पुरुषार्थ करना – 3
पिछले लेख में हमने देखा था कि समस्याएं और विपरीत परिस्थितियाँ मसीही विश्वासी के जीवन का अभिन्न अंग हैं, और उन से बचने का कोई तरीका नहीं है। हमने लेख का अन्त यह कहने के साथ किया था कि शैतान हमेशा ही मसीहियों पर मुसीबतें और समस्याएँ लाता ही रहता है। ऐसा वह न केवल उनके लिए जीवन को कठिन बनाने के लिए करता है, वरन इसलिए भी कि उन्हें उनकी आशीषों और प्रतिफलों में कुछ हानि हो, तथा साथ ही उनकी गवाही को भी बिगाड़ सके जिससे कि लोग उनका अनुसरण न करें, मसीह में विश्वास नहीं करें और उद्धार प्राप्त न कर सकें। इसलिए, मसीही विश्वासियों को निरन्तर प्रयास में लगे रहना चाहिए कि विश्वास के अपने जीवन को जी कर दिखाएँ, इसके लिए पुरुषार्थ करें, तथा परमेश्वर की सहायता से आशीषित और सफल हों, तथा उनके जीवनों से परमेश्वर को महिमा मिले।
लेकिन, बहुधा यह प्रश्न उठाया जाता है, खास कर तब जब परिस्थितियाँ विकट हों, कि परमेश्वर मसीही विश्वासी के जीवन में इन समस्याओं और विपरीत परिस्थितियों को आने ही क्यों देता है? क्यों परमेश्वर शैतान की इन युक्तियों और हमलों को हम से दूर नहीं रखता है? जब भी हम इस प्रश्न का सामना करें, तो हमें हमेशा यह याद रखना चाहिए कि परमेश्वर की संतान के जीवन में बिना प्रभु परमेश्वर की इच्छा और अनुमति के कुछ नहीं हो सकता है; और उतना ही हो सकता है, जितने की परमेश्वर अनुमति देता है (1 कुरिन्थियों 10:13); और अन्ततः, सभी बातों के द्वारा, परमेश्वर ने कुछ भले ही की योजना बनाई है जो उसकी संतान के लाभ ही के लिए है (रोमियों 8:28)।
जब भी हम अपने जीवन और सम्बन्धित समस्याओं को लेकर परेशान हों, तो हमें हमेशा ध्यान करना चाहिए कि:
· हमारा सृष्टिकर्ता परमेश्वर हम से बेहतर जानता है कि हमारी योग्यताएँ तथा क्षमताएँ क्या हैं; हम किसे सीमा तक बर्दाश्त कर सकते हैं, सामना कर सकते हैं। परमेश्वर हमारे जीवनों में उतनी ही सीमा तक संघर्षों और समस्याओं को आने देता है, जिस सीमा तक हम व्यक्तिगत रीति से उनका सामना कर सकते हैं।
· हम जब भी किसी भी परिस्थिति का सामना करें, तो यह ध्यान रखें कि सफलता पूर्वक उनमें से होकर हमें निकालने के लिए परमेश्वर हमेशा हमारे साथ रहता है (निर्गमन 4:12; मत्ती 10:19-20)।
· परमेश्वर ने अपने लोगों के चारों और एक बाड़ा बाँधा है और शैतान उसे न तो तोड़ सकता है और न उसके अन्दर जा सकता है; वह तब ही हमारी हानि कर सकता है, जब हम बाड़े से बाहर आएँ, और तब भी उतनी ही सीमा तक जितना परमेश्वर अनुमति देता है (अय्यूब 1:10; 2:6)।
· परमेश्वर कभी भी शैतान को हम पर ऐसी कोई बात नहीं लाने देगा, जिसका सफलता पूर्वक सामना करने के लिए परमेश्वर ने हमें पहले से ही योग्य नहीं बना रखा है, और जिसके लिए उचित और उपयुक्त सामर्थ्य, योग्यता, और बुद्धिमानी प्रदान नहीं कर रखी है (दानिय्येल 3:17; 2 तिमुथियुस 4:18; 2 पतरस 2:9)।
· अन्ततः, ये संघर्ष विभिन्न प्रकार से हमारा अभ्यास करवाने के द्वारा, हमारे लिए भलाई और आशीष ही उत्पन्न करते हैं (यिर्मयाह 29:11; 2 कुरिन्थियों 4:17; रोमियों 5:3-5; रोमियों 8:28), तथा औरों के सामने परमेश्वर की देखभाल तथा सुरक्षा का उदाहरण बनते हैं।
इसलिए हमें समस्याओं और परिस्थितियों को सही रवैये के साथ स्वीकार करना सीखना चाहिए। जो भी परमेश्वर ने हमारे जीवनों में आ लेने दिया है, जो भी वह हम से करने के लिए कह रहा है, उसमें हमें हमेशा ही परमेश्वर पर भरोसा बनाए रखना चाहिए; यह जानते हुए कि उसने हमें पहले से ही उसका सामना करने के लिए उचित एवं उपयुक्त सामर्थ्य तथा आवश्यक संसाधन दे रखे हैं। ये समस्याएं और परिस्थितियाँ परमेश्वर से हमें मिलने वाले प्रतिफलों एवं महिमा तक पहुँचने के लिए हमारी सीढ़ियाँ हैं। और इन में होकर परमेश्वर न केवल हमें आशीष प्रदान करेगा, बल्कि मसीही जीवन में उन्नति करने में भी हमारी सहायता करेगा।
परमेश्वर की विश्वासयोग्यता के पाठ परेशानियों में ही सबसे अच्छे से सीखे जाते हैं। हम मत्ती 14:24-31 में देखते हैं कि पतरस को पानी पर चलने के लिए अनुमति देने से पहले परमेश्वर ने तूफ़ान और लहरों को शांत नहीं किया। बल्कि, उसी तूफान में ही पतरस को पानी पर चलने के लिए कहा – एक असंभव प्रतीत होने वाले कार्य को करने के लिए कहा। और जब तक पतरस प्रभु को देखता रहा, उस तूफ़ान में भी पानी पर चलता रहा; वह तब ही डूबने लगा जब उसने अपनी आँखें प्रभु से हटा कर तूफ़ान पर लगाईं। लूका 19 अध्याय में, अपनी व्यक्तिगत सीमाओं के बावजूद, ज़क्कई ने ठान लिया था कि वह कैसे भी हो, प्रभु यीशु को अवश्य ही देखेगा। उसने पुरुषार्थ दिखाया, परिश्रम किया, और न केवल सफल रहा, बल्कि प्रभु द्वारा आशीष भी प्राप्त की, उसका जीवन बदल गया, और आज भी वह औरों को प्रभु की और आकर्षित करता है।
हमें इस बात का एहसास करना चाहिए और उसे सीखना चाहिए कि परमेश्वर हमारे लिए परिस्थितियों को बदल कर उन्हें आसान और सहने योग्य नहीं कर देता है; बल्कि वह हमें बदलता है, वह हमें परिस्थितियों का सामना करने और उन पर जयवंत होने के योग्य बना देता है। यह करने के द्वारा वह हमें दिखाता है कि हम क्या कुछ करने की क्षमता रखते हैं, परमेश्वर की सहायता और मार्गदर्शन से हम कितने महान काम कर सकते हैं। बस हमें पुरुषार्थ करने और अपने मसीही विश्वास के जीवनों में जयवन्त होने के लिए परिश्रम करने वाला होना चाहिए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Being a Man - 3
