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पवित्र आत्मा के वरदानों का उपयोग – 3
हमने पिछले लेखों में देखा है कि पवित्र आत्मा के वरदानों के भण्डारी होने के नाते, उन वरदानों का उचित उपयोग करने के लिए, प्रत्येक मसीही विश्वासी को पहले एक सही आत्मिक दृष्टिकोण विकसित करना आवश्यक है, जैसा कि परमेश्वर पवित्र आत्मा ने पौलुस में होकर रोमियों 12 अध्याय के पहले दो पदों में लिखवाया है। इसका अर्थ है कि मसीही सेवकाई के लिए मसीही विश्वासी को न केवल परमेश्वर के प्रति पूर्णतः समर्पित, और आज्ञाकारी होना चाहिए, वरन, साथ ही पापों की क्षमा और उद्धार के द्वारा उसके जीवन में आए भीतरी परिवर्तन को उसके व्यावहारिक जीवन में भी प्रकट होना चाहिए। यह व्यावहारिक दिखाई देने वाला परिवर्तन ही उसके जीवन में उद्धार और पवित्र आत्मा के कार्य को प्रमाणित करता है; परमेश्वर के वचन बाइबल में इस बात का और कोई प्रमाण नहीं दिया गया है। सही मानसिकता और वास्तविक समर्पण तथा पूर्ण आज्ञाकारिता के बाद, पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस रोमियों 12:3 में, मसीही विश्वासी के लिए अनिवार्य अपने में एक और गुण बनाए रखने की बात कहता है - स्वयं का आँकलन करना।
इस विषय को विकसित करते हुए, पौलुस इस पद में यह स्पष्ट कर देता है कि यह सारी बात कहने का अधिकार उसे उसकी सेवकाई की नियुक्ति के द्वारा, परमेश्वर से मिला है। वह यहाँ पर कहता है, “क्योंकि मैं उस अनुग्रह के कारण जो मुझ को मिला है, तुम में से हर एक से कहता हूं...”; अर्थात, उसे यह अधिकार उसे परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए अनुग्रह से मिला है, कि यह बात अपने सभी पाठकों से कहे। पौलुस, 1 कुरिन्थियों 15:9-10 में, इस अनुग्रह और अधिकार के विषय में बताता है कि यह उसका परमेश्वर द्वारा प्रेरित नियुक्त करके सुसमाचार की सेवकाई के लिए ठहराया जाना है। इसीलिए हम देखते हैं कि वह इस अनुग्रह के बारे में न केवल यहाँ पर कहता है बल्कि इसकी पुष्टि वह रोमियों 1:1 और अपनी सभी पत्रियों के आरंभ में करता है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई का निर्वाह करने के लिए, यह उसका दायित्व था कि वह मसीही विश्वासियों को मसीही विश्वास और जीवन से संबंधित सही और उचित शिक्षाओं से अवगत करवाए; उन शिक्षाओं को जो परमेश्वर ने उसे औरों के लिए, उनके लाभ के लिए दी थीं। यह मसीही सेवकाई के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण शिक्षा है, जिसका निर्वाह करना बहुत से लोगों को कठिन लगता है। आज प्रचारकों और उपदेशकों को लोगों से आकर्षक और लुभावनी व्यर्थ बातें कहने में, संदेश को रोचक बनाने के लिए उस में अपने ही विचार और बुद्धि की बातें डालने में कोई संकोच नहीं होता है; किन्तु खरी और सही शिक्षा देने में उन्हें संकोच होता है कि कहीं लोगों को बुरा न लग जाए (जो अन्त के दिनों का एक चिह्न है - 2 तिमुथियुस 4:1-5) - चाहे उनके सच्चाई न बताने के कारण परमेश्वर को कितना भी बुरा लगता रहे। हर मसीही सेवक को गलतियों 1:10 “यदि मैं अब तक मनुष्यों को ही प्रसन्न करता रहता, तो मसीह का दास न होता” हमेशा स्मरण रखना चाहिए, और उसके अनुसार अपनी सेवकाई का निर्वाह करना चाहिए; क्योंकि अन्ततः उसे भी प्रभु के सामने खड़े होकर अपना हिसाब देना होगा (2 कुरिन्थियों 5:10)।
रोमियों 12:3 में कही गई अगली बात है कि यह शिक्षा “हर एक” के लिए है। यह केवल उनके लिए नहीं है जो प्रचार करने या शिक्षा देने, अथवा मण्डली की देख-भाल और संचालन के कार्य में लगे हैं। मसीही सेवकाई से संबंधित ये शिक्षाएं मण्डली के हर एक सदस्य, प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए हैं, क्योंकि परमेश्वर ने सभी के लिए कुछ भले कार्य निर्धारित किए हैं (इफिसियों 2:10), और परमेश्वर पवित्र आत्मा ने सभी की भलाई के लिए मण्डली के सभी सदस्यों को उनकी सेवकाई के अनुसार वरदान दे दिए हैं (1 कुरिन्थियों 12:7, 11)। इसलिए इस सेवकाई को सुचारु रीति से करना और वरदानों का सदुपयोग करना भी सभी मसीही विश्वासियों को आना चाहिए। इस कार्य के लिए, पद 1 और 2 के समर्पण, आज्ञाकारिता, और व्यावहारिक जीवन में प्रकट होने वाले भीतरी परिवर्तन के बाद, अगला कदम है अपने विषय सही आँकलन करना और सही दृष्टिकोण रखना।
