पाप और उद्धार को समझना – 40
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पाप का समाधान - उद्धार - 37
कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (4b)
हमने पिछले लेख को इस प्रश्न " यदि उद्धार पाए हुए और न पाए हुए, दोनों ही पाप कर सकते हैं, तो फिर उद्धार पाने का क्या लाभ? तो फिर उद्धार पाए हुए और न पाए हुए व्यक्ति में क्या अंतर?" के साथ समाप्त किया था। आज के लेख में हम इस प्रश्न के उत्तर को, उस अन्तर को, देखेंगे; तथा पिछले लेखों में देखी गई उद्धार की स्थिति में होने के लाभ एवं महत्व की पुष्टि करेंगे। उद्धार पाए हुए और न पाए हुए व्यक्ति के जीवनों में, और विशेषकर परलोक के अनन्त काल के जीवनों में, बहुत बड़ा और बहुत महत्वपूर्ण अंतर है - उद्धार न पाए हुए व्यक्ति के विपरीत, उद्धार पाया हुआ व्यक्ति हर परिस्थिति में सुरक्षित है, प्रभ द्वारा उसकी रक्षा और सहायता होती रहती है; इस पृथ्वी पर भी, और स्वर्ग में भी। बाइबल से कुछ पदों को देखिए:
* नीतिवचन 24:16 "क्योंकि धर्मी चाहे सात बार गिरे तौभी उठ खड़ा होता है; परन्तु दुष्ट लोग विपत्ति में गिर कर पड़े ही रहते हैं।"
* अय्यूब 5:19 "वह [परमेश्वर] तुझे छ: विपत्तियों से छुड़ाएगा; वरन सात से भी तेरी कुछ हानि न होने पाएगी।"
* भजन संहिता 37:24 "चाहे वह गिरे तौभी पड़ा न रह जाएगा, क्योंकि यहोवा उसका हाथ थामे रहता है।"
* भजन संहिता 34:19 "धर्मी पर बहुत सी विपत्तियां पड़ती तो हैं, परन्तु यहोवा उसको उन सब से मुक्त करता है।"
* नीतिवचन 14:32 "दुष्ट मनुष्य बुराई करता हुआ नाश हो जाता है, परन्तु धर्मी को मृत्यु के समय भी शरण मिलती है।"
एक बार फिर ध्यान करें, यह उद्धार पाए हुए व्यक्ति के लिए पाप करते रहने की छूट नहीं है; जैसा कि हम इससे पहले वाले प्रश्न के उत्तर में देख चुके हैं। वरन इसे ऐसे समझिए, जब एक शिशु खड़ा होना और चलना आरंभ करता है, तो बहुत बार लड़खड़ाता है, अस्थिर कदमों से चलता है, गिरता है, कभी-कभी चोट भी खाता है, किन्तु माता-पिता हर बार उसकी सहायता करते हैं, उसे प्रोत्साहित करते हैं, गिर जाने पर उसे उठा कर खड़ा भी करते हैं और गोदी में लेकर दुलारते और पुचकारते भी हैं। इसी प्रकार परमेश्वर पिता भी अपने आत्मिक बच्चों की सहायता करता है, उन्हें उभारता है, मार्गदर्शन करता है। किन्तु जैसे जब बच्चे उद्दंड होते हैं, बारंबार जान-बूझकर अनाज्ञाकारिता करते हैं, बुराई में पड़ते ही रहते हैं, तो फिर केवल चेतावनी देने भर से ही काम नहीं चलता है, और माता-पिता को उस उद्दंड बच्चे की ताड़ना भी करनी पड़ती है; उसी प्रकार परमेश्वर भी उद्दंडता करने वाली अपनी सन्तान की उपयुक्त ताड़ना भी करता है (इब्रानियों 12:5-11)। नया जन्म होने पर मसीही विश्वासी एक नए जन्मे हुए बच्चे के समान परमेश्वर के आत्मिक घराने में, आत्मिक शिशु अवस्था में प्रवेश करते हैं। वे चाहे आत्मिक रीति से अक्षम और अयोग्य हैं, परिपक्व और सिद्ध नहीं हैं, उन्हें वचन की समझ और ज्ञान नहीं है, लेकिन वे उसी परिवार का एक अभिन्न भाग हैं। वे परमेश्वर के उस परिवार की प्रत्येक बात, प्रत्येक विशेषाधिकार, प्रत्येक आशीष, प्रत्येक आदर, सम्मान, और ओहदे के बराबर के हिस्सेदार हैं (रोमियों 8:17-18)। कोई उनके इस अधिकार को उनसे छीन नहीं सकता है। परिवार में प्रवेश करने के बाद से परमेश्वर पवित्र आत्मा अंश-अंश करके उन्हें प्रभु कि समानता में बदलता चला जाता है (2 कुरिन्थियों 3:18)। वे सिद्ध नहीं हैं, इसलिए उनके जीवनों में