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पवित्र आत्मा के वरदानों का उपयोग – 2
मसीही विश्वासियों के द्वारा पवित्र आत्मा के वरदानों के भण्डारीपन के निर्वाह को सीखते हुए, पिछले लेख से हमने इन वरदानों के उपयोग के बारे में रोमियों 12 से सीखना आरम्भ किया था, और कुछ सम्बन्धित प्रारम्भिक बातों को देखा था। हमने पिछले लेख का समापन इस विचार के साथ किया था कि सबसे पहले विश्वासियों को अपनी सेवकाई के बारे में एक सही आत्मिक दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता है, क्योंकि एक शारीरिक और साँसारिक दृष्टिकोण रखते हुए आत्मिक सेवकाई कर पाना संभव नहीं है। जब हमारा दृष्टिकोण सही हो जाएगा, तब ही हम परमेश्वर के कार्य, अर्थात उसके द्वारा निर्धारित हमारी सेवकाई के बारे में सही समझ रखने पाएंगे, और उसे ठीक से पूरा करने पाएंगे। तब ही हम और हमारे कार्य परमेश्वर को स्वीकार्य होंगे, उसे पसन्द आएँगे, और हमारे लिए आशीष लाएंगे। इसीलिए पौलुस में होकर पवित्र आत्मा द्वारा इस अध्याय, रोमियों 12, का आरंभ, इस आह्वान के साथ करता है: “इसलिये हे भाइयों, मैं तुम से परमेश्वर की दया स्मरण दिला कर बिनती करता हूं, कि अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान कर के चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा है। और इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो” (रोमियों 12:1-2)।
आज हम इन दो पदों में ध्यान देने वाली कुछ बातें देखेंगे, जो परमेश्वर के लिए कार्य करने के लिए सही आत्मिक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए आवश्यक हैं। यहाँ उल्लेख की गई बातें हैं:
पद 1 का आरंभ मसीही विश्वासी को उसके प्रति परमेश्वर की दया का स्मरण दिलाने के साथ होता है; इसे बेहतर समझने के लिए इसे इसके संदर्भ में, इससे पहले के पदों के साथ देखिए। अध्याय 11, विशेषकर उसके अंत में, प्रभु परमेश्वर की महानता तथा सार्वभौमिकता का वर्णन, और उसकी महिमा का उल्लेख किया गया है। परमेश्वर की इस हस्ती, उसके सर्वोच्च, सर्वसामर्थी, एवं सर्वज्ञानी होने, के सामने जब मनुष्य अपनी हस्ती, अपनी पापमय और परमेश्वर के लिए अस्वीकार्य स्थिति का ध्यान करता है, तो उसे बोध होता है कि उस में ऐसा कुछ भी नहीं है कि परमेश्वर उसका ध्यान करे, उस से संपर्क या व्यवहार रखे। किन्तु फिर भी परमेश्वर संसार के सभी मनुष्यों से प्रेम करता है, उन्हें अपने साथ जोड़ना चाहता है, उन्हें अपनी संतान होने का आदर देना चाहता है (यूहन्ना 1:12-13)। इसीलिए इस अध्याय और पद का आरंभिक वाक्यांश है, “इसलिये हे भाइयों, मैं तुम से परमेश्वर की दया स्मरण दिला कर बिनती करता हूं...”। तात्पर्य यह कि आत्मिक सेवकाई और आत्मिक वरदानों के सही उपयोग करने के लिए मनुष्य को अपनी किसी योग्यता अथवा शारीरिक सामर्थ्य अथवा गुण के आधार पर नहीं वरन अपनी अयोग्यता, अपनी वास्तविकता के बोध के साथ, परमेश्वर के प्रति दीन, नम्र, नतमस्तक, आज्ञाकारी, और पूर्णतः समर्पित होकर; हर बात में परमेश्वर से मिलने वाली उसकी दया, उसके अनुग्रह का ध्यान रखते और मानते हुए, कार्य करना चाहिए। यह नहीं कि मनुष्य परमेश्वर से अपनी मन-मर्ज़ी करवाने का प्रयास करने लग जाए।
फिर पद 1 के दूसरे भाग में पवित्र आत्मा मसीही सेवक को अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बलिदान के समान अर्पित करने को कहता है, और इस ही उसकी “आत्मिक सेवा” कहता है। यहाँ पुराने नियम से परमेश्वर की आराधना और उपासना करने, उससे क्षमा प्राप्त करने और उसे स्वीकार्य होने की विधि - परमेश्वर को निर्धारित बलिदान चढ़ाने की बात को समक्ष लाया गया है। परमेश्वर द्वारा दी गई व्यवस्था में हर एक बलिदान का एक स्वरूप, एक विधि होती थी; कुछ भी मनमाना या मनुष्य की अपनी ही इच्छा, विधि, या पसन्द से किए जाने के लिए नहीं था। और बलिदान कोई भी हो, किसी भी उद्देश्य से क्यों न चढ़ाया जाए, उसे उसकी निर्धारित विधि के अनुसार ही चढ़ाना होता था। सभी बलिदानों के साथ एक बात सामान्य थी - जो वेदी पर परमेश्वर के सामने चढ़ा दिया गया, वह फिर लौट कर उस बलिदान चढ़ाने वाले मनुष्य के हाथ में वापस नहीं आता था! या तो वह चढ़ाया गया बलिदान जल कर राख हो जाता था, या फिर याजकों के उपयोग के लिए दे दिया जाता था। इसी प्रकार से जो जीवन परमेश्वर को अर्पित कर दिया गया है, उसे वापस लेकर फिर से संसार के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है, सांसारिकता की बातों के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता है। यदि उसे वापस लिया जा रहा है, शारीरिक लालसाओं और सांसारिक बातों के लिए उपयोग किया जा रहा है, तो इसका अर्थ है कि वह जीवन वास्तव में सही रीति से ‘बलिदान’ नहीं किया गया है - पूर्णतः परमेश्वर को समर्पित नहीं किया गया है। इसलिए वह परमेश्वर के लिए उपयोगी और उसकी महिमा का कारण भी नहीं होगा। साथ ही यह संसार और शरीर के साथ भी, तथा आत्मा के साथ भी निभाने की प्रवृत्ति उस व्यक्ति की “आत्मिक सेवा” भी नहीं मानी जाएगी।