एक स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है कि जब किसी को कोई विशेष ज़िम्मेदारी दी जाती है, तो उसमें इस बात को लेकर विशिष्ट होने का विचार भी आ जाता है, जिसे फिर शैतान उकसा कर, उसे स्वयं को औरों से उच्च समझने की मानसिकता और घमण्ड में परिवर्तित करके उस व्यक्ति को पाप में फंसा देता है, परमेश्वर की सेवकाई के लिए उसे अप्रभावी बना देता है। शैतान की इस युक्ति में फँसने से बचने के लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी को पौलुस के समान “परन्तु मैं जो कुछ भी हूं, परमेश्वर के अनुग्रह से हूं: और उसका अनुग्रह जो मुझ पर हुआ, वह व्यर्थ नहीं हुआ परन्तु मैं ने उन सब से बढ़कर परिश्रम भी किया: तौभी यह मेरी ओर से नहीं हुआ परन्तु परमेश्वर के अनुग्रह से जो मुझ पर था” (1 कुरिन्थियों 15:10) की मानसिकता के साथ कार्य करना चाहिए। अर्थात, अपने मसीही विश्वासी होने को, या अपने प्रभु के लिए किसी रीति से और किसी कार्य के लिए उपयोगी होने को, अपनी किसी योग्यता अथवा गुण के कारण न समझे, वरन, केवल और केवल परमेश्वर के अनुग्रह में उसे दी गई ऐसी ज़िम्मेदारी, जिसे उसे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार, उसी के दिए वरदान के द्वारा निभाना है, समझे।
पौलुस इस बात को और स्पष्ट करते हुए कहता है कि जैसा और जितना परमेश्वर ने बनाया और दिया है, उस से बढ़कर कोई अपने आप को न समझे। इसके लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी को “सुबुद्धि” के साथ अपने आप को जाँचने, अपना आँकलन करने वाला होना चाहिए। औरों को जाँचना, उनकी आलोचना करना, औरों के स्तर का आँकलन करना तथा लोगों के सामने औरों के बारे में अपने आँकलन का बयान करना तो बहुत सहज होता है। किन्तु इसी माप-दण्ड को अपने ऊपर लागू करके, इसी के अनुसार अपना सही आँकलन करना बहुत कठिन होता है। और इससे भी कठिन होता है खराई से यह स्व-आँकलन करने के पश्चात, परमेश्वर के समक्ष उसका अंगीकार करके, अपने आप को उसके अनुसार सुधारना, या सुधारे जाने के लिए अपने आप को परमेश्वर के हाथों में सौंप देना। परमेश्वर का वचन हमें दोनों ही बातों की शिक्षा और उदाहरण प्रदान करता है। पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस 1 कुरिन्थियों 11:27-32 में बलपूर्वक यह निर्देश देता है कि प्रत्येक मसीही विश्वासी को, प्रभु की मेज़ में भाग लेने से पहले, अपने आप को जाँच लेना चाहिए। जो ऐसा करता है, वह फिर न केवल परमेश्वर से दण्ड पाने से बच जाता है, वरन उसकी आशीषों का संभागी हो जाता है। इसी प्रकार से स्व-आँकलन का एक लिखित प्रमाण दाऊद द्वारा लिखा गया भजन 51 है, जो उसने बतशेबा तथा उसके पति ऊरिय्याह के साथ किए गए पाप के लिए नातान द्वारा उसे बताए जाने के बाद लिखा था। इस भजन में दाऊद न केवल अपने पाप का अंगीकार कर रहा है, वरन अपने आप को शुद्धि के लिए परमेश्वर के हाथों में भी छोड़ दे रहा है। खराई से अपने स्व-आँकलन करने, पाप मान लेने, और अपने आप को परमेश्वर के हाथों में छोड़ देने की इसी प्रवृत्ति के कारण दाऊद को बाइबल में “परमेश्वर के मन के अनुसार” (प्रेरितों 13:22) व्यक्ति कहा गया है।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो यह स्व-आँकलन करने की व्यावहारिक मानसिकता आप के लिए भी अनिवार्य है, ताकि आप योग्य रीति से अपनी सेवकाई पूरी कर सकें। परमेश्वर किसी में विद्यमान किसी भी घमण्ड के साथ कार्य नहीं कर सकता है। आप परमेश्वर के लिए तब ही उपयोगी होंगे, आप परमेश्वर से तब ही आशीषें प्राप्त करेंगे, जब आप अपने अंदर झांक कर, अपने मन की वास्तविक स्थिति को परमेश्वर के सामने मान लेने वाले और उसके सुधार के लिए उसके हाथों में अपने आप को छोड़ देने वाले बनेंगे। वह आपकी वास्तविकता आप से पहले, आप से अधिक गहराई से, और आप से बेहतर जानता है (1 इतिहास 28:9)। किन्तु वह चाहता है कि आप भी अपनी वास्तविकता को जानें और मानें, जिससे वह आपको अपनी सामर्थ्य से परिपूर्ण करके अपने लिए उपयोगी, अपनी मण्डली के लिए उन्नति का कारण, स्वयं आपके लिए आशीषें अर्जित करने वाला बना सके।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Utilizing the Gifts of the Holy Spirit – 3