भली और बुरी दोनों बातें पाई जाती हैं; इस अपूर्णता का यह तात्पर्य नहीं है कि परमेश्वर की सन्तान नहीं हैं या उनका उद्धार उनसे ले लिए गया है अथवा ले लिए जाएगा। आत्मिक परिपक्वता की इस यात्रा में वे अनेकों अनुभवों, परिस्थितियों, परीक्षाओं से होकर निकलते हैं; और आवश्यकता पड़ने पर परमेश्वर पिता उनकी ताड़ना भी करता है। इसीलिए उनके जीवनों में कुछ अनपेक्षित अथवा अनुचित बातों के कारण यह निष्कर्ष निकालना कि वे परमेश्वर के परिवार के अंग नहीं हैं, या नहीं रहने पाएंगे अनुचित है, बाइबल से इस धारणा का कोई समर्थन नहीं है। वरन यह धारणा रखना, ऐसे व्यक्तियों की बाइबल की अधूरी और गलत समझ और उनके बाइबल का सही ज्ञान न होने का सूचक है।
हम जब मसीही विश्वासियों के प्रति पिता परमेश्वर के इस प्रेम और देखभाल, उन्हें सुरक्षित रखने, उभारने, सिखाने, और परिपक्व करने के प्रावधानों को देखते हैं, तो फिर आश्चर्य होता है कि क्यों लोग फिर भी परमेश्वर के इस अद्भुत प्रयोजन को स्वीकार नहीं करते हैं, और क्यों सच्चे मन से प्रभु यीशु को समर्पित होकर उसकी शरण में नहीं आ जाते हैं, स्वेच्छा से उसके शिष्य नहीं बन जाते हैं? परमेश्वर कोई कठोर दण्ड-अधिकारी नहीं है जो हमें दण्ड या ताड़ना देने के अवसर ढूँढता रहता है; वरन वह तो हमें अपने प्रेम, अनुग्रह, और कृपा का भागी बनाने के अवसरों की तलाश में रहता है। तो फिर क्यों उससे दूरी रखनी? क्यों उसके इस प्रेम भरे आह्वान को ठुकराना? प्रभु के आपके प्रति प्रमाणित किए गए प्रेम, कृपा, और अनुग्रह, तथा उसके द्वारा आपको प्रदान किए जा रहे पाप-क्षमा प्राप्त करने के अवसर के मूल्य को समझिए, और अभी इस अवसर का लाभ उठा लीजिए।
प्रभु यीशु ने तो अपना काम कर के दे दिया है; किन्तु क्या आपने उसके इस आपकी ओर बढ़े हुए प्रेम और अनुग्रह के हाथ को थाम लिया है, उसकी भेंट को स्वीकार कर लिया है? या आप अभी भी अपने ही प्रयासों के द्वारा वह करना चाह रहे हैं जो मनुष्यों के लिए कर पाना असंभव है? आपके द्वारा स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ आपके द्वारा की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को आशीषित तथा स्वर्गीय जीवन बना देगा। अभी अवसर है, अभी प्रभु का निमंत्रण आपके लिए है - उसे स्वीकार कर लीजिए।
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Understanding Sin and Salvation – 40
The Solution For Sin - Salvation - 37
Some Related Questions and their Answers (4b)
We had closed the previous article with the question "Then what is the benefit of being saved or Born-Again? If both can sin, then what difference, if any, is there between a saved and an unsaved person?" Today we will consider the answer to this question, the difference between the two; and also reaffirm the the importance and benefits of being saved, that we have seen earlier. There is a great difference in the lives, particularly the eternal lives in the next world, of those saved in contrast to those not saved - unlike the not-saved person, the saved person is always protected, the Lord helps him and keeps him safe in every circumstance; in this world as well as the next. Consider some verses from the Bible:
* Proverbs 24:16 "For a righteous man may fall seven times And rise again, But the wicked shall fall by calamity."
