians even to foreign cities;
And he had become extremely enraged against them.
The religion and religious knowledge and righteousness of Paul had made him an inhuman persecutor. While going on one of his campaigns, to Damascus, he had an encounter with the Lord Jesus in the Lord’s glorious form, and that encounter totally changed his life, understanding, outlook, and behavior (Acts 9:2-6; 26:13-15). In that very first encounter, Pauls accepted Jesus as “Lord” - “And he said, "Who are You, Lord?" Then the Lord said, "I am Jesus, whom you are persecuting. It is hard for you to kick against the goads."” (Acts 9:5). The Lord Jesus accepted his submitting himself to His Lordship and handed him the responsibility of preaching the Gospel, but also made it very clear to him that he will have to suffer many pains and problems in this ministry “But the Lord said to him, "Go, for he is a chosen vessel of Mine to bear My name before Gentiles, kings, and the children of Israel. For I will show him how many things he must suffer for My name's sake."” (Acts 9:15-16). But at the same time the Lord also assured him that in all those sufferings and harsh circumstances, He will be with him and keep him safe, “I will deliver you from the Jewish people, as well as from the Gentiles, to whom I now send you, to open their eyes, in order to turn them from darkness to light, and from the power of Satan to God, that they may receive forgiveness of sins and an inheritance among those who are sanctified by faith in Me.'” (Acts 26:17-18). Paul immediately started with this ministry entrusted to him, “Immediately he preached the Christ in the synagogues, that He is the Son of God” (Acts 9:20).
Based on his own learning and understanding of the Scriptures, he used to severely oppose the Lord Jesus and Christian Believers; but having received the correct understanding of those very Scriptures from the Lord, he immediately started to prove from those Scriptures that Jesus is the Messiah “But Saul increased all the more in strength, and confounded the Jews who dwelt in Damascus, proving that this Jesus is the Christ” (Acts 9:22); “When Silas and Timothy had come from Macedonia, Paul was compelled by the Spirit, and testified to the Jews that Jesus is the Christ” (Acts 18:5); “Then Paul, as his custom was, went in to them, and for three Sabbaths reasoned with them from the Scriptures, explaining and demonstrating that the Christ had to suffer and rise again from the dead, and saying, "This Jesus whom I preach to you is the Christ."” (Acts 17:3).
Regarding the marvelous transformation of his life, outlook, and understanding of God’s Word, Paul wrote in his letter to the Christian Believer’s assembly of Philippi, that the things of the Law which he formerly thought to be very important, now having come to gain the true understanding of the work of the Lord Jesus Christ for the salvation of mankind and to make mankind acceptable to God, he has come to realize that all his former understanding and concepts were wrong, and vain. Now he has gained the correct understanding and view-point about God’s Word and Law, and therefore, now his only desire is to increase in the knowledge of Christ, instead of being seen as righteous through being a follower of the Law (Philippians 3:4-14).
Saul’s/Paul’s religion, religious education, and his own learning and understanding had made him the opponent and destroyer of the same God, and of the disciples of the very God, that he was wanting to serve, and was thinking is serving by the persecution he was carrying out. In, writing to the Church at Corinth, and to his colleague, Timothy he expresses the regret he had in his heart about his former fanatic behavior, “Then last of all He was seen by me also, as by one born out of due time. For I am the least of the apostles, who am not worthy to be called an apostle, because I persecuted the church of God” (1 Corinthians 15:8-9); “This is a faithful saying and worthy of all acceptance, that Christ Jesus came into the world to save sinners, of whom I am chief” (1 Timothy 1:15). But his believing in the Lord Jesus gave him the proper understanding of the Scriptures, gave him the correct perspective and direction for his ministry, and made available to him the help and fellowship of the Lord God in and for everything, all circumstances. His life of Christian ministry was very tough and full of pains; but at the end of his life, he had a wonderful peace within himself, he had an assurance, which he has expressed for all Christian Believers also, “For I am already being poured out as a drink offering, and the time of my departure is at hand. I have fought the good fight, I have finished the race, I have kept the faith. Finally, there is laid up for me the crown of righteousness, which the Lord, the righteous Judge, will give to me on that Day, and not to me only but also to all who have loved His appearing” (2 Timothy 4:6-8).
In Paul’s life, what his upbringing, his learning and knowledge from men about his religion, about God’s Word, and about fulfilling religious obligations could never accomplish; and neither his doing the “religious works” and “works of righteousness” based on his own understanding could do, all that was done in one moment, as soon as he sincerely and completely submitted himself into the faith in the Lord Jesus Christ. Paul’s religion had inadvertently made him a fanatic, full of rage against men and God, their persecutor, and one who dishonored the Lord God. Christian Faith made him a man with immense patience, forbearance, and one behaving with love even while suffering opposition for his faith. He became one who did good for others and served God according to God’s calling and will. He was given a deep, factual, true, and solid understanding of God’s Word, which he could never get from anywhere else. Through Paul we have received such an understanding of God’s Word, that is even now, two thousand years later, still opening the understanding of people, changing their lives, and preparing the Christian Believers for the coming end of the world and judgment of God.
Please examine and evaluate your own life. Have you also, in the name of religion and righteousness through religious works, become opponents and persecutors of men, and blasphemers of the Lord God? By coming into the true understanding of the Lord Jesus, by accepting Him as your Lord, your attitude and behavior will be totally transformed. You will get a new and true understanding of God’s Word, you will become a cause of praising and glorifying God, instead of dishonoring Him; you will become His witness for the world. A short prayer said voluntarily with a sincere heart and with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible or not, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
2 Chronicles 25-27
John 9:1-23
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