In the previous article we had seen that problems and adverse situations are a part of life for the Christian Believer, and there is no escaping from them for him. We had closed the article by saying that Satan always keeps bringing trouble and problems upon Christians, not only to make life difficult for them, but to also try and cause harm to their rewards, as well as to spoil their testimony so that others may be prevented from emulating them in coming to faith in Christ Jesus and being saved. Therefore, the Christian Believers need to constantly be striving to live out their life of Faith and be manly for doing this, and to be blessed and successful from God, and to glorify God through our lives.
But then, one is often tempted to ask, more so when in daunting circumstances, why does God allow these problems and adverse situations in a Christian Believer’s life? Why does God not keep these satanic ploys and attacks away from us? When faced with this question, we should keep in mind that nothing happens in the life of a child of God without the permission and outside the will of the Lord, and then, only to the extent He allows (1 Corinthians 10:13), and eventually through them all, God has planned something good and beneficial for His child (Romans 8:28).
When perplexed about our life and problems, we should always keep in mind that:
Our creator God knows better than us what our abilities and capabilities are; how much we can face and handle. God allows these struggles and problems in our lives, only to the extent that we as individuals can handle them.
When we are facing any situations, God is always there to help us go through them (Exodus 4:12; Matthew 10:19-20).
God has put a hedge around His people and Satan cannot breach or cross it; he can only do harm if we come out of that hedge, and to the extent that God permits him to do (Job 1:10; 2:6).
God will never permit Satan to bring upon us anything that God has not already made us capable of tackling, and has not already given us the strength, ability, and wisdom to handle (Daniel 3:17; 2 Timothy 4:18; 2 Peter 2:9).
Eventually, these struggles, by exercising us in various ways, serve to work for our benefit and blessings (Jeremiah 29:11; 2 Corinthians 4:17; Romans 5:3-5; Romans 8:28), and as examples of God’s care and security for others.
Therefore, we must learn to accept and take the problems and situations with the right attitude. We must keep trusting that what God has allowed in our lives, whatever He is asking us to do, He already has made us capable of managing that situation and has provided the required resources as well. These problems and situations are our stepping stones to glory and rewards from God. And through them not only will God bless us, but will also help us grow in our Christian life.
Lessons of God's faithfulness are learnt best when facing adversities. In Matthew 14:24-31, Lord Jesus did not calm the storm and waves before asking Peter to walk on water. Rather, He asked Peter to walk on the water - do the seemingly impossible, in that storm. And Peter, so long as he was looking at the Lord, walked on the water, in the storm; it was only when Peter started looking at the storm instead of the Lord Jesus, that he started to sink. In Luke 19 Zacchaeus despite his personal limitations decided to see Jesus any which way he could. He strove to do it like a man, and was not only successful, but was also blessed by the Lord, his life was changed, and even today he is attracting people to the Lord.
We must realize and learn that the Lord God does not change the situations for us to make them easy and tolerable for us; instead, He changes us, He makes us capable of facing and overcoming the situations. Through this, He shows us what all we are actually capable of doing, and how great things we can accomplish through the help and guidance of God, if we are willing to be a man and strive to be victorious in our Christian lives.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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