We have seen in the preceding articles that as stewards of the gifts of the Holy Spirit, to properly utilize the gifts, every Christian Believer should first develop a proper spiritual attitude, as God the Holy Spirit, through Paul, has got written in the first two verses of Romans 12. This means that for Christian Ministry a Christian Believer not only has to be fully surrendered and obedient to God, but also, the transformation that has occurred within him because of receiving forgiveness of sins and salvation, should be practically, externally evident, through his behavior and daily living. This practically evident change in behavior and life is the only proof that affirms the salvation of the person and of the Holy Spirit residing in him; in God’s Word, the Bible, no other proof has been stated for this. The next step after developing the correct attitude, actual full surrender, and complete obedience to God, is maintaining another essential characteristic of a Christian Believer, which Paul through the guidance of the Holy Spirit states in Romans 12:3 – self-assessment.
As he develops this theme, Paul makes it clear in this verse that the authority to say all this has been given to him by God, at the time of his being appointed for his ministry. Paul says here that, “For I say, through the grace given to me, to everyone who is among you...;” i.e., he has derived this authority from the grace God has bestowed upon him, to say this to every one of his readers. Paul speaks of this grace and authority in 1 Corinthians 15:9-10, that it is his being appointed an Apostle and given the ministry of preaching the gospel. That is why we see that he speaks about this grace that he has received not only here but affirms this in Romans 1:1 and at the beginning of all his letters. In other words, to fulfil his God given ministry, it was his responsibility to teach and remind the Christian Believers about the correct and appropriate teachings for their Christian Faith and life; the teachings that God would give him to pass on for the benefit of others. This is a very important lesson for fulfilling one’s Christian Ministry, a lesson many people find very difficult to live by. Today the preachers and teachers have no hesitation in vainly speaking of attractive and pleasing things to the people and adding their own thoughts and wisdom to make the message interesting. But they are very reluctant to dispense God’s true and correct doctrines and teachings forthrightly, lest people feel bad about it, and do not like them for doing so (and this is a sign of the end times - 2 Timothy 4:1-5); no matter how bad God may feel about their doing this. Every Christian minister should always bear in mind Galatians 1:10, “For do I now persuade men, or God? Or do I seek to please men? For if I still pleased men, I would not be a bondservant of Christ” and fulfil his ministry accordingly; because eventually even he will be standing before God to give his account (2 Corinthians 5:10).