फिर 2 पद मसीही सेवक के लिए कहता है कि उसके अंदर आया परिवर्तन, मसीही विश्वास में आने से उसकी बुद्धि के नए हो जाने का प्रमाण, उसके बदले हुए जीवन में, उसके परिवर्तित चाल-चलन और व्यवहार के द्वारा दिखाई देना चाहिए। उसके अंदर हुए परिवर्तन का यही बाहरी प्रमाण है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति के आत्मिक या परमेश्वर का जन हो जाने, उसके अंदर परमेश्वर पवित्र आत्मा के बस जाने का और कोई प्रमाण बाइबल में नहीं दिया गया है - मन का परिवर्तन, व्यवहार और जीवन के परिवर्तन से दिखाई देता है; न कि उछलने-कूदने, शोर मचाने, नाटकीय व्यवहार करने, और मुँह से विचित्र, तथा समझ में न आने वाली आवाज़ें निकालने के द्वारा।
जिनके अन्दर यह परिवर्तन दिखाई देने लगता है, वे फिर परमेश्वर की इच्छा को जानने वाले भी बन जाते हैं; यह विश्वासी के जीवन में एक निरंतर होती रहने वाली, तथा और भी उन्नत होती रहने वाली प्रक्रिया है। जैसे-जैसे “बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए” वैसे-वैसे व्यक्ति परमेश्वर की इच्छा को और अधिक जानता चला जाता है; और यह उस व्यक्ति के परमेश्वर के साथ बने रहने से होते चले जाने वाले अनुभवों में होकर होता है।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, परमेश्वर के लिए उपयोगी होना चाहते हैं, तो उसको समर्पित और उसकी आज्ञाकारिता का जीवन भी जीना सीखिए। धार्मिक रीति-रिवाजों, कार्यों, और परंपराओं के निर्वाह से कोई परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सका है (प्रेरितों 15:10; 1 पतरस 1:18-19)। परमेश्वर ने आपको उद्धार देने के साथ ही आपके लिए कुछ भले कार्य निर्धारित कर रखे हैं (इफिसियों 2:10); आपकी सहायता तथा मार्गदर्शन के लिए अपना पवित्र आत्मा आप में बसा दिया है, जो सर्वदा आपके साथ रहता है; अपना जीवता वचन आपके हाथों में दे दिया है; और आपको अपने परिवार का, अपनी कलीसिया का एक अंग बना लिया है। अब आपको परमेश्वर द्वारा दिए गए इन संसाधनों एवं प्रयोजनों के उचित प्रयोग के द्वारा, रोमियों 12:1-2 का पालन करना है, जिससे आप तथा आपके कार्य उसे स्वीकार्य हो सकें, और आप उसकी आशीषों के संभागी हो सकें। परमेश्वर की आज्ञाकारिता के अतिरिक्त, उसे प्रसन्न करने, उसे आशीषें पाने का कोई अन्य मार्ग नहीं है (1 शमूएल 15:22)।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Utilizing the Gifts of the Holy Spirit – 2
While learning about the stewardship of the gifts of the Holy Spirit by the Christian Believers, in the last article we had begun learning about the utilization of these gifts from Romans 12, and had seen some related preliminary considerations. We had closed the last article with the thought that the Believer’s first need to develop a correct spiritual perspective about their ministry, since it is impossible to carry out a Spiritual Ministry with a worldly and temporal attitude and perspective. Once we have the right perspective, only then can we understand God’s point-of-view about His work, i.e., our God assigned ministry, and fulfil it. It is then that we and our works will be acceptable to God, please Him and bring blessings for us. For this reason, the Holy Spirit begins this chapter, Romans 12, with the exhortation through Paul, “I beseech you therefore, brethren, by the mercies of God, that you present your bodies a living sacrifice, holy, acceptable to God, which is your reasonable service. And do not be conformed to this world, but be transformed by the renewing of your mind, that you may prove what is that good and acceptable and perfect will of God” (Romans 12:1-2).