* Job 5:19 "He [God] shall deliver you in six troubles, Yes, in seven no evil shall touch you."
* Psalm 37:24 "Though he fall, he shall not be utterly cast down; For the Lord upholds him with His hand."
* Psalm 34:19 "Many are the afflictions of the righteous, But the Lord delivers him out of them all."
* Proverbs 14:32 "The wicked is banished in his wickedness, But the righteous has a refuge in his death."
But take note, again, this is not a license for the saved or Born-Again person to sin with impunity; as we have already considered in detail in the preceding articles. Rather, understand this with this example, when a baby starts to stand and walk, initially he stumbles and falls many times, walks with faltering steps, even hurts himself due to the falls; but every time the parents help him, encourage him, help him to get up and walk again, and often take him in their arms and console him or pet him if he is hurt. Similarly, God the Father too helps His spiritual children, encourages them, guides them when they fall in sin. But just as when the children become impertinent, willfully disobedient, and willfully keep disobeying the parents, repeatedly keep on doing bad or forbidden things, then in such a situation, only verbal warnings do not suffice, the parents have to chasten that recalcitrant child; similarly, God too appropriately chastens His recalcitrant children (Hebrews 12:5-11). On being Born-Again the Christian Believer enters the spiritual family of God as a spiritual infant. They may be unable and unlearned to do anything, they are not spiritually mature and perfect, they do not have the proper knowledge and understanding of God's Word, but still they are an inseparable part of that family. They have equal part and rights to everything in God's family, to every privilege, every blessing, every respect, honor, and status of the family (Romans 8:17-18). No one can take away this right from them. Once they become part of the family, the Holy Spirit starts changing them bit by bit into the likeness of the Lord (2 Corinthians 3:18)। Since they are not perfect, therefore, in their lives both good and bad things are seen; this incompleteness in them does not imply that they are not the children of God, or that their salvation has been taken away from them, or will be taken away. In this journey to spiritual maturity, they pass through many kinds of experiences, circumstances, and tests; and where and when required Father God chastises them also. Therefore, because of some unexpected or inappropriate things being present in their lives, to conclude that they are not, or will not remain a part of God's family is incorrect, it has no support from the Bible. Rather, those who believe in such a notion, it indicates their incomplete and incorrect understanding and not having a proper knowledge of God's Word.
When we see the love and care bestowed by God the Father upon His children the Christian Believers, to keep them safe, encourage them, teach them, and guide them into maturity, then it is surprising why people do not accept this wonderful provision of God for them? Why do they not voluntarily come up and accept the offer of the Lord Jesus and become His obedient, submitted disciples? God is not a strict disciplinarian, who is waiting to find an opportunity or way to punish man; rather, He is a loving Father who is always in search of opportunities to show His love, kindness, and grace towards us. Then why should anybody stay away from Him; reject His loving offer of reconciliation and fellowship? The Lord Jesus has done His part; He has made ready and available salvation with all the benefits freely to everyone; but have you accepted His offer? Have you taken His hand of love and grace extended towards you and the free gift He offers; or are you still determined to do that which no man can ever accomplish through his own efforts?
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Great 👍
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