The next thing Paul says in Romans 12:3 is that his teaching is addressed “to everyone.” It was not meant to be only for those engaged in preaching and teaching in the Church, or for those who were involved in the care and managing of the Church. The teachings about the Christian Ministry are meant for every member of the Church, for every Christian Believer, because God has determined some good work or the other for every one (Ephesian 2:10); and God the Holy Spirit has given the Spiritual gifts according to that work, for the benefit of everyone (1 Corinthians 12:7, 11). Therefore, every Christian Believer should learn and know how to properly carry out this ministry and worthily utilize the Spiritual gifts given to them. For this, after the consecration, surrender, and obedience to God and the evident change in behavior and life in practical living, given in verses 1 and 2, the next step is a correct self-assessment and maintaining a correct perspective.
This is a natural human tendency that whenever anyone is given a special responsibility, then usually he starts feeling being someone special because of it. Once this happens, Satan provokes him to start thinking of himself as superior to others about it, leads him into having an attitude of pride, thereby making him fall into sin, and renders his service for the Lord God ineffective and infructuous. To avoid falling into this satanic trap, every Christian Believer, like Paul should live and work with the attitude “But by the grace of God I am what I am, and His grace toward me was not in vain; but I labored more abundantly than they all, yet not I, but the grace of God which was with me” (1 Corinthians 15:10). That is to say that one should never consider his being a Christian Believer, his being of use for the Lord in any ministry and service in any manner, as something due to his own ability and worth, but only and only because of the grace of the Lord towards him; that in His mercy and grace God has given him a responsibility and its related gift to utilize it according to God’s will, for God’s glory, not his own.
Paul then carries on in this verse to state this even more clearly that as God has made and given to everyone, no one should consider himself over and above that. That is why every Christian Believer should “think soberly” and assess himself. It is very easy to examine others, criticize them, to speak of what they think of another’s status, and to inform others about their assessment of the other person. But to honestly apply the same standards and truly measure oneself accordingly is very difficult. Even more difficult, after an honest self-assessment, is to accept one’s shortcomings before God, to correct one’s life, and after implementing the necessary corrections, to fully surrender himself into the hands of God. The Word of God teaches and provides examples for this, for us to emulate. Under the guidance of the Holy Spirit, Paul in 1 Corinthians 11:27-32 emphatically states that before partaking in the Lord’s Table, every Christian Believer should examine himself. Everyone who does this, not only remains safe from being judged by the Lord, but also becomes a partaker of His blessings. Another example of an honest self-assessment and its results is Psalm 51, written by David after Nathan made him aware of his sin with Bathsheba and her husband Uriah. In this Psalm, not only is David acknowledging his sin, but is also handing himself over to God to be purified from the sin. Because of his tendency of honestly self-assessing himself, acknowledging his sin, and placing himself in the hands of God for his purification, David has been called a “man after God’s own heart” (Acts 13:22) in the Bible.
If you are a Christian Believer, then this practical tendency of engaging in self-assessment is essential for you as well, to worthily carry out your ministry. God cannot work with any pride, that may be present in any person. You will be useful for the Lord God and will receive blessings from Him only when you start looking within yourself and start exposing the actual state of your heart and mind before God, and hand yourself over into God’s hands to be corrected by Him. God knows your true condition, the actual state of your heart, of your thinking (1 Chronicles 28:9), beforehand and even better than you. But He desires that you too learn and acknowledge your factual condition, so that He can fill you with His power and make you useful for Him, a cause for the edification of His Church, and one who receives the abundant blessings of God.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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