Today we will look at the things to take note of in these two verses, to develop this correct spiritual perspective about working for God. The things mentioned here are:
Verse 1 begins with reminding the Christian Believer about the mercy of God; to understand this better, this should be seen with the preceding verses. In chapter 11, particularly towards its end, the greatness of God and His universal power and glory have been mentioned. In comparison to this glorious and exalted stature of God, His being the supreme, omnipotent, omniscient, omnipresent One, when man considers his own puny, sinful, and unacceptable condition before God, then man realizes that there is nothing in him that God should pay any attention towards him, converse with him, or have anything to do with him. But still, since God loves all the people of the whole world, wants to have them all come into fellowship with Him, give everyone the honor of being His children (John 1:12-13), therefore the opening verse of this chapter is, “I beseech you therefore, brethren, by the mercies of God…”. The implication is that for the Spiritual Ministry and proper utilization of the Spiritual gifts, man should not take pride in or rely upon his own abilities, physical power and prowess, and skills. Instead, man, being aware of his own Spiritual inabilities should come before God in an attitude of humility, submission, and obedience and should do what God instructs him to do bearing in mind God’s grace and mercy towards him, instead of trying to get God do what man wants done from Him.
Then, in the second part of the verse, the Holy Spirit calls for the Christian Believer to offer himself as a living sacrifice to God, and calls doing this as “your reasonable service.” Here the Old Testament imagery of offering sacrifices to God for being accepted as His people, receiving forgiveness from Him, and for worshipping God has been brought to mind. In the Law given by God, there was a way for offering each kind of sacrifice, and a prescribed form of worship; nothing was arbitrary or according to any man’s decision, discretion, or preference. There was another important thing about the sacrifice being offered, whatever be the sacrifice or the nature and purpose of the sacrifice, that which once had been offered before God, would not return back into the hands of the person who was offering the sacrifice! Either it was totally burnt and turned to ashes, or it was handed over to the Priests for their use. Similarly, the life that has once been consecrated to the Lord God, surrendered for His use, cannot be taken back from Him and used again for temporal and worldly things. If it is being taken back, if it is being used again for temporal and worldly things, for physical lusts and desires, then it means that the life had not actually been “sacrificed” i.e., consecrated and surrendered to the Lord God for His use. Therefore, such a life will never be useful for the Lord God and will never glorify Him, no matter what the person may say, do, or show externally. Also, this dual utilization - for the world, body and temporal things, as well as spiritual things will not be valid or acceptable, and such service will not be considered a “spiritual service” acceptable to God.
Then verse 2 says about the Christian worker that the change that has come within him because of his coming into the Christian Faith, should be externally and practically evident by the renewing of his mind, his changed life, his changed attitude and behavior. These are the external evidences of the inner transformation that has happened in him. Other than this no other proof of a person’s having become a Spiritual person i.e., a child of God, and the Holy Spirit having come to reside in him has been given in the Bible - a transformed heart and mind is shown and proven by a changed life and behavior; not by jumping, shouting, dramatic actions, making strange non-understandable noises etc.
Those, in whom this transformation becomes evident, then they also become the people who start discerning the will of God; and this is a process that continually keeps carrying on and improving in the person’s life. As one is more and more “transformed by the renewing of your mind,” he starts discerning and learning the will of God more and more; and this happens through his experiences of remaining in fellowship with God.
If you are a Christian Believer, and want to become useful for God, then learn to live a life surrendered and obedient to Him. No one can please God by fulfilling religious rituals, ceremonies, works, and festivals (Acts 15:10; 1 Peter 1:18-19). Along with giving you salvation, God has also kept some good works for you to do (Ephesians 2:10); He has placed His Holy Spirit within you for your help and guidance, who always remains with you; He has placed His Living Word in your hands; and He has made you a member of His heavenly family, and of His Body, the Church. Now for you to properly and worthily utilize these resources that God has provided you, you have to follow Romans 12:1-2, so that your works are acceptable to Him and you receive His blessings. Except for obedience to God, there is no other way of pleasing Him and being blessed by Him (1 Samuel 15:22